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भारत के श्रम परिदृश्य में बदलाव: ‘विकसित भारत’ के हित में श्रम संहिताएं

04:15 AM Nov 21, 2025 IST | Editorial

एडविन ऑसगुड ग्रोवर ने सही कहा था कि “श्रम की गरिमा आपके काम पर नहीं,बल्कि आपके काम करने के तरीके पर निर्भर करती है।” भारत सरकार ने राष्ट्रीय श्रम मानकों और सामाजिक सुरक्षा के मजबूत ढांचे के जरिए इस गरिमा को बनाए रखने की दिशा में निरंतर प्रयास किया है। हालांकि, एक मजबूत नीतिगत ढांचे के साथ-साथ ऐसे लाभकारी रोजगार सुनिश्चित करने की भी जरूरत है, जिसके जरिए श्रमबल में आर्थिक बदलाव लाया जा सके। यह एक अलग बात है कि असली वित्तीय स्थिरता एवं आर्थिक सशक्तीकरण सार्थक रोजगार के अवसरों- विशेष रूप से ऐसे कार्य जो व्यक्तिगत कौशल एवं अनुभव से मेल खाते हों- की उपलब्धता पर निर्भर करता है और इन्हें केवल व्यापक-आधार वाले एवं बहु-क्षेत्रीय आर्थिक विकास के जरिए से ही हासिल किया जा सकता है। इस संदर्भ में, खासकर एक श्रम अधिशेष वाली अर्थव्यवस्था के रूप में मशहूर भारत के मामले में, जितनी भूमिका सरकार की है, उतनी ही जिम्मेदारी कॉरपोरेट जगत की भी है। हालांकि, कॉरपोरेट क्षेत्र के विकास के लिए ऐसे सक्षमकारी सामाजिक-कानूनी ढांचे और प्रगतिशील व दूरदर्शी श्रम कानूनों की जरूरत है, जो 21वीं सदी के भारत की आकांक्षाओं के अनुरूप हों।
चूंकि श्रम समवर्ती सूची में आता है, इसलिए केन्द्र और राज्य सरकारें दोनों ही इस विषय में कानून बनाती हैं। दशकों से, भारत का श्रम इकोसिस्टम 29 केन्द्रीय कानूनों द्वारा प्रशासित होता रहा है। इनमें से कई कानून आजादी से पहले के काल के हैं। बहुलता, जटिलता और पुराने प्रावधानों की चुनौतियों पर काबू पाने हेतु और द्वितीय राष्ट्रीय श्रम आयोग (2002) की सिफारिशों के अनुरूप, भारत सरकार ने चार व्यापक श्रम संहिताओं - मजदूरी संहिता, 2019, सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020, औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 और पेशेगत सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कामकाज की स्थिति संहिता, 2020 - को लागू करके देश के श्रम इतिहास में सबसे दूरगामी सुधारों में से एक की शुरुआत की है। उल्लेखनीय रूप से, ये सुधार 1991 के उदारीकरण और संरचनात्मक समायोजन की नीतियों के बाद सही अनुक्रम में हासिल की गई ऐसी प्रमुख उपलब्धियां हैं,जो एक प्रगतिशील श्रम इकोसिस्टम और औद्योगिक विकास के लिए एक आधुनिक एवं नवाचार-संचालित ढांचा तैयार कर रही हैं।
श्रम सुधार:
मौजूदा श्रम कानूनों को तर्कसंगत एवं आधुनिक बनाने के जरिए, चारों श्रम संहिताओं का उद्देश्य विनियामक ढांचे को उल्लेखनीय रूप से सुव्यवस्थित करना और विभिन्न धाराओं, नियमों, प्रपत्रों एवं रजिस्टरों की संख्या को काफी कम करना है। यह श्रम कानूनों को समन्वित और सरल बनाने का एक व्यापक प्रयास है, जिससे देश भर के श्रमिकों का जीवनयापन और नियोक्ताओं का व्यवसाय करना अपेक्षाकृत अधिक आसान होगा।
