दिल्ली की सत्ता में बदलाव
लोकतन्त्र का यह अन्तर्निहित गुण होता है कि वह कभी ठहराव नहीं चाहता है बल्कि…
लोकतन्त्र का यह अन्तर्निहित गुण होता है कि वह कभी ठहराव नहीं चाहता है बल्कि बदलाव चाहता है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में इस महानगर की जनता ने जो जनादेश दिया है वह बदलाव के पक्ष में ही है। इसकी एक वजह यह भी होती है कि लगातार सत्ता का सुख भोगने वाली राजनैतिक पार्टी के पूरे तन्त्र में अहंकार भी समा जाता है जबकि लोकतन्त्र में जो भी सरकार चुनी जाती है वह जनता की सरकार ही होती है। अतः दिल्ली की जनता ने जिस तरह आम आदमी पार्टी (आप) को हरा कर भाजपा को सत्ता सौंपी है वह आमूलचूल परिवर्तन की हिमायती है क्योंकि भाजपा को इसने 70 सदस्यीय विधानसभा में दो-तिहाई के लगभग सीटें दी हैं। इसका सीधा मतलब है कि पिछले 11 साल से सत्ता पर बरकरार आप पार्टी जिस तरह केन्द्र सरकार से झगड़े की राजनीति कर रही थी उससे दिल्ली वासी आजिज आ चुके थे। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि मतदाताओं ने इस पार्टी के धनुर्धारी अरविन्द केजरीवाल को भी चुनावी मैदान में पटखनी दे दी है। उनके साथ उपमुख्यमन्त्री रहे श्री सिसोदिया भी चुनाव हार गये हैं। इसके अलावा केवल मुख्यमन्त्री आतिशी सिंह को छोड़ कर दिल्ली सरकार के ज्यादातर मन्त्री भी चुनावी मैदान में हार गए।
बेशक दिल्ली जीतकर भारतीय जनता पार्टी ने देशवासियों को यह सन्देश देने में सफलता अर्जित की है कि राज्य स्तर पर भी प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का चेहरा कारगर साबित होगा। दिल्ली को निःसन्देह मिनी इंडिया कहा जाता है अतः इसमें चुनाव जीतने का अर्थ ‘इंडिया’ के स्तर पर सफलता पाने का ही होता है। दिल्ली में जब 1967 में पहली बार जनसंघ (भाजपा) ने अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की थी और केवल एक बाहरी दिल्ली की सीट छोड़ कर सभी लोकसभा सीटों पर विजय प्राप्त की थी तथा महानगर परिषद में पूर्ण बहुमत पाया था यह नारा जनसंघ ने दिया था कि ‘हमने दिल्ली जीती है-देश भी हम जीतेंगे’। जाहिर है कि पिछले 11 साल से दिल्ली में सत्तारूढ़ आप पार्टी भी लगभग एेसे ही प्रयासों में लगी हुई थी और अपने इस प्रयास में उसने पंजाब राज्य को भी जीता और गुजरात व गोवा जैसे राज्यों में भी पैठ बनाने की कोशिश की मगर इस पार्टी के संयोजक श्री अरविन्द केजरीवाल के खुद नई दिल्ली क्षेत्र से चुनाव हार जाने के बाद इस पार्टी के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया है हालांकि राजनीति में किसी भी नेता के भविष्य के बारे कभी कोई कयास नहीं लगाया जाता है। बेशक 2013 के चुनावों में श्री केजरीवाल की पार्टी भ्रष्टाचार विरोध की नैय्या पर सवार होकर दिल्ली में उभरी थी और इसने कांग्रेस के सहयोग से 49 दिन की सरकार भी चलाई थी। इसके बाद 2015 व 2020 के चुनावों में दिल्ली वासियों ने श्री केजरीवाल की कथित साफ-सुथरे राजनीतिक विमर्श को आंख मीच कर अपना समर्थन दिया और इन दोनों चुनावों में आप के क्रमशः 67 व 62 विधायक जीते। दिल्ली की देखादेखी पंजाब के मतदाताओं ने भी 2022 के चुनावों में आप पार्टी को छप्पर फाड़कर तीन चौथाई सीटें दीं लेकिन दिल्ली के हालिया चुनावों में जिस तरह आप पार्टी को मतदाताओं ने हराया है उससे यही सन्देश गया कि आप पार्टी भी अन्य राजनैतिक दलों के समान एक पार्टी है। यह बेवजह नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी ने आप पार्टी को उसके घर में ही घेर कर मारा और श्री केजरीवाल द्वारा तैयार रणभूमि का इस्तेमाल उसी को हराने के लिए किया।
भाजपा ने भी अपने घोषणापत्र में आप पार्टी की तर्ज पर ही लोगों को मुफ्त रेवडि़यां देने के वादे किये और इनके पूरा करने की गारंटी स्वयं प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने दी। आमतौर पर यह माना जाता है कि चुनाव वही पार्टी जीतती है जिसका एजेंडा लोगों के जन विमर्श का हिस्सा होता है। मगर भाजपा ने केजरीवाल के मुफ्त सुविधाओं के एजेंडे को ही जिस प्रकार हथिया कर श्री मोदी के नेतृत्व में गारंटी दी उसने चुनावी माहौल का रंग ही बदल डाला। इन चुनावों में देश की सबसे बड़ी प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली उससे यही संकेत मिलता है कि इस पार्टी को लोगों ने चुनावी मैदान का संजीदा खिलाड़ी नहीं माना और चुनाव को सीधे भाजपा व आप पार्टी के बीच आमने-सामने का बना दिया। हालांकि इन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत पिछले चुनावों से कुछ बढ़ा जरूर है मगर वह किसी भी सीट पर विजयी नहीं हो सकी। दिल्ली वासियों ने अपना वोट झगड़े की राजनीति की जगह समन्वय की राजनीति के पक्ष में देकर भाजपा के कंधों पर यह बोझ डाल दिया है कि वह अपने चुनावी वादों को पांच साल के भीतर पूरा करें क्योंकि अब दिल्ली की पेचीदा शासन प्रणाली के तहत केन्द्र में भी भाजपा की सरकार है और राज्य स्तर पर भी उसी की सत्ता है। दिल्ली चूंकि एक अर्ध राज्य है और इसका शासन-प्रशासन केन्द्र व राज्य दोनों के हाथ में रहता है अतः अब भाजपा शासन को सुचारू तरीके से चलाये। दिल्ली वासियों का यह भी सन्देश है कि श्री केजरीवाल के खुद भ्रष्टाचार के आरोपों में घिर जाने से आप पार्टी ने नैतिकता के आधार पर विश्वसनीयता खो दी है।
भाजपा की विजय इसीलिए आम आदमी पार्टी के घर में घुसकर मारने जैसी ही है। चुनावी प्रचार में हमने देखा कि किस प्रकार मुख्यमन्त्री आवास का मुद्दा गरमाया और आप के कथित शराब घोटाले का शोर मचा। इससे आप सरकार की विश्वसनीयता पर भी संकट खड़ा हुआ। राजनीति में विश्वसनीयता बहुत मायने रखती है। जेल के भीतर से आप की सरकार चलाये जाने को लोगों ने वक्र दृष्टि से देखा। अब चुनाव हो चुका है और सत्ता की चाबी भाजपा के हाथ में आ चुकी है अतः भाजपा द्वारा दी गई सामाजिक सुरक्षा की गारंटियों को भी लोग परखेंगे। मगर इससे पहले यह भी देखना होगा कि इस अर्ध राज्य का नया मुख्यमन्त्री कौन बनता है?