मुकदमा, भारत सरकार व एक पाक नागरिक के मध्य
ईरान-इजराइल युद्ध व उनसे पूर्व चल रहे यूक्रेन-रूस युद्ध के शोर में कुछ बेहद महत्वपूर्ण घटनाएं हमसे छूट गईं। उन पर एक दृष्टि डाल लेना भी बेहद जरूरी है। अपने जीवन के सौ वर्ष पूरे कर चुके भारतीय चित्रकार कृष्ण खन्ना की उपलब्धियों की चर्चा जिस स्तर पर होनी चाहिए थी, नहीं हो पाई। वर्ष 1925 में पांच जुलाई को लायलपुर में जन्मे चित्रकार को जितने अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले, उतने संभवत: किसी अन्य चित्रकार को नहीं मिल पाए। स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद भी देश में व्याप्त अराजकता को जिस सौंदर्य बोध के साथ इस महान चित्रकार ने उकेरा वह विलक्षण था।
वर्तमान में हमने एक पेंटिंग्स पर लगभग सात दशक से चल रहे विवाद को भी दृष्टिविगत कर दिया। भारत-पाक के बीच रोरिक की पेंटिंग्स 70 वर्ष तक चलते रहे मुकदमे को भी अभी तक हम उचित महत्व नहीं दे पाए।
शायद आपने कभी सोचा भी न होगा कि भारत सरकार व एक पाकिस्तानी नागरिक के बीच 70 वर्ष से दो ‘पेंटिंग्स’ को लेकर भी अदालती विवाद चल रहा है। यह दोनों पेंटिंग्स भारत में आकर बसे प्रख्यात रूसी कलाकार निकोलस रोरिक (1874-1947) ने बनाईं थीं। यह विवाद इन दिनों भी ब्रिटेन की एक अदालत में विचाराधीन है।
निकोलस रोरिक की ये दोनों पेंटिंग्स ‘हिमालय कंचनचंघा’ और ‘सनसैट काश्मीर’ सन् 2009 तक पूसा रोड स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) के पास मौजूद थी। उसी वर्ष अचानक एक दिन दोनों ‘पेंटिंग्स’ चोरी हो गईं। कुछ ही महीनों बाद दोनों कलाकृतियां लंदन की प्रसिद्ध कला-नीलामी संस्था ‘सोथबी’ के पास पहुंच गईं। दोनों का मूल्य लगभग 40 लाख पौंड आंका गया। ये दोनों कलाकृतियां एक पाकिस्तानी नागरिक ज़ाहिर नज़ीर द्वारा नीलामी के लिए भेजी गई थीं। ज़ाहिर नज़ीर का दावा है कि ये दोनों पेंटिंग्स उसके दादा व भारतीय उपमहाद्वीप के एक चर्चित िफल्म अभिनेता नज़री अहमद खान को निकोलस रोरिक की पुत्रवधू एवं अपने समय की प्रख्यात भारतीय अभिनेत्री देविका रानी ने भेंट की थीं।
अब थोड़ा निकोलस रोरिक को याद कर लें। अपने समय का यह महान कलाकार सेंट पीटर्सबर्ग रूस में 1874 में जन्मा था। अपने देश में उसकी पहचान एक पेंटर, साहित्यकार व एक दार्शनिक चिंतक के रूप में बन चुकी थी। धीरे-धीरे उसकी जिज्ञासा अध्यात्म और रहस्यवाद की ओर बढ़ने लगी। ऐसी ही कुछ जिज्ञासाओं के समाधान की तलाश उसे भारतीय पर्वतीय प्रदेश हिमाचल ले आई। उसका नाम कई बार नोबेल पुरस्कार के लिए भी प्रस्तावित हुआ। पेंटिंग के अलावा ‘आर्किटेक्चर’ के क्षेत्र में भी धीरे-धीरे उसकी प्रसिद्धि विश्वभर में होने लगी। रूस और यूक्रेन की कई धार्मिक इमारतों के ‘डिज़ाइन’ उसी ने तैयार किए थे।
1910 के आसपास उसे भारतीय आध्यात्मिक विचारधारा ‘थियोसौफी’ ने आकर्षित किया। वह वेदांत के बारे में रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के लेखों से बेहद प्रभावित हुआ। उसे श्रीमद्भगवत गीता और रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजली व कुछ अन्य कविताओं ने भी बेहद प्रभावित किया। वेदांत के अलावा बौद्ध धर्म में भी उसकी दिलचस्पी बढ़ने लगी। इसी प्रभाव में उसने अनेक कविताएं व कहानियां भी लिखीं। 1917 के आसपास उसने रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की के साथ मिलकर ‘गोर्की-कमीशन’ और ‘दी आर्ट्स यूनियन’ के बैनर तले सृजनशील आंदोलनों में भी भाग लिया।
