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रामनवमी पर साम्प्रदायिक हिंसा

श्रीरामनवमी के पर्व पर जिस तरह देश के विभिन्न हिस्सों से साम्प्रादायिक दंगों की खबरें मिली हैं वे वास्तव में भारत की समावेशी व संलिष्ठ संस्कृति के विरुद्ध हैं।

02:46 AM Apr 12, 2022 IST | Aditya Chopra

श्रीरामनवमी के पर्व पर जिस तरह देश के विभिन्न हिस्सों से साम्प्रादायिक दंगों की खबरें मिली हैं वे वास्तव में भारत की समावेशी व संलिष्ठ संस्कृति के विरुद्ध हैं।

रामनवमी पर साम्प्रदायिक हिंसा
श्रीरामनवमी के पर्व पर जिस तरह देश के विभिन्न हिस्सों से साम्प्रादायिक दंगों की खबरें मिली हैं वे वास्तव में भारत की समावेशी व संलिष्ठ संस्कृति के विरुद्ध हैं। इस सन्दर्भ में सबसे पहले भारत के मुस्लिम नागरिकों को यह सोचना होगा कि वे उस देश के निवासी हैं जिस देश की संस्कृति ने दुनिया भर की अन्य संस्कृतियों को स्वयं में एकाकार करके ‘भारतीयता’ के रस में भिगोया। विभिन्न मजहबों की प्रथक–पृथक पूजा पद्धतियों से इस भारतीयता पर कोई असर नहीं पड़ा। यही वजह है कि भारत की परिकल्पना किसी विशेष मजहब के आधार पर न करके इसकी भौगोलिक सीमाओं के आधार पर की गई जिसमें सभी प्रकार के लोग रहते हैं। इसीलिए यह मह्त्वपूर्ण होता है कि कोई भी देश उसमें रहने वाले उन लोगों से बनता है जो आपस में मित्रता भाव से रहते हैं। सहिष्णुता का भाव भी यहीं से जन्म लेता है क्योंकि भारत में मूल रूप से रहने वाले हिन्दू सम्प्रदाय के लोगों ने हर काल में सहिष्णुता का परिचय देते हुए अपने से इतर मजहबी रवायतों का पालन करने वाले लोगों का भी अपनी जमीन पर स्वागत किया। क्या कभी दुनिया में किसी भी जगह ऐसा  हो सकता है कि कोई धर्म अपने साथ जमीन-जायदाद लेकर भी आये मगर 1947 में भारत की जनता ने मजहब के आधार पर किये गये मुल्क के बंटवारे को भी बर्दाश्त किया। इससे बड़ी सहनशीलता और क्या हो सकती है। मगर इसका एहसास भारत में रहने वाले दूसरे मजहबों के अनुयायियों को भी होना चाहिए। यहां उन मजहबों की बात नहीं हो रही है जिनका उद्गम भारत की धरती में ही हुआ है बल्कि उन मजहबों की बात हो रही है जिसका उद्गम भारत की मिट्टी में न होकर अन्य देशों में हुआ है और उनके पूजनीय या आध्यात्मिक स्थल विदेशों में हैं। भारत की मिट्टी में ही पैदा होने वाले लोगों का मजहब अलग होने से उनकी राष्ट्रीयता अलग नहीं हो सकती और भगवान राम भारत की राष्ट्रीय पहचान के रूप में देखे जाते हैं। उत्तर से लेकर दक्षिण तक भगवान राम के स्मृति चिन्हों से ऐसे हिन्दू नागरिक अपने को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं अतः उनकी भावनाओं का सम्मान करना प्रत्येक हिन्दोस्तानी का फर्ज बनता है। जहां तक इस्लाम धर्म का सवाल है तो इसमें भी सवा लाख के करीब पैगम्बर बताये गये हैं मगर उनके नाम बताने को कोई भी उलेमा या आलिम तैयार नहीं होता। सवाल पैदा होता है कि यदि मध्यप्रदेश के खऱगौन शहर या झारखंड के लोहारदगा कस्बे अथवा प. बंगाल के हावड़ा में रामनवमी के अवसर पर हिन्दू अनुयायी राम शोभायात्रा मुस्लिम बहुल इलाकों में निकाल भी देते हैं तो इस पर मुस्लिमों को गुस्सा क्यों आना चाहिए अथवा उन्हें इसका विरोध क्यों करना चाहिए ? क्या भारत के मुसलमानों को इस हकीकत का इल्म नहीं है कि उन्हीं के देश में हिन्दू ब्राह्मणों में ही ‘हुसैनी ब्राहमणों’ का ऐसा  तबका भी है जो मुहर्रम के अवसर पर अपने अलग से ताजिये निकालता है और हजरत इमाम हुसैन की ‘कर्बला लड़ाई ’ में हुई शहादत का गम मनाता है। दरअसल भारतीय मुसलमानों के बीच 1947 में हुए बंटवारे के दौरान जो मानसिकता जिन्ना ने बरेलवी मुल्ला-मौलानाओं और अलीगढ़ विश्वविद्यालय के तालिबों के जरिये पैदा की थी और उन्हें पाठ पढ़ाया था कि यदि हिन्दोस्तान का बंटवारा न किया गया तो भारत की कांग्रेसी हुकूमत हिन्दू हुकूमत होगी औऱ इस्लाम के लिए खतरा पैदा करके मुसलमानों के वजूद को मिटा दिया जायेगा, अभी तक किसी न किसी रूप में भारत की कट्टरपंथी मुल्ला ब्रिगेड द्वारा छोड़ी नहीं गई है जिसकी वजह से मुस्लिम नागरिक भारत की मूल सांस्कृतिक परंपराओं के विरोध में यह जाने–बूझे ही खड़े हो जाते हैं कि उनमें से 95 प्रतिशत से अधिक स्वयं उन्हीं पूर्वजों की औलादें हैं जिनके हिन्दू हैं। जिस तरह भारत के मुसलमानों के जहन में विदेशी मुस्लिम आक्रान्ताओं को अपना ‘नायक’ मानने की ललक सिर्फ मजहब के नाम पर भर दी गई है उसी के नतीजे में  हमें ऐसी घटनाएं देखने को मिलती हैं। वरना क्या फर्क पड़ता है किसी मुसलमान को कि राम जी की सवारी उसके माैहल्ले से निकले आखिरकार वह भी तो उसी धरती पर रहता है जिस पर कभी राजा रामचन्द्र राज किया करते थे ( बेशक यह प्रागैतिहासिक काल का समय ही हो)। दरअसल कट्टरपंथी मुस्लिम उलेमाओं और मुल्ला-मौलवियों ने भारतीय मुसलमानों की भारत के प्रति ही संवेदनाओं को समाप्त करने की कुत्सित चाल अंग्रेजों की शह पर 1940 से लेकर 1947 तक इस हद तक चली थी कि भारतीय मुसलमान स्वयं को अलग समझने लगे। इस काम में भारत के कम्युनिस्टों ने आग में घी डालने का काम किया और भारत में ‘बहुराष्ट्रीयता’ का फलसफा तक गढ़ डाला। मगर सबसे दुखद यह है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे उच्च शिक्षण संस्थान तक में इस अवसर पर छात्रों के बीच हिंसक झड़प हुई। हम क्यों नहीं स्वीकार कर सकते कि भारत एकमात्र ऐसा  देश है जिसमें दुनियाभर के सताये हुए लोगों को शरण मिली जिनमें पारसी से लेकर शइया और अहमदिया मुसलमान तक शामिल हैं और यहूदी भी शामिल रहे। यही तो भारत की सहनशीलता है और राम के मानने वालों की सहिष्णुता है।
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