बिहार में प्रचार शबाब पर
बिहार चुनावों के पहले चरण के मतदान में अब दो दिन का ही समय शेष रह गया है और अगले 24 घंटे बाद चुनाव प्रचार भी थम जायेगा अतः सत्तारूढ़ एनडीए व विपक्षी महागठबन्धन ने जमीन पर अपने-अपने स्टार प्रचारकों को उतार रखा है। कहा जा सकता है कि राज्य में चुनाव प्रचार अपने शबाब पर है। भाजपा वाले एनडीए के प्रचार की कमान स्वयं प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने संभाल रखी है और गृहमन्त्री अमित शाह भी स्टार प्रचारक हैं, जबकि कांग्रेस वाले महागठबन्धन की तरफ से श्री राहुल गांधी व उनकी बहन श्रीमती प्रियंका गांधी के अलावा श्री लालू प्रसाद की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने पूर्व उप-मुख्यमंत्री श्री तेजस्वी यादव को चुनाव प्रचार की कमान सौंप रखी है। इसमें अब कोई दो राय नहीं हो सकती कि चुनावी जमीन पर लोगों के मुद्दे तैर रहे हैं जिनका आंकलन करना सामान्यतः असंभव नहीं होता है। ये मुद्दे महंगाई से लेकर बेरोजगारी के हैं जिन्हें विपक्षी महागठबन्धन केन्द्र में रखना चाहता है। इसके साथ ही महागठबन्धन की कोशिश है कि राज्य के विकास का मुद्दा भी केन्द्र में लाया जाये जबकि भाजपा की ओर से प्रयास किया जा रहा है कि इस विकास के मुद्दे के साथ 20 साल पहले के उस लालू राज के मुद्दे को भी जोड़ दिया जाये जिसे वह जंगल राज बता रहा है। चुनावों का यह नियम होता है कि चुनाव वही पार्टी या गठबन्धन जीतता है जिसका विमर्श जमीन पर चलने लगता है।
दोनों ही गठबन्धन एक–दूसरे पर जमकर आरोपों की बौछार कर रहे हैं और दोनों को ही अपने-अपने जातिगत गठबन्धनों पर भरोसा है। मगर चुनावों में यह देखना होता है कि आम जनता कौन सा गठबन्धन बना रही है ? बिहार की जनता या मतदाता राजनैतिक रूप से बहुत सजग माना जाता है क्योंकि मौका पड़ने पर यह जातिगत आग्रहों को उठा कर ताक पर भी रख देता है। महागठबन्धन के नेता कह रहे हैं कि 20 साल से (केवल 17 महीने छोड़कर) बिहार में राज कर रही नीतीश कुमार की सरकार को अब ‘अलविदा’ कहने का समय आ गया है। मगर सबसे ज्यादा आश्चर्य यह है कि विपक्ष के निशाने पर राज्य के मुख्यमंत्री व जद(यू) नेता श्री नीतीश कुमार नहीं हैं जबकि भाजपा कह रही है कि एनडीए उन्हीं के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहा है। बेशक नीतीश बाबू के स्वास्थ्य को लेकर महागठबन्धन के नेता कटाक्ष कसने से बाज नहीं आ रहे हैं मगर नीतीश बाबू भी चुनाव प्रचार कर रहे हैं। राज्य में भाजपा के साथ मिलकर ही नीतीश बाबू सरकार चला रहे हैं अतः इस सरकार के पिछले कार्यकलापों के बारे में हिसाब मांगना लोकतन्त्र में विपक्ष का दायित्व माना जाता है। विपक्ष सवाल उठा रहा है कि बिहार में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है जिसके चलते हर वर्ष लाखों बिहारी देश के अन्य राज्यों में पलायन करते हैं। हालांकि एनडीए ने अपने घोषणापत्र में आगामी वर्ष में एक करोड़ नौकरियां देने का वादा किया है लेकिन विपक्ष इसे सवालों के घेरे में ले रहा है और पूछ रहा है कि पिछले बीस सालों में राज्य में सबसे ज्यादा पांच लाख नौकरियां उन्हीं 17 महीनों की सरकार के दौरान दी गईं जब तेजस्वी बाबू नीतीश सरकार में ही उप मुख्यमन्त्री थे।
