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केन्द्र-राज्य में टकराव टले?

जिस अनुच्छेद 131 के तहत केरल सरकार ने याचिका दायर की है उसके तहत केन्द्र व राज्य के अधिकार क्षेत्रों की सीमाएं निर्धारित होती हैं।

04:35 AM Jan 17, 2020 IST | Aditya Chopra

जिस अनुच्छेद 131 के तहत केरल सरकार ने याचिका दायर की है उसके तहत केन्द्र व राज्य के अधिकार क्षेत्रों की सीमाएं निर्धारित होती हैं।

केरल की मार्क्सवादी पी. विजयन सरकार ने संशोधित नागरिकता कानून के मुद्दे पर केन्द्र की भाजपा सरकार को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देकर साफ कर दिया है कि ‘नागरिकता’ का विषय केन्द्र व राज्य के आपसी सम्बन्धों को इस प्रकार छेड़ता है जिससे भारतीय संविधान के मूलभूत सिद्धांतों का ‘स्वर’ कहीं ‘बेसुरा’ हो सकता है। जिस अनुच्छेद 131 के तहत केरल सरकार ने याचिका दायर की है उसके तहत केन्द्र व राज्य के अधिकार क्षेत्रों की सीमाएं निर्धारित होती हैं। इसी अनुच्छेद के तहत दो राज्यों के आपसी विवादों के निपटारे का प्रावधान भी निहित है। 
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जाहिर तौर पर ‘नागरिकता’ का विषय केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में ही आता है परंतु एक ‘नागरिक’ की हैसियत  से व्यक्ति भारत के किसी  भी राज्य में बसने या अपनी गुजर-बसर करने का अधिकारी होता है। संविधान के विभिन्न प्रावधानों के तहत ‘नागरिक’ की स्वतंत्रता व मौलिक अधिकार विभिन्न राज्यों के लिए बने विशिष्ट नियमों के तहत काम करते हैं परंतु प्रत्येक राज्य सरकार ‘नागरिक’ की पहचान एक जायज भारतीय निवासी के रूप में ही करती है जिसमें उसका धर्म आड़े नहीं आता।
संशोधित नागरिकता कानून में ‘धर्म’ की पहचान करके ‘नागरिकता’ प्रदान करने से राज्यों की समरूप व एक समान शासन प्रणाली के प्रभावित होने का खतरा पैदा होने की संभावना होती है। कानून-व्यवस्था राज्यों का विशिष्ट विषय है और उसे ही अपने क्षेत्र में रहने वाले अवैध नागरिकों की पहचान करनी होती है। धर्म के आधार पर इनकी पहचान करने से राज्यों का साम्प्रदायिकता सौहार्द प्रमाणित हुए बिना नहीं रह सकता । केन्द्र के अधिकार को तब तक चुनौती नहीं दी जा सकती जब तक कि उसके किसी फैसले से राज्य सरकार के किसी भी ‘मालिकाना हक’ का अतिक्रमण न होता हो। 
नागरिकता प्रदान करने से राज्य सरकारों के हक का अतिक्रमण प्रत्यक्ष रूप से नहीं होता है परंतु परोक्ष रूप से यह इसकी एक ‘समान नागरिक व्यवहार नीति’ को प्रभावित करना है। अतः सर्वोच्च न्यायालय को यही विचार करना है कि नए कानून से कहीं राज्यों की शासन पद्धति तो प्रभावित नहीं होगी। दूसरे भारत का संविधान नागरिकता प्रदान करने के मामले में कहीं भी धर्म को बीच में नहीं लाता है। 
कालान्तर में ‘देश केन्द्रित’ नगरिकों की पीड़ा को देखते हुए भारत सरकार ने ऐसे देशों से आये शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने के नियम बनाये हैं मगर उनके धर्म को ‘पहचान’ के रूप में नहीं देख कर बल्कि उनकी पीड़ा को ही संज्ञान में लिया। इन कानूनों का कभी विरोध भी नहीं हुआ। परंतु इसके साथ ही भारत को अपने विदेशी सम्बन्धों के बारे में भी सजगता से काम लेना होगा। मलेशिया के साथ भारत के संबंध ऐतिहासिक तौर पर अत्यंत प्रगाढ़ रहे हैं, हालांकि यह एक मुस्लिम देश है। 
इस देश में लोकतंत्र की स्थापना में भारत की अहम भूमिका तो रही ही साथ ही इसकी स्वतंत्रता में भी इसका योगदान रहा है। उस देश के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद के पुनः भारत के नागरिकता कानून को अनुचित करार दिया है। इसके साथ ही खाड़ी के विभिन्न मुस्लिम देशों के साथ भारत के घनिष्ठ संबंध राजनैतिक व आर्थिक स्तर पर हैं और इन देशों में 70 लाख से अधिक भारतीय नागरिक रोजी-रोटी की तलाश में हैं, जो भारत में विदेशी मुद्रा भेजकर हमारी अर्थव्यवस्था में सराहनीय योगदान देते हैं। 
हमें अपने राष्ट्रीय हित में सभी पक्षों पर गहनता के साथ विचार करना होगा। बांग्लादेश का निर्माण भारत ने केवल इसलिए कराया था कि वहां के निवासी एक मुस्लिम देश का नागरिक होते हुए इस्लामी सरकार के अत्याचारों के शिकार हो रहे थे। मानवीयता के आधार पर 1971 में भारत नेे दुनिया का दिल जीता था। पाकिस्तान, बांग्लादेश व अफगानिस्तान में धर्म की वजह से प्रताड़ित लोगों को  भारत में शरण मिलनी चाहिए परंतु ‘मानवीयता’ के आधार पर धर्म के आधार पर नहीं और जहां ‘मानवीयता’ आती है वहां धर्म का जिक्र नहीं होता।
-आदित्य नारायण चोपड़ा
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