राजस्थान का संवैधानिक संकट
स्वतन्त्र भारत में संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली अपनाये जाने का फैसला हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच-समझ कर गहरे अध्ययन के बाद समकालीन विश्व परिस्थितियों और भारत के भविष्य को देखते हुए किया था।
12:13 AM Jul 23, 2020 IST | Aditya Chopra
स्वतन्त्र भारत में संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली अपनाये जाने का फैसला हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच-समझ कर गहरे अध्ययन के बाद समकालीन विश्व परिस्थितियों और भारत के भविष्य को देखते हुए किया था। वयस्क मताधिकार के आधार पर चुने हुए सदनों की संरचना का विचार 1936 में ही हमारे विद्वान और दूरदर्शी पुरखों ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के सामने रख दिया था और तब इस पर ब्रिटेन की संसद में जम कर बहस भी हुई थी। आजादी के बाद से यही संसदीय प्रणाली का लोकतन्त्र भारत की सबसे बड़ी ताकत बना हुआ है क्योंकि यह विविधता से परिपूर्ण भारत की आम जनता से सीधे ताकत लेकर ‘लोकराज’ स्थापित करता है जिसका धर्म व ईमान संविधान या कानून का राज कायम करना होता है। इस देश की सभी संवैधानिक संस्थाओं से लेकर प्रशासनिक संस्थाएं इसी संविधान की शपथ से बन्धी होती हैं। यह गजब का संयोग बन रहा है कि राजस्थान में वर्तमान में जो सियासी उठा-पटक चल रही है उसमें वर्तमान में सत्ता की आपाधापी के खेल के बीच संवैधानिक मर्यादा और संयम का सवाल खड़ा हो गया है।
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विधानसभा के अध्यक्ष श्री सीपी जोशी सर्वोच्च न्यायालय की शरण में यह निवेदन लेकर चले गये हैं कि देश में संविधान के शासन की शुचिता की गारंटी करने वाले इस संस्थान को अध्यक्ष के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। श्री जोशी ने एक विशेष याचिका दायर करते हुए कहा है कि विधानसभा सदस्यों के बारे में दल-बदल कानून के तहत जांच हेतु उनके प्राथमिक नोटिस की स्थिति में ही उच्च न्यायालय का हस्तक्षेप कितना उचित है? यह तथ्य हर राज्य के ‘बार कौंसिल’ के सदस्यों को ज्ञात है कि 1992 में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने दल-बदल कानून के बारे में अपना स्पष्ट फैसला देते हुए कहा था कि अध्यक्ष द्वारा ऐसे मामलों की जांच प्रक्रिया शुरू करने के बाद कोई भी न्यायालय तब तक बीच में हस्तक्षेप नहीं कर सकता जब तक कि उनका अन्तिम फैसला न आ जाये। इस फैसले के बाद ही उसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। श्री जोशी ने एक न्यूज चैनल को दिये गये साक्षात्कार में साफ कहा कि वर्तमान में राजस्थान में ‘संवैधानिक संकट’ की स्थिति है क्योंकि उनके प्राथमिक नोटिस के स्तर पर ही उच्च न्यायालय ने बागी कांग्रेस नेता सचिन पायलट की याचिका पर सुनवाई करके अपना फैसला भी सुरक्षित रख दिया है।