इस दौरान नीतीश बाबू ने भाजपा का दामन छोड़ दिया था और उन्होंने लालू जी की पार्टी राजद के साथ मिल कर सरकार चलाई थी। वैसे इन दोनों पार्टियों ने 2015 का मिलकर चुनाव लड़ा था और पूर्ण बहुमत प्राप्त किया था। तब भाजपा ने अपने दम पर ही 243 सदस्यीय विधानसभा में 52 सीटें प्राप्त की थीं और यह विपक्ष में बैठी थी। खैर अब यह इतिहास की बात हो चुकी है, वर्तमान सन्दर्भों में मुद्दे की बात यह है कि क्या नीतीश बाबू चुनावों में अपने गठबन्धन का बहुमत ले आयेंगे? बिहार की मिट्टी को सूंघ कर हवा का रुख बताने वाले विश्लेषक यह मानते हैं कि इस बार बिहार की जनता निर्णायक फैसला देने जा रही है अर्थात 2020 की तरह यह उहापोह की स्थिति में नहीं रहेगी और एनडीए व महागठबन्धन में से किसी एक को भारी बहुमत देगी। 2020 के चुनावों में एनडीए व महागठबन्धन के कुल वोटों में केवल 12 हजार (0.3 प्रतिशत) का ही अन्तर था। इसके बावजूद नीतीश बाबू के एनडीए को एक दर्जन सीटों की बढ़त मिल गई थी। विश्लेषकों की राय है कि इस बार ऐसा होने नहीं जा रहा है। इसे देखते हुए जमीन पर चुनावी प्रचार का लेखा-जोखा किया जा सकता है। प्रधानमन्त्री समेत एनडीए के नेता कह रहे हैं कि यदि महागठबन्धन सत्ता में आया तो 20 साल पहले का जंगल राज फिर लौट आयेगा, जबकि विपक्षी महागठबन्धन की दलील है कि यदि एनडीए की सत्ता में वापसी हुई तो नीतीश बाबू को भाजपा मुख्यमन्त्री नहीं बनने देगी और इस पद पर अपने ही किसी दूसरे नेता को बैठायेगी।
जाहिर है यह सवाल नीतीश कुमार को परेशान कर सकता है जिसकी वजह से भाजपा नेताओं ने कहना शुरू कर दिया है कि एनडीए के शासन में यह पद खाली नहीं रहेगा क्योंकि नीतीश बाबू वर्तमान में भी मुख्यमन्त्री हैं और आगे भी रहेंगे। अभी तक विश्लेषक बिहार के जातिगत गणित पर ही चुनावी विजय के आंकड़ों की समीक्षा करते रहे हैं। असलियत यह है कि इस प्रकार के आंकड़े बिहार की प्रबुद्ध जनता के अपमान की तरह होते हैं क्योंकि यह वह जनता है जिसने 1974 में स्व. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विभिन्न राजनैतिक बुराइयों के खिलाफ जन आन्दोलन किया था और जेपी को ‘लोकनायक’ का दर्जा दिया था। दरअसल चुनावी विश्लेषक भी सरल रास्ता अपनाते हैं और राजनैतिक दलों द्वारा व्याख्यायित विजय आंकड़ें के फेरे में जाते हैं। इसका उदाहरण यह है कि राजद के पक्ष में मुस्लिम व यादव के कुल 32 प्रतिशत वोट गारंटी शुदा बताये जा रहे हैं और नीतीश बाबू के पक्ष में महादलितों की कुल संख्या। ऐसी गणनाएं अब अप्रासंगिक हो चुकी हैं। क्योंकि बिहार कबायली राजनीति के दौर से बाहर आने को कुलबुला रहा है। बिहार में युवा बेरोजगारी की दर 10.8 प्रतिशत है। ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं कि राज्यभर में केवल एक लाख 35 हजार 464 लोग ही बड़ी औद्योगिक इकाइयों में कार्यरत हैं जिनमें से केवल 34 हजार 470 लोग ही स्थायी कर्मचारी हैं। बाकी सब ठेके पर काम करते हैं। बिहार की कुल आबादी साढ़े 13 करोड़ के लगभग है जो कि दो करोड़ 76 लाख परिवारों में बटी हुई है। इन परिवारों में 64 प्रतिशत एसे परिवार हैं जिनकी मासिक आमदनी दस हजार रु. से भी कम है। केवल चार प्रतिशत परिवार ही ऐसे हैं जिनकी आमदनी 50 हजार रु. मासिक से ऊपर है। इसी से बिहार में गरीबी का आलम मापा जा सकता है। अतःचुनाव प्रचार के तेवर इसी धरातल पर बैठ कर मापे जाने चाहिए। ऐसे में जो भी पार्टी अपना विमर्श जनता के बीच तैरा देगी वही बाजी मार ले जायेगी।

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