धर्म परिवर्तन व दानव आफताब
संस्कृतियों के उत्थान-पतन में महिलाएं ही प्रमुख भूमिका निभाती हैं। धर्म या मजहब समाज में महिलाओं की गरिमा या मर्यादा की व्याख्या करता है।
02:02 AM Nov 16, 2022 IST | Aditya Chopra
किसी भी संस्कृति में मजहब और महिला का विशेष स्थान होता है। संस्कृतियों के उत्थान-पतन में महिलाएं ही प्रमुख भूमिका निभाती हैं। धर्म या मजहब समाज में महिलाओं की गरिमा या मर्यादा की व्याख्या करता है। यही वजह है कि विश्वभर में हुई राजनैतिक क्रान्तियों में भी महिलाओं की सामाजिक भूमिकाएं उत्प्रेरक का कार्य करती हुई दिशा नियामक सिद्ध होती रहती हैं। अतः मजहब में महिला की भूमिका को कम करके आंकने का काम जब भी किया गया है उसके परिणाम प्रतिगामी तथा पीछे की ओर धकेलने वाले ही रहे हैं। 15वीं सदी में यदि भारत में गुलाम वंश की शासिका ‘रजिया सुल्ताना’ के शासन को उस दौर के पुरुष अमीर व तालुल्केदारों ने स्वीकार कर लिया होता तो संभवतः आज भारत का इतिहास बदला हुआ होता और इस पर मुगल साम्राज्य स्थापित ही न हुआ होता। मुस्लिम समाज ने जिस तरह एक महिला शासक की अवमानना केवल उसके स्त्री होने की वजह से की उसने इतिहास का रुख ही बदल कर रख दिया। वर्तमान समय में जिस प्रकार राजधानी में आफताब पूनावाला युवक ने अपनी प्रेमिका श्रद्धा का कत्ल उसके शरीर के 35 टुकड़े करके किया है उससे यही बू आती है कि महिला की शख्सियत केवल एक ‘उपभोग्या’ से बढ़कर कुछ नहीं।
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सवाल पैदा होते हैं कि ऐसे संस्कार पूनावाला को किस माहौल या समाज से मिले? जिसमें मनुष्य को किसी बेजान वस्तु की तरह काटा गया। यह मानव के दानव बन जाने की पराकाष्ठा है। परन्तु इसके समानान्तर यह भी सत्य है कि धर्म ही मनुष्य में संस्कार भरता है। भारत में धर्म की परिभाषा जो की जाती है वह ‘धारयति सः धर्मः’ है। अर्थात जो धारण करने योग्य हो वही धर्म है। मनुष्य का दानव बन जाना यदि किसी भी समाज में जायज हो जायेगा तो उसकी संस्कृति स्वयं ही नष्ट हो जायेगी। इसके साथ ही हमें सर्वोच्च न्यायालय के इस कथन की तरफ भी ध्यान देना होगा कि जबरन धर्म परिवर्तन बहुत खतरनाक होता है और इससे राष्ट्रीय सुरक्षा तक प्रभावित होती है। ऐसा सर्वोच्च न्यायालय ने क्यों कहा? इसके कुछ ठोस तर्क हो सकते हैं। कोई भी मजहब हवा में पैदा नहीं होता। देश, काल व परिस्थितियां इसके लिए जिम्मेदार होते हैं। परन्तु कुछ ऐसे भी धर्म होते हैं जो देश, काल व परिस्थितियों से निरपेक्ष होते हैं। इनमें भारतीय संस्कृति का विशिष्ट स्थान है क्योंकि इसका धर्म जिसे सनातन कहा जाता है किन्हीं निर्दिष्ट परिकल्पनाओं या व्याख्या अथवा ईष्ट देवों का मोहताज नहीं है। वह मनुष्य को ही स्वयं उस पर आचरण करने या न करने की छूट प्रदान करता है और उसे स्वयं ही ब्रह्म तक हो जाने की इजाजत देता है। अतः इसमें देश, काल व परिस्थितियां स्वयमेव रूप से गौण हो जाती हैं। भारत के इस मर्म को महान शायर मिर्जा गालिब ने पूरी शिद्दत के साथ पहचाना और एक ऐसा शेर लिखा जिनकी मामांसा करना बड़े-बड़े दार्शनिकों के लिए भी मुश्किल पड़ गया और इस्लामी विद्वानों की समझ को पूरी तरह कुन्द कर गया क्योंकि गालिब एक मुसलमान भी थे। उनका वह शेर है।
न था कुछ तो ‘खुदा’ था, कुछ न होता तो ‘खुदा’ होता
डुबोया मुझको ‘होने’ ने, न ‘मैं’ होता तो क्या होता
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मोटे तौर पर मतलब यह है कि मजहब या धर्म सब दिमागी खलल है महत्वपूर्ण ‘आदमी’ का ‘इंसान’ होना है। मगर इसके बावजूद इंसानों का धर्म परिवर्तन कराया जाता है और लालच या जबरन अथवा धोखे में रख कर भी कराया जाता है। श्रद्धा और आफताब एक-दूसरे से प्रेम करते थे और ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ में रहते थे। यह जांच का विषय जरूर बनना चाहिए कि क्या आफताब शादी के लिए श्रद्धा का धर्म परिवर्तन कराना चाहता था? क्योंकि श्रद्धा उससे शादी करने के लिए लगातार कह रही थी। सवाल यह भी महत्वपूर्ण है कि धर्म परिवर्तन राष्ट्रीय सुरक्षा को कैसे खतरा पहुंचाता है। मजहब की पहचान के आधार पर जब देशों का निर्माण किया जाता है (जैसे पाकिस्तान) तो उसमें इंसान की पहचान को निकाल लिया जाता है। जबकि किसी भी देश का निर्माण उसके लोग ही करते हैं चाहे उनके धर्म अलग-अलग हों या कोई से भी हों। इसकी वजह एक हो सकती है कि धर्म परिवर्तन होते ही व्यक्ति की निष्ठाएं उस मजहब के प्रतीक स्थलों जैसे धरती व तीर्थ स्थानों आदि से जुड़ जाती हैं। उसकी सांस्कृतिक पहचान को बदलने का प्रयास किया जाता है। इससे उसकी राष्ट्र निष्ठा में बदलाव आना स्वाभाविक प्रक्रिया हो जाती है क्योंकि उसके पूज्य स्थल ही बदल जाते हैं। इस बात पर आज बहुत गंभीरता के साथ विचार किये जाने की जरूरत है क्योंकि साठ के दशक में जब तमिलनाडु में एक गांव के सभी हिन्दू लोग इस्लाम धर्म में परिवर्तित हो गये थे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी भी बहुत चिन्तित हुई थीं क्योंकि भारत की गरीबी को निशाना बनाते हुए गरीब तमिल नागरिकों का मजहब अरब देशों से आने वाले पेट्रो डालरों के लालच से बदला गया था। इन्दिरा गांधी को ही तब धर्म परिवर्तन के खिलाफ तमिलनाडु मूलक कानून लाना पड़ा था। मगर इसके बाद 1981 में पुनः एक गांव के 300 दलित परिवारों ने धर्म परिवर्तन कर लिया था मगर इस बार कारण हिन्दू धर्म के भीतर ही जाति मूलक दुर्व्यवहार था। अतः सब कोणों पर हमें ध्यान रखना होगा।