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चूं- चूं का मुरब्बा या एकता

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10:15 PM Mar 07, 2018 IST | Desk Team

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बहुदलीय लोकतान्त्रिक प्रणाली में विपक्षी एकता का प्रयास राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में आगे निकलने की स्वाभाविक लालसा होती है परन्तु एेसे किसी भी प्रयत्न की सफलता तभी सुनिश्चित हो सकती है जब इसका आधार वैचारिक धरातल हो परन्तु पिछले बीस सालों से केन्द्रीय राजनीति में राजनैतिक गठबन्धनों का एक नया शासन मूलक फार्मूला भी विकसित हुआ है जिसमें विचारधारा के महत्व को ‘असंगत’ बना दिया गया और केवल सत्ता पाने के लिए विभिन्न दलों की परस्पर विरोधी विचारधाराएं सत्ता के आसन से लिपट कर एक-दूसरे की हमसफर बन गईं।

जहां तक राज्यों का सवाल है उनमें यह प्रक्रिया 1967 में गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर शुरू हुई और नब्बे के दशक तक आते-आते भाजपा के जबर्दस्त प्रादुर्भाव के साये में इस तरह दम तोड़ गई कि स्वयं भाजपा ही इन गठबन्धनों को बनाने में चुम्बकीय आकर्षण बन गई और विभिन्न क्षेत्रीय दल इसके ही विरोध में खड़े होने लगे या फिर इसके साथ ही गठबन्धन करने लगे। यह भारतीय राजनीति का ग्रह परिवर्तन (ओरबिट चेंज) था क्योंकि तब तक केन्द्रीय चुम्बकीय शक्ति से सम्पन्न कांग्रेस पार्टी का आकर्षण कई भागों में बंट चुका था।

इससे प. बंगाल की तृणमूल कांग्रेस, श्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस, स्व. जी.के. मूपनार की तमिल मनीला कांग्रेस अपने-अपने गुरुत्वाकर्षण के साथ अलग हो गई थीं। अतः राजनीति ने दूसरे ‘ग्रह’ में छलांग लगा दी जिसमें भाजपा अपनी एकीकृत गुरुत्वाकर्षण शक्ति से भरपूर थी। अतः राजनीति का आयाम बदलना शुरू हुआ और 2004 से इसने गैर-भाजपावाद का रूप लेना शुरू किया। संयोग से इस वर्ष हुए चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने भी चुनाव पूर्व सीट तालमेल करके भाजपा के नेतृत्व में बने गठबन्धन से अधिक सीटें लेकर अपनी सांझा सरकार बना ली और 2009 के चुनावों में इस पार्टी की आकर्षण शक्ति में अपने बूते पर ही इजाफा हो गया और इसने 209 लोकसभा सीटें जीत लीं मगर 2014 के चुनावों में इस पार्टी का गुरुत्वाकर्षण इस तरह समाप्त हुआ कि यह अपने से ही बन्धे उपग्रहों की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से भी हल्की पड़ गई और इसकी कुल 44 सीटें आईं।

इसके बाद इसी में से एक और नई पार्टी आन्ध्र प्रदेश में ‘वाई.एस.आर. कांग्रेस’ अलग हो गई जबकि इसकी उपग्रह पार्टियों तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस आदि की सेहत पर ज्यादा असर नहीं पड़ा बल्कि उलटे प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने ममता दीदी के नेतृत्व में भी ज्यादा धमाकेदार जीत हासिल की और राज्य की 42 में से 34 सीटें जीत लीं। अतः यह सिद्ध हुआ कि ममता दी की तृणमूल कांग्रेस की गुरुत्वाकर्षण शक्ति में मूल कांग्रेस के मुकाबले कई गुना अधिक शक्ति का संचार हुआ।

इसके बाद भी राज्य में जितने उपचुनाव हुए ममता दी की पार्टी ने ही जीत हासिल की। अतः जब राष्ट्रीय स्तर पर गैर-भाजपा गठबन्धन बनाने का कोई अवसर पैदा होगा तो ममता दी की ताकत को अनदेखा कोई भी पार्टी नहीं कर सकेगी। एक राज्य तक सीमित बताकर उनके नेतृत्व की सफलता को अगर छोटा करने का प्रयास किया जाता है तो यह वर्तमान राजनीतिक माहौल की चुनौतियों से मुंह मोड़ने के अलावा और कुछ नहीं माना जायेगा क्योंकि वर्तमान में भारत सरकार के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भी 12 साल तक गुजरात में मुख्यमन्त्री रहने के बाद ही अखिल भारतीय स्तर पर अपने व्यक्तित्व के बूते पर भारी जनसमर्थन प्राप्त किया था।

