संतान और संस्कार
यह सच है कि जीवन में हर कोई सुख चाहता है। लेकिन जीवन में संस्कार अगर हो तो और भी अच्छा है। संस्कारों का घनिष्ठ संबंध संतान से माना जाता है। इसी मामले में कुछ दिन पहले मुझे एक ऐसे डिबेट में सिम्मलित होने का अवसर मिला जहां संतान की अनिवार्यता और वृद्धि को लेकर लंबी-चौड़ी चर्चा भी चली। माहौल उस समय और भी चर्चित हो गया जब कुछ लोगों ने हिंदू और सनातनी परिवारों से ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने की बात कही। इस पर सबकी प्रतिक्रिया स्वीकार्य और मीठी रही। संतान वृद्धि को लेकर कई वक्ताओं ने इसे अनिवार्यता से जोड़ दिया लेकिन मेरा मानना है कि आज के जमाने में संतान वृद्धि के साथ-साथ अच्छे लालन-पालन पर भी गौर किया जाना चाहिए। आज हम जिस दौर में जी रहे हैं वहां नई पीढ़ी भविष्य को लेकर ज्यादा ही चिंतित और ज्यादा ही सतर्क है। फिर भी भारत की अगर दुनिया में संस्कृति के मामले में पहचान है तो यह उसके संस्कार हैं। हमारी मातृभूमि इस बात की गवाह है कि माताओं ने ऐसी संतानों को पैदा किया है जिनके दम पर हम एक महान शक्ति हैं। हमारे अध्यात्म ने हमें संस्कार दिये हैं और हमारी संतानों की पीढिय़ों ने इसका पालन करते हुए देश में आदर्श स्थापित किये हैं।
इस कड़ी में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत जी ने दिल्ली में अपनी व्याख्यानमाला के दौरान भारतीय विवाहित जोड़ों से 3 बच्चे पैदा करने का आह्वान भी किया है, जिसका हिन्दू जगत में सर्वत्र सम्मान किया जा रहा है। राष्ट्र हित में 3 बच्चे होने की बात को भागवत जी ने प्रमुखता से रखा है। रिश्तों के महत्व को बरकरार रखने के प्रित हमारा भी यही मानना है और भागवत जी के आह्वान का स्वागत करना तो बनता है।
मेरा मानना है कि संतान और संस्कार का बहुत महत्व है। जब हम स्कूल में ही थे तब से ही घरों में रामायण, योग विशिष्ठ, विष्णु पुराण, श्रीमद्भगवत गीता और गीता के बारे में चर्चा होती थी। मानव जीवन को हमारा आध्यात्म जीवन के उस गृहस्थ आश्रम से भी जोड़ता है जहां गृहस्थी चलाये जाने का प्रावधान है लेकिन आज के समय में अगर गृहस्थ जीवन में ही पति-पत्नी एक-दूसरे के खिलाफ भड़क रहे हैं और कोर्ट तक पहुंच रहे हैं तो इसे क्या कहेंगे। चिंतनीय बात यह है कि आज की युवा पीढ़ी जिसने लिव इन रिलेशन की संस्कृति को जन्म दिया है अर्थात वे शादी करें या न करें किसी से भी संबंध बना के रहें उसमें किसी को दिक्कत नहीं होनी चाहिए। यह एक बहुत संवेदनशील और गर्म मामला था जिसके बारे में मैं कहूंगी कि इसे प्रचारित करके हमारे संस्कारों पर ही चोट की जा रही है। सवाल पक्ष या विपक्ष का नहीं है, संस्कारों का है। आदर्श मानव जीवन की है। संस्कारों का मतलब है संतान को ऐसी बातें बताना जो जीवन में उसके लिए उपयोगी हो और जन्म से लेकर अंत्येष्ठी तक अध्यात्म के सभी सौलह संस्कारों का पालन करते हुए एक ऐसा उदाहरण स्थापित करें कि सब उसकी प्रशंसा करें लेकिन कई मामले चौंकाने वाले हैं जिनमें लिव इन रिलेशन मुख्य है। हमारे अध्यात्म को स्वीकार किया जाना चाहिए और आदर्श जीवन के संस्कारों का पालन किया जाना चाहिए।
बच्चों को स्कूल से लेकर कॉलेज में जाने तक या उनके बड़े हो जाने तक या उनके माता-पिता बन जाने तक वे सब अपने माता-पिता के सामने तो बच्चे ही हैं। दूधो-नहाओ, पूतो फलो जैसे आशीर्वाद उन्हें मिलते ही रहेंगे। अखंड सौभाग्यवती जैसे आशीर्वाद माता-पिता की देन है। कई-कई पुत्रों की मां बनो ऐसे आशीर्वाद भी माता-पिता बच्चों को देते हैं। इन सबका उल्लेख उस डिबेट में बढ़-चढ़कर किया गया जो सनातन धर्म से जुड़ा है। मुझसे भी राय पूछी गयी तो मैं यही कहती हूं कि हमारे आदर्श संस्कार स्थापित ही रहने चाहिए। जो संतान से जुड़े हैं। अगर किसी के घर में दो-तीन बच्चे हैं उनमें भाई-बहन सब शामिल हैं तो आगे चलकर माैसियों, मामियों, भांजा-भांजियों, भतीजे-भतीजियों जैसे रिश्ते आगे जाकर पल्लवित पुष्पित होंगे लेकिन अगर किसी के संतान ही नहीं होगी या बच्चा ही एक होगा तो रिश्तों की बुनियाद तो खत्म हो जायेगी। बेटी आैर बेटा दोनों ही एक आदर्श परिवार के होने चाहिएं। एक वक्ता ने कहा कि आज की युवा पीढ़ी संतान वृद्धि से गुरेज करती है। किसी ने वजह उनके जीवन में नौकरियों और काम धंधे के स्ट्रेस को बताया तो किसी ने मोबाइल के फालतू ज्ञान की चर्चा की। मेरा यह मानना है कि आदर्श संस्कार, आदर्श रिश्ते, आदर्श संतान सब चलने चाहिए। पहले ही मोबाइल हमारे बच्चों की जब वह सचमुच पांच वर्ष तक के थे उनकी मासूमियत छीन चुका है। संयुक्त परिवार जहां दादा-दादी, नाना-नानी बच्चों के साथ रहते हैं वहां संस्कारों की बहुत जरूरत है। ऐसी भी संतानें हैं जो माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी या अन्य बड़े जनों को मिलती है तो आज भी पैरी-पौना करते हैं। मैंने वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब के मंच से आदर्श संयुक्त परिवारों के बारे में कई बार चर्चा भी की और सैकड़ों परिवार मुझे अपने पौते-पौतियों और दोहते-दोहतियों को लाकर मिलवाते हैं। ऐसे में जो लोग आदर्श परिवार, आदर्श संतान और संतान वृद्धि की बात करते हैं तो इसका स्वागत किया जा रहा है। यह भावनात्मक बात नहीं बल्कि हमारे आदर्श परिवारों के संस्कारों और संस्कृति की बात है जिसका जितना भी विस्तार हो वह किया जाना चाहिए।