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बच्चों का अपराधी हो जाना

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12:29 AM Dec 22, 2017 IST | Desk Team

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नाबालिग बच्चे द्वारा एक मासूम का कत्ल कोई सामान्य बात नहीं है। ऐसे खौफनाक अपराध के लिए बहुत हिम्मत और साजिश रचने की जरूरत होती है। यह काम वही कर सकता है जो आचार, व्यवहार में काफी आक्रामक हो या जो मानसिक रूप से दुरुस्त न हो। कुछ बच्चों का शरारती होना स्वभाव में निहित होता है लेकिन बच्चों का दुस्साहसी होना खतरनाक हो जाता है। भारत में अपराध करने वाले किसी किशोर को कानून की नजर में वयस्क माना जाए या ना​बालिग, इस पर काफी बहस होती रही है। निर्भया के सामूहिक बलात्कार और हत्या के दोषियों में से सर्वाधिक क्रूरता दिखाने वाला दोषी किशोर ही था।

लम्बी बहस के बाद निष्कर्ष यह निकला कि हत्या या जघन्य अपराध का दोषी अगर 16-17 वर्ष का भी है तो वह किसी वयस्क से कम नहीं। ऐसा किशोर न सिर्फ कड़ी सजा का हकदार है बल्कि सजा खत्म होने के बाद उसके दोबारा अपराध करने की गुंजाइश भी है। गहन विचार-विमर्श के बाद जुवेनाइल बिल संसद में पास हुआ। अब जघन्य अपराधों के लिए 16 से 18 वर्ष के नाबालिगों को कड़ी सजा दी जा सकती है। कानून के तहत जुवेनाइल बोर्ड संगीन जुर्म तय करता है। गुरुग्राम के प्रद्युम्न हत्याकांड में सीबीआई जांच में पकड़े गए सीनियर छात्र पर जुवेनाइल बोर्ड ने बालिग की तरह मुकद्दमा चलाने का फैसला दिया है। इस मामले में आरोप साबित होने पर उसे न्यूनतम 7 साल की सजा हो सकती है। निर्भया कांड के बाद यह पहला ऐसा मामला है जिसमें किसी नाबालिग को बालिग की तरह आरोपी बनाकर उस पर मुकद्दमा चलाया जाएगा। हर साल देश में किशोरों के विरुद्ध लगभग 38 हजार मामले दर्ज होते हैं। उनमें से 22 हजार मामलों में आरोपी 16 से 18 वर्ष के होते हैं। यदि अपराध के समय किशोर की मानसिकता नाबालिग जैसी पेश आती है तो उस पर मुकद्दमा किशोर न्यायालय में चलेगा और यदि मनोदशा वयस्क जैसी हुई तो मामला भारतीय दण्ड संहिता के तहत चलेगा।

प्रद्युम्न हत्याकांड में जुवेनाइल बोर्ड ने फैसला एक पैनल की रिपोर्ट पर लिया जिसने किशोर के व्यवहार, मनोविज्ञान और समाज विज्ञान की दृष्टि से उसके आचरण का अध्ययन किया। वास्तव में नाबालिग अपराधियों के विशेष व्यवहार के पीछे सामाजिक दर्शन का लम्बा इ​तिहास रहा है। दुनिया के सभी सामाजिक दर्शन मानते हैं कि बालकों को अपराध की दहलीज पर पहुंचाने में एक हद तक समाज की ही भूमिका अंतर्निहित होती है। विषमता आधारित विकास और संचार तकनीक यौन अपराधों को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। बाल अपराधियों पर किए गए अनुसंधानों से पता चलता है कि घरेलू वातावरण का गहरा प्रभाव बालकों के व्यक्तित्व एवं चरित्र विकास पर पड़ता है। अतः दूषित वातावरण होने से बालक कई प्रकार के असामाजिक व्यवहार सीख लेते हैं। दोषपूर्ण पारिवारिक अनुशासन के चलते भी कुछ बच्चे अपराधी बन जाते हैं। सरकारी आंकड़े भले ही यह कहें कि गरीब तबकों से आने वाले बाल अपराधियों की संख्या 95 फीसदी है। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षित तबकों से आने वाले महज 5 फीसदी ही बाल अपराधी हैं।

सच्चाई तो यह है कि इस वर्ग में अपराधों की बड़ी संख्या घटित हो रही है। माता-पिता दोनों ही अच्छी नौकरी करते हैं या व्यापार में व्यस्त रहते हैं। बच्चों के लिए उनके पास समय नहीं होता। बच्चे अकेले नौकरों के सहारे पलते हैं। दादा-दादी अगर हैं तो बच्चों की परवरिश में उनकी कोई ज्यादा भूमिका नहीं रहती। ऐसे बच्चे छोटी उम्र में मोबाइल, इंटरनेट पर अश्लील सामग्री देखते हैं और फिल्में देखने लग जाते हैं। बहुत सारे अपराध तो बाहर भी नहीं आते। गरीबों के बच्चे की संगत तो बुरी हो सकती है लेकिन संभ्रांत परिवारों के बच्चे तो उस समाज से अलग-थलग पलते हैं। क्या घर की आर्थिक सम्पन्नता और खुला माहौल बच्चों को जल्दी वयस्क बनाने का काम कर रहा है? अब सोचने की जरूरत है कि प्रद्युम्न हत्याकांड में पकड़े गए किशोर ने परीक्षा टालने के लिए मासूम की हत्या कर डाली। उसमें इतना दुस्साहस कहां से आया? इतना भयानक विचार और हत्या करने की साजिश को अंजाम देने की क्रूरता उसके भीतर कहां से आई? इसके लिए कौन से ऐसे कारण रहे कि वह मानसिक रूप से ऐसा करने को तैयार हो गया। समाज, अभिभावकों को सोचने की जरूरत है कि आखिर क्यों बच्चे गंभीर ​किस्म के अपराधों को अंजाम देने लगे हैं। नैतिक संस्कार आैर मानवीय मूल्यों में गिरावट का प​िरणाम समाज भुगत रहा है।

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