रूस की बोलशेविक-क्रांति के समय वह शख्स ‘वल्ड ऑफ ऑर्ट सोसायटी’ का अध्यक्ष था लेकिन वह बोलशेविक क्रांति व लेनिन से ज़्यादा प्रभावित नहीं हुआ। उसने अपनी पत्नी हेलेना और दो बेटों के साथ िफनलैंड का रुख किया। रोरिक साम्यवादी क्रांति का विरोधी नहीं था, मगर वह लेनिन की दमनपूर्ण नीतियों के विरुद्ध था। 1919 में वह फिनलैंड से लंदन चला गया, जहां उसका सम्पर्क ‘थियोसौफी’ के नेताओं से हुआ। वह थियोसौफी में इतना रम गया कि उसने ‘अग्रियोग’ के नाम से एक नई वैचारिकता को ईजाद किया, वहीं लंदन में ही रोरिक ब्रिटिश बौद्ध नेता क्रिसमस हम्फ्री, लेखक एवं चिन्तक एचजी वेल्स और रविंद्रनाथ टैगोर के सम्पर्क में आया। लंदन के बाद लगभग तीन वर्ष तक अमेरिका में ‘अग्रियोग सोसायटी’ चलाने के बाद रोरिक ने अपने बेटे जार्ज और छह मित्रों के साथ एशिया-भ्रमण की योजना बनाई। पहले चरण में सिक्किम और बाद में पंजाब, कश्मीर (विशेष रूप से लद्दाख, कराकोरम की पर्वत शृंखला से होता हुआ यह यायावर, तिब्बत, साइबेरिया आदि कुछ स्थलों पर कुछ दिन बिताने के बाद 1926 में मास्को लौटा। रोरिक पूर्व की आध्यात्मिकता पर आधारित ‘सेक्रेड यूनियन आफ ईस्ट’ की स्थापना करना चाहता था। वह यह भी चाहता था कि बोलशेविक नेता उसे इस लक्ष्य की प्राप्ति में मदद करें, मगर सोवियत नेता उसकी इस परिकल्पना को निरर्थक एवं कोरे आदर्शवाद की उपज मानते थे। उन्होंने इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। आखिर रोरिक व उसके आदर्शवादी मित्र और परिवार के सदस्य भारत में बसने के इरादे से इधर चले आए। यहां आकर रोरिक ने ‘हिमालयन-रिसर्च इंस्टीच्यूट’ की स्थापना की। 1929 में उसका नाम पेरिस यूनिवर्सिटी की ओर से नोबेल पुरस्कार के लिए भी प्रस्तावित हुआ। ऐसे ही प्रस्ताव नोबेल कमेटी को 1932 व 1935 में भी मिले थे। मगर उसे पुरस्कार नहीं मिल पाया।
इसी बीच यह कलाकार इतना चर्चित एवं प्रसिद्ध हो गया था कि अमेरिका व 20 अन्य देशों ने 1935 में व्हाइट हाउस में विश्व की सांस्कृतिक सम्पदा की रक्षा के लिए जिस संधि दस्जावेज़ पर हस्ताक्षर किए उसे ‘रोरिक दस्तावेज़’ के नाम से ही जाना जाता है। द्वितीय महायुद्ध के समय रोरिक भारत में ही था। 1942 में नेहरू व इंदिरा गांधी दोनों कुल्लू स्थित रोरिक निवास पर उससे मिलने आए। नेहरू ने अपने संस्मरणों में कई बार रोरिक का जि़क्र किया और उसे विलक्षण व्यक्ति बताया था।
‘एक आदर्श दुनिया’ बसाने की रोरिक की बातों ने विश्व के अनेक राजनेताओं को प्रभावित किया था। आज स्थिति यह है कि कुल्लू घाटी के नग्गर गांव में ‘रोरिक हाल एस्टेट’, तिरुवनंतपुरम में ‘श्री चित्रा आर्ट गैलरी’ और कुछ अन्य भारतीय नगरों में भी उसके नाम को समर्पित कला केंद्र हैं।
निकोलस रोरिक का बेटा स्वेतोस्लाव रोरिक भी महान चित्रकार के रूप में स्थापित हुआ। नेहरू व इंदिरा पर बनाई गई उसकी पेंटिंग्स भारतीय संसद के सेंट्रल हाल में अब भी लगी हैं। इसी स्वेतोस्लाव रोरिक ने 1945 में अपने समय की चर्चित अभिनेत्री देविका रानी से विवाह किया था। रोरिक स्वेतोस्लाव 1993 में चल बसा था। उसे बैंगलुरू में ही दफ्नाया गया। वहां कननपुरा रोड पर नगर से बाहर उसका फार्म हाऊस है। देविका रानी के साथ वह वहीं रहता रहा। दोनों की मृत्यु के बाद अब कला व दार्शनिक चिंतन का यह महान केंद्र अदालती विवादों में उलझा है।
रोरिक परिवार का मनाली स्थित आवास अब कलाकृतियों का एक विशाल केंद्र है। इसका संचालन ‘इंटरनेशनल रोरिक ट्रस्ट’ द्वारा होता है। अब एक बार फिर लौटे चोरी हुई पेंटिंग्स की ओर। नीलामी के लिए सोथबी नीलामकर्ता को कलाकृतियां सौंपने वाले ज़ाहिद नज़ीर का दावा है कि ये दोनों पेंटिंग्स उसके पास 1960 के दशक से हैं और 2010 में ‘सोथबी’ को सौंपने से पहले तक ये उसके लाहौर स्थित आवास पर ही टंगी रही हैं।
अब इस विवाद की जांच में भारतीय संस्थाएं आईसीएआर, आईएआरआई और सीबीआई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दौड़-धूप कर रही हैं। सीबीआई को इस चोरी की जांच का आदेश दिल्ली हाईकोर्ट ने दिया था।