आइए, अब इन श्रम संहिताओं के तहत पेश किए गए कुछ प्रमुख सुधारों पर बारीकी से नजर डालते हैं। मजदूरी संहिता के तहत किए गए सबसे उल्लेखनीय सुधारों में से एक है न्यूनतम मजदूरी का सार्वभौमिकरण। यह सुधार संगठित और असंगठित, दोनों क्षेत्रों के सभी कर्मचारियों पर लागू होगा। मौजूदा ढांचे के तहत, न्यूनतम मजदूरी का प्रावधान केवल विशिष्ट ‘अनुसूचित रोज़गारों’ तक ही सीमित है। इस संहिता में एक “मजदूरी की निम्न सीमा” (फ्लोर वेज) की अवधारणा भी पेश की गई है, जिसका निर्धारण केन्द्र सरकार जीवन स्तर और जीवन-यापन की लागत के आधार पर करेगी।
इससे यह सुनिश्चित होगा कि कोई भी राज्य अपनी न्यूनतम मजदूरी को राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित सीमा से कम नहीं कर सकेगा और देशभर में, जहां वर्तमान में मजदूरी की दरों में व्यापक अंतर है, एकरूपता को बढ़ावा मिलेगा। एक और प्रगतिशील बदलाव पारंपरिक श्रम ‘निरीक्षक’ की जगह ‘निरीक्षक-सह-सुविधाकर्ता’की नियुक्ति है, जिसका कार्य श्रमिकों और नियोक्ताओं, दोनों को मार्गदर्शन, जागरूकता एवं स्वैच्छिक अनुपालन में सहायता प्रदान करना होगा। यह सख्त और अक्सर आलोचना का निशाना बनने वाले “इंस्पेक्टर राज" से स्पष्ट रूप से अलग साबित होगा। इन उपायों का उद्देश्य पारदर्शिता को बढ़ावा देते हुए, अनुपालन को सरल बनाते हुए और सरकार व नियोक्ताओं के बीच अपेक्षाकृत अधिक सहयोगात्मक संबंध सुनिश्चित करते हुए, श्रमिकों के लिए मजदूरी संबंधी सुरक्षा को मज़बूत करना है।
इसके अलावा, औद्योगिक संबंध (आईआर) संहिता निश्चित अवधि के रोजगार (एफटीई) की अवधारणा प्रस्तुत करती है। इससे निश्चित अवधि के कर्मचारियों को स्थायी कर्मचारियों के समान लाभ, जिसमें एक वर्ष की सेवा के बाद ग्रेच्युटी भी शामिल है, मिलना सुनिश्चित होगा। यह सुधार उद्योग जगत को अपनी परिचालन संबंधी जरूरतों के अनुसार नियुक्ति करने के लिए अत्यंत जरूरी सहूलियत प्रदान करता है और साथ ही साथ श्रमिकों के अधिकारों और कल्याण की रक्षा भी करता है। यह बदलाव विवादों को व्यवधान के बजाय बातचीत एवं वार्ता के जरिए सुलझाने के लिए प्रोत्साहित करता है। यही नहीं, यह संहिता ‘वार्ता संघ’या ‘वार्ता परिषद’ की अवधारणा को लागू करके ट्रेड यूनियनों को वैधानिक मान्यता प्रदान करती है, जिससे सामूहिक सौदेबाजी तंत्र को मजबूती मिलती है और श्रमिकों के कल्याण को बढ़ावा मिलता है। यह संहिता कारखानों, खदानों और बागानों में छंटनी, काम से हटाने और तालाबंदी के मामलों में पूर्व सरकारी अनुमोदन की सीमा को मौजूदा 100 श्रमिकों से बढ़ाकर 300 श्रमिक करती है, जिससे औद्योगिक विकास और रोजगार सृजन के लिए अनुकूल वातावरण बन सकेगा।
विकसित भारत की ओर:
सामूहिक रूप से,ये चारों श्रम संहिताएं श्रमिकों के कल्याण और उद्योग एवं नियोक्ताओं के लचीलेपन के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करती हैं। विभिन्न परिभाषाओं को सुव्यवस्थित करके, अनुपालन को डिजिटल बनाकर और लैंगिक समानता को बढ़ावा देकर, इन चारों श्रम संहिताओं को एक समतामूलक श्रम इकोसिस्टम की शुरुआत करने के इरादे से डिजाइन किया गया है। ये संहिताएं औद्योगिक विकास और समावेशी सामाजिक सुरक्षा, दोनों का समर्थन करती हैं, जो 2047 तक ‘विकसित भारत’ बनने की देश की आकांक्षा के अनुरूप है।
(लेखक (एससीओपीई) के (आईएलओ) के शासी निकाय के निर्वाचित सदस्य भी है।)

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