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बंद हों जनहित याचिका की ‘दुकानें’

जनहित याचिका की अवधारणा की शुरूआत 1960 के दशक में अमेरिका में हुई थी। भारत में इसकी शुरूआत 1980 के दशक के मध्य में हुई। न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर तथा न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती इसके प्रवर्तक रहे हैं।

12:06 AM Apr 29, 2020 IST | Aditya Chopra

जनहित याचिका की अवधारणा की शुरूआत 1960 के दशक में अमेरिका में हुई थी। भारत में इसकी शुरूआत 1980 के दशक के मध्य में हुई। न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर तथा न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती इसके प्रवर्तक रहे हैं।

बंद हों जनहित याचिका की ‘दुकानें’
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जनहित याचिका की अवधारणा की शुरूआत 1960 के दशक में अमेरिका में हुई थी। भारत में इसकी शुरूआत 1980 के दशक के मध्य में हुई। न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर तथा न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती इसके प्रवर्तक रहे हैं। जनहित याचिका भारतीय संविधान या किसी कानून में परिभाषित नहीं है। यह अवधारणा सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता का एक उत्पाद है। इस याचिका के अन्तर्गत कोई व्यक्ति, समूह निर्धनता, अज्ञान अथवा सामाजिक, आर्थिक रूप से कमजोर स्थिति के कारण न्यायालय में न्यायिक उपचार के लिए नहीं जा सकता, उस व्यक्ति या समूह की जगह कोई भी जनभावना वाला व्यक्ति या सामाजिक संगठन उन्हें अधिकार दिलाने के लिए न्यायालय जा सकता है। जनहित याचिका का मुख्य उद्देश्य विधि के शासन तथा लोगों व समूह के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना, सामाजिक तथा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के ​लोगों तक न्याय की पहुंच को आसान बनाना तथा लोगों व समूह के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना है।
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इसमें कोई संदेह नहीं कि जनहित में याचिका की अवधारणा बहुत अच्छी है, लेकिन हाल ही के वर्षों में इसका दुरुपयोग काफी बढ़ चुका है। कुछ लोग जनहित याचिका का इस्तेमाल निजी हितों के लिए करने लगे हैं। कुछ लोग एक के बाद एक जनहित याचिकाएं दायर करने में लगे हैं, उससे ऐसा आभास होता है कि उन्होंने इसे अपने व्यवसाय का हिस्सा बना लिया है।
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अदालतों में मुकदमों के अम्बार तो पहले से ही लगे हैं, ऊपर से जनहित याचिकाएं समस्या को और जटिल बना रही हैं। समस्या यह हो गई है कि लोग छोटी-छोटी समस्याओं जैसे सड़कों पर अतिक्रमण के मामलों पर भी जनहित याचिकाएं दायर कर रहे हैं जबकि ऐसे मामले को कानून के तहत प्राधिकारियों से शिकायत कर निपटाया जा सकता है। ऐसी याचिकाएं कोर्ट के समय की बर्बादी  है। जनहित याचिकाओं पर ऐतिहासिक फैसले भी दिए हैं। पर्यावरण, लोक जीवन और लोकोपयोगी सेवाओं के मामलों में जनहित याचिकाओं पर सर्वोच्च अदालतों ने महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं।
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कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन से लोगों को काफी कष्ट हो रहा है। केन्द्र सरकार, राज्य सरकारें और स्वयंसेवी संगठन एकजुट होकर देशवासियों की यथासम्भव मदद कर  रहे हैं। प्रवासी मजदूरों की समस्याओं से सरकार पूरी तरह परिचित है। दिहाड़ीदार मजदूर लॉकडाउन के दौरान बेरोजगार हो चुके हैं। सरकार उन्हें भोजन मुहैया करा रही है। ऐसी भयावह स्थितियों में प्रवासी मजदूर अपने घरों को लौटना चाहते हैं, हजारों श्रमिक तो कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर अपने-अपने गांवों को लौट चुके हैं। मजदूरों को एक राज्य से दूसरे राज्यों में भेजा गया तो लॉकडाउन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा।
फिर भी राज्य सरकारें अपने-अपने मजदूरों को बसें भेजकर निकालने की योजना पर काम कर रही हैं। ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर यह कहना कि सरकार ने मजदूरों की दुर्दशा से आंखें फेर ली हैं और उन्हें उनके संवैधानिक अधिकार नहीं दिए जा रहे, औचित्यहीन ही लगता है। सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर तीखी बहस भी हुई। केन्द्र की तरफ से महाधिवक्ता ने प्रवासी मजदूरों के लिए किए जा रहे प्रयासों से कोर्ट को अवगत कराया। याचिकादाता के वकील द्वारा तर्क-वितर्क किए जाने पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा-‘‘हम आपकी क्यों सुनें? आपको भी तो न्यायपालिका पर भरोसा नहीं है और यह संस्थान सरकार का बंधक नहीं है।’’
फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने एक सप्ताह के भीतर अपना जवाब दाखिल करने को कहा है। याचिकादाता के वकील ने यह भी कहा कि 90 फीसदी मजदूरों को राशन या मजदूरी नहीं मिली। उन्हें अपने घर जाने की अनुमति दी जानी चाहिए। कोरोना वायरस का संक्रमण न फैैले इसी वजह से राज्य सरकारें प्रवासी मजदूरों को जहां हैं, वहीं रहने का आग्रह कर रही हैं। संकट की घड़ी में व्यवस्था को बनाना भी सहज नहीं है। अगर राज्य सरकारें छात्रों को निकालने के लिए दूसरे राज्य में बसें भेजती हैं तो सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। इस पर राज्य सरकारें निशाने पर आ जाती हैं जबकि बच्चों को अपने अभिभावकों के पास पहुंचाना मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा है।
याचिकादाता को पहले हर पहलु काे देखना चाहिए था। कोरोना महामारी के प्रकोप के दृष्टिगत हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में सामान्य कामकाज की बजाय सिर्फ अत्यावश्यक महत्वपूर्ण मामलों की वीडियो कांफ्रैंसिंग से सुनवाई की व्यवस्था के बीच जनहित याचिकाएं दायर होने का सिलसिला बढ़ गया है। प्रवासी कामगारों के खान-पान, आवास और स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर, लोगों की जान बचाने में जुटे डाक्टरों, मेडिकल स्टाफ को सुरक्षा किट उपलब्ध कराने तथा महंगे मास्क और सैनिटाइजर को लेकर जनहित याचिकाएं दाखिल की गई हैं। ये जनहित याचिकाएं कोरोना से लड़ाई के सभी सरकारी प्रयासों में बाधक बन रही हैं। और फिलहाल पीआईएल की दुकानें बंद की जानी चाहिएं। कुछ फिजूल की जनहित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने याचिकादाता पर जुर्माना भी लगाया है। जनहित याचिकाएं इंतजार कर सकती हैं लेकिन महामारी से देशवासियों की जिन्दगी बचाने की चुनौती इंतजार नहीं कर सकती। अनेक याचिकाओं में सरकार के बेवजह विरोध की बू भी आती है। कई संगठन और पूर्व नौकरशाह लगातार जनहित याचिकाएं दायर करते रहते हैं, ऐसा करके वे कोई जनसेवा नहीं कर रहे बल्कि यह सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के प्रयास के अलावा कुछ भी नहीं है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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