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संविधान और ‘एक’ चुनाव

04:43 AM Jul 13, 2025 IST | Aditya Chopra
पंजाब केसरी के डायरेक्टर आदित्य नारायण चोपड़ा

एक देश-एक चुनाव के मुद्दे पर संसद में लाये गये संविधान संशोधन विधेयक पर संसद की ही संयुक्त समिति विचार कर रही है। समिति का कार्य है कि वह विधेयक के विभिन्न कानूनी व व्यावहारिक पहलुओं पर विचार करके अपनी सर्वसम्मत रिपोर्ट संसद को भेजे। फिलहाल भारत में जो व्यवस्था है उसके तहत लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग समय पर होते रहते हैं और भारत का चुनाव आयोग इन्हें सम्पन्न कराता है। इसे देखते हुए शायद ही कोई एेसा वर्ष खाली जाता है जिसमें किसी न किसी विधानसभा के चुनाव न होते हों। इसके अलावा स्थानीय निकायों के चुनाव भी अलग-अलग राज्यों में होते रहते हैं जिनमें ग्राम पंचायतें भी आती हैं। मगर वर्तमान की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पिछले दो दशकों से पैरवी करती आ रही है कि पूरे देश में एक बार ही लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव कराये जाने चाहिए। भाजपा पिछले दो दशक से इस मामले को अपने चुनाव घोषणा पत्र का भी अंग बनाये हुए है। मगर भाजपा से विरोध रखने वाले लगभग सभी दल इसकी मुखालफत करने में भी पीछे नहीं हैं। इसी मुखालफत को ध्यान में रखते हुए इस बाबत लाये गये संविधान संशोधन विधेयक को संसद की संयुक्त समिति को भेज दिया गया था। इस समिति की अभी तक कई बैठकें हो चुकी हैं जिनमें इस क्षेत्र के विशेषज्ञों को बुलाकर उनकी सलाह भी ली गई।
समिति की पिछली बैठक गत शुक्रवार को हुई, जिसमें भारत के दो पूर्व मुख्य न्यायाधीशों सर्वश्री डी.वाई. चन्द्रचूड व जे.एस. खेहर ने भाग लिया और अपने विचारों से अवगत कराया। समझा जाता है कि श्री चन्द्रचूड ने समिति को बताया कि एक देश-एक चुनाव का विचार संविधान विरोधी नहीं है और न ही संविधान के आधारभूत ढांचे के खिलाफ है। वैसे संसद की किसी भी स्थायी या प्रवर समिति अथवा संयुक्त समिति की बैठक की कार्यवाही विशेषाधिकार सम्पन्न होती है और इसमें हुई बातचीत या विचार-विमर्श को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। मगर इस समिति के अध्यक्ष श्री पी.पी. चौधरी ने एक ट्वीट जारी कर इसकी बैठक की वे दो तस्वीरें सार्वजनिक कीं जिनमें न्यायमूर्ति चन्द्रचूड व जे.एस. खेहर अपनी बात रख रहे हैं। अतः समिति की बैठक की कार्यवाही के अंश भी छन-छन कर बाहर आये लगते हैं। पूर्व मुख्य न्यायाधीशों का मत जानें तो उन्होंने साफ तौर पर कहा कि विधेयक का वर्तमान प्रारूप संविधान की कसौटी पर संभवतः खरा न उतरे क्योंकि इसमें भारत के चुनाव आयोग को असीमित अधिकार दिये गये हैं। इन अधिकारों के चलते चुनाव आयोग यदि आपे से बाहर हो जाये तो उससे भारत के संसदीय लोकतन्त्र पर चोट पहुंच सकती है। विधेयक का यह पक्ष वास्तव में बहुत ही गंभीर है।
हमारे संविधान में किसी भी संवैधानिक संस्था को स्वेच्छाचार की छूट नहीं दी गई है और सभी को किसी न किसी रूप में जवाबदेह बनाया गया है। यहां तक कि संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति को भी यह छूट नहीं है और उन पर भी संसद में महाअभियोग लगाने का दरवाजा खुला रखा गया है। इसलिए यदि न्यायमूर्ति चन्द्रचूड व खेहर विधेयक के बारे में अपनी राय संवैधानिक नुक्तों के साथ दे रहे हैं तो उसे नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। पूरे मामले को यदि हम स्वतन्त्रता के बाद के संसदीय चुनावी इतिहास के सन्दर्भ में परखें तो साफ होता है कि एक देश-एक चुनाव का विचार किसी भी कोण से संविधान के किसी भी अनुच्छेद का उल्लंघन नहीं करता है। तथ्य यह है कि स्वतन्त्र भारत में 1967 तक लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हर पांच साल बाद ही हुआ करते थे और भारत के मतदाता दोनों सदनों के लिए अपने वोट का प्रयोग किया करते थे। भारत के मतदाताओं की परिपक्वता का इस हकीकत से ही पता चलता है कि 1967 में जहां उन्होंने लोकसभा में कांग्रेस पार्टी को बहुमत दिया था वहीं देश के राज्यों की नौ विधानसभाओं में इसे गद्दी से उतार दिया था। उस समय नौ राज्यों में विपक्षी दलों ने आपस में मिलकर सरकारें बनाई थीं और कांग्रेस को विपक्ष में बैठने के लिए मजबूर कर दिया था।
पूरे देश में एक बार में ही चुनाव कराये जाने के खिलाफ यह तर्क दिया जाता है कि इससे मतदाता भ्रम में पड़ जायेगा। यह तर्क पूरी तरह आधारहीन है। इसलिए वर्तमान समय में हम यदि एक साथ ही विधानसभाओं व लोकसभा के चुनाव कराने के संवैधानिक रास्ते खोज रहे हैं तो इसे लोकतन्त्र विरोधी किसी भी सूरत में नहीं कहा जा सकता। वैसे इसके खिलाफ सबसे ज्यादा विरोध क्षेत्रीय दलों की तरफ से ही आ रहा है। यहां भी हमें 1967 में हुए चुनाव परिणामों का संज्ञान लेना होगा। इन चुनावों के बाद भारत के विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों की राजनीति की शुरूआत हुई। कालान्तर में ये दल कुछ राज्यों में काफी मजबूत होते चले गये। मगर इसके बाद से देश में हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहने का सिलसिला भी चल पड़ा जिससे चुनाव सम्पन्न कराने का खर्चा भी बढ़ता चला गया। वैसे बार-बार चुनाव होना लोकतन्त्र में कोई गलत बात भी नहीं है क्योंकि इस व्यवस्था में आम मतदाता ही इसका मालिक होता है लेकिन बार-बार चुनाव होने से देश के विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। चुनाव आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद सरकार बंध जाती है और सरकारी खर्च अलग से बढ़ जाता है। इस मुद्दे का यह पक्ष एेसा है जिस पर आम मतदाता को भी गौर करना चाहिए। मगर असली मुद्दा वही है जिस तरफ पूर्व मुख्य न्यायाधीश ध्यान दिला रहे हैं और कह रहे हैं कि एक देश-एक चुनाव के जुनून में चुनाव आयोग को स्वछन्द होने की आजादी नहीं दे सकते हैं। अतः समिति को भी इस मुद्दे पर गहरा चिन्तन-मनन करना होगा।

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