सर्वप्रथम यह समझने की जरूरत है कि अध्यक्ष एक राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान की दसवीं अनुसूची के अनुसार ‘न्यायाधीश-सम’ होते हैं किसी भी पार्टी के विधायक की हैसियत उनके समक्ष ऐसे फरियादी की होती है जो अपने विरुद्ध सदन के भीतर या परिसर अथवा सदन से बाहर विशेषाधिकारों के सन्दर्भ में होने वाले किसी भी अन्याय की गुहार लगा सकता है। अतः ‘सचिन पायलट एंड कम्पनी’ को दिये गये उनके नोटिस पर उच्च न्यायालय ने संज्ञान लेते हुए अध्यक्ष के पद के अधिकारों और संवैधानिक व्यवस्थाओं का ध्यान नहीं रखा। यह श्री सीपी जोशी का कहना है जिसकी वजह से उन्हें सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जाना पड़ा। यह सामान्य ज्ञान का प्रश्न भी है कि संसदीय प्रणाली में लोकसभा अध्यक्ष से लेकर विधानसभा अध्यक्ष के अधिकार क्या-क्या होते हैं? जो दसवीं, 12वीं कक्षा के छात्रों को सामान्य ज्ञान या नागरिक शास्त्र के पाढ्यक्रम में पढ़ाये जाते हैं। अतः राजस्थान का मामला प्रत्येक उस नागरिक का ध्यान खींचेगा जिसकी राजनीति में जरा सी भी रुचि है मगर इस मामले से अन्ततः लोकतन्त्र को फायदा भी होने जा रहा है जिसके परिणाम दूरगामी हो सकते हैं। प्रथम प्रभाव यह होगा कि विधायिका के कार्य में रुकावट डालने के लिए उन अनावश्यक राजनीतिक विवादों को न्यायालयों में नहीं घसीटा जायेगा जिनका सम्बन्ध अध्यक्ष के निर्दिष्ट न्यायिक अधिकारों से हो दूसरे किसी राजनीतिक पार्टी के भीतर ही रहते हुए चुने हुए जन प्रतिनिधियों को अपने आग्रहों या दुराग्रहों का प्रदर्शन संगठन के मंच पर ही करना होगा। परन्तु श्री जोशी ने सर्वोच्च न्यायालय से केवल अपने अधिकारों के संरक्षण की गुहार लगाई है उन्होंने सचिन पायलट प्रकरण में न कोई फैसला दिया और न प्राथमिक स्तर की कार्रवाई के अलावा दूसरे चरण की जांच का काम शुरू किया।
इस देश के कानून में एक साधारण इंस्पैक्टर को भी अपने सामने लाई गई सूचना के आधार पर प्राथमिक जांच करने का कानूनन हक होता है और यह तो विधानसभा अध्यक्ष से जुड़ा हुआ ऐसा मामला है जिसमें संविधान की दसवीं अनुसूची के अनुसार उनके अधिकार तब तक निरापद हैं जब तक कि दल-बदल मामले में वह कोई अन्तिम फैसला न दे दें। यह किसी प्रकार संभव नहीं है कि विधानसभा में चुना हुआ कोई विधायक उनकी सत्ता का ही संज्ञान न ले। किसी भी चुने हुए सदन के अध्यक्ष के खिलाफ फैसला लेने का अधिकार भी हमारा संविधान केवल उसके सदन को ही देता है। न्यायालयों के पास सदन से सम्बन्धित किसी भी कार्यवाही में हस्तक्षेप का अधिकार हमारा संविधान इसीलिए नहीं देता है जिससे लोकतन्त्र में आम जनता के शासन का प्रत्यक्ष प्रमाण रहे। मगर हम ऐसे अंधे कुएं में छलांग लगाने को तैयार बैठे हैं जिसमें ‘लोकशक्ति’ को ‘धनशक्ति’ से नियन्त्रित करने का कुचक्र चल रहा है।
विधानसभा सदस्यों के सामूहिक इस्तीफों ने आम जनता के जनादेश का अपहरण करना इस तरह शुरू किया है जैसे बीच बाजार में किसी भले मानुष की ‘जेब कट’ जाये, इस बात की क्या गारंटी है कि राजस्थान में भी यदि सचिन गुट के समर्थकों की संख्या इतनी होती कि वे विधानसभा में बहुमत का समीकरण बदल देती तो वे भी सामूहिक इस्तीफा नहीं देते ? इसलिए असली सवाल आम मतदाता के वोट की ताकत को सुरक्षित रखने का है क्योंकि उसके एक वोट की ताकत से ही पांच साल के लिए किसी भी पार्टी की सरकार चुनी जाती है। यदि ध्यान से देखा जाये तो पूरे प्रकरण में फिर उसी मतदाता को लूटा जा रहा है जो पूरे ‘मन-वचन- कर्म’ से वोट के माध्यम से सत्ता में अपनी भागीदारी बनाता है यह संवैधानिक संकट भी उसी के संकट से जुड़ा हुआ है।
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