ममता दी का राजनैतिक जीवन भी एक साधारण परिवार से शुरू होकर सड़कों पर संघर्ष करते हुए जनमानस में अपनी छाप छोड़ने तक पहुंचा है। वह केन्द्र में कैबिनेट मन्त्री भी रही हैं और वैचारिक स्तर पर कांग्रेस की ही अनुषंगी कही जा सकती हैं मगर गठबन्धन का अर्थ राजनीतिक अवसरवादिता किसी भी तौर पर नहीं हो सकता। हमने देखा है कि 1967 में कई राज्यों में जब गैर-कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ था तो उसमें जनसंघ व कम्युनिस्ट दोनों शामिल थे मगर इन सरकारों के गिरने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगा था क्योंकि तब उत्तर प्रदेश में जनसंघ के शिक्षा मन्त्री स्व. रामप्रकाश गुप्त अंग्रेजी की अनिवार्यता कक्षा दस से ही खत्म कर रहे थे व कम्युनिस्ट पार्टी के खाद्य मन्त्री स्व. जारखंडे राय गरीबों को राशन की दुकानों से सस्ती दरों पर खाद्य सामग्री देने के लिए व्यापारियों के भंडारों पर छापे डलवा रहे थे। अतः दो साल बाद ही मध्यावधि चुनाव इन राज्यों में हुए थे।

मगर जिस राज्य में भी सैद्धांतिक या वैचारिक आधार पर गठबन्धन सरकारें बनी थीं, वे राजनीतिक गठजोड़ अभी तक कायम हैं। इसमें पंजाब का ‘अकाली–जनसंघ’ गठजोड़ सर्व प्रमुख कहा जा सकता है। अतः ममता दी को जिस तरह तेलंगाना की राष्ट्रीय समिति के प्रमुख के.सी. राव या उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव या बसपा की मायावती अथव तेलगूदेशम पार्ट अपने साथ लेने के दाव खेल रहे हैं उनके केन्द्र में भाजपा विरोध से ज्यादा आत्म सुरक्षा का भाव अधिक है।

तेलगूदेशम तो सत्ता के चार साल पूरे करने के बाद साढ़े तीन साल पहले ही वित्तमन्त्री श्री अरुण जेतली से आंध्रप्रदेश की नई राजधानी बनाने के लिए ढाई हजार करोड़ रु. का चेक लेने के बावजूद अमरावती में आधारशिला का पत्थर तक नहीं लगवा सकी है? वह सिंगापुर में इसकी कलाकृति का ही चयन करने में मशगूल है और केन्द्र में मोदी सरकार में अपने दो मन्त्री रखने के बावजूद अपनी ही सरकार के विरुद्ध रोजाना प्रदर्शन कर रही है।

जहां तक मायावती और मुलायम सिंह का सवाल है तो उत्तर प्रदेश की जनता इन दोनों ही पार्टियों की संकीर्ण और जातिमूलक राजनीति से आजिज आ चुकी है। अतः किसी भी वैकल्पिक गठबन्धन के लिए यह आवश्यक शर्त होगी कि सबसे पहले कांग्रेस से अलग हुई सभी पार्टियां ही एक मंच पर आएं। इसके लिए मूल कांग्रेस को अपने इस अहं को छोड़ना होगा कि वही नेतृत्व दे सकती है। श्री राहुल गांधी को इस पार्टी के अध्यक्ष होने के नाते यह सोचना पड़ेगा कि उनका अन्तिम लक्ष्य क्या है ? बिना शक उनकी विरासत बहुत महान है मगर विरासत तो चौधरी चरण सिंह के पुत्र श्री अजित सिंह की भी कमजोर नहीं थी।

चरण सिंह तो वह शख्सियत थे जिन्होंने पूरे उत्तर भारत में नये ‘ग्रामीणोन्मुख भारत’ की पटकथा लिख डाली थी मगर उनकी विरासत की कमाई पर लालू प्रसाद से लेकर मुलायम सिंह और स्व. देवीलाल पुत्र मंडली मौज कर रही है? इसलिए विपक्षी एकता को ‘चूं–चूं का मुरब्बा’ बनाने से पहले हकीकत की खाक छाननी होगी और अपने निजी स्वार्थ और अहं को ताक पर रखना होगा।

यदि गठबन्धन ही बनाना है तो वह 1974 दिसम्बर महीने में लोकदल की तरह बनाना होगा जिसमें स्वतन्त्र पार्टी से लेकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय क्रान्ति दल और बीजू पटनायक की पार्टी समाहित हो गई थी मगर याद रखा जाना चाहिए कि यह कांग्रेस विरोधी गठबन्धन से बना दल था और चौधरी साहब के साये के तले ही इसलिए बना था क्योंकि वह आम जनता के नायक और ईमानदार व सादगी की राजनीति के प्रतीक माने जाते थे। चूं-चूं के मुरब्बे तो यहां कई बार ‘तीसरे मोर्चे’ और ‘चौथे मोर्चे’ के नाम पर बने हैं मगर सभी ढाक के तीन पात की तरह बिखर भी गये हैं।

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