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त्रिभाषा फार्मूले पर विवाद

भारत की भाषा समस्या के कई आयाम हैं जिनमें सबसे प्रमुख जातीय या नस्ल का आयाम है।

11:30 AM Mar 03, 2025 IST | Aditya Chopra

भारत की भाषा समस्या के कई आयाम हैं जिनमें सबसे प्रमुख जातीय या नस्ल का आयाम है।

त्रिभाषा फार्मूले पर विवाद

भारत की भाषा समस्या के कई आयाम हैं जिनमें सबसे प्रमुख जातीय या नस्ल का आयाम है। भारत विभिन्न नस्लों के लोगों से मिलकर बना है जैसे आर्य, द्रविड़ व मंगोल आदि। इनके बीच की सम्पर्क भाषा के रूप में कोई एक भाषा जो विकसित हुई वह हिन्दी व उर्दू का मिलाजुला स्वरूप रही जिसे स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान हिन्दोस्तानी भी कहा गया परन्तु इसका प्रादुर्भाव उत्तर व पश्चिम के राज्यों में ही अधिक रहा। कहीं-कहीं दक्षिण के राज्य आन्ध्र प्रदेश तक में भी इसका बोलने में प्रयोग नजर आता है। जिसे दक्खिनी कहा जाता है मगर यह बोली का रूप है। भारत की भाषाओं में लिपी व बोली का अन्तर करना जरूरी है। एक हजार से अधिक बोलियों वाले इस देश में किसी एक भाषा को राष्ट्र भाषा का दर्जा देना काफी दुष्कर कार्य था।

फिर भी आजादी के आन्दोलन के दौरान महात्मा गांधी की सहमति से ही यह तय हुआ था कि स्वतन्त्र होने पर भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी ही बनेगी क्योंकि इसके विभिन्न स्वरूपों को भारत के सर्वाधिक लोग लिखते या बोलते हैं। इसकी लिपी देवनागरी थी जिसमें भारत की कई बोलियों को भी लिखा जाता है। वास्तव में गांधी जी देवनागरी लिपी में ही हिन्दोस्तानी के अधिक पक्ष में थे परन्तु वह हिन्दोस्तानी को उर्दू में भी लिखे जाने के खिलाफ नहीं थे। इसकी अनुशंसा 1928 में गठित मोती लाल नेहरू की संविधान समिति ने भी की थी और लिखा था कि भारत की राज भाषा अंग्रेजी व हिन्दोस्तानी को बनाया जाना चाहिए जिसे दो लिपियों में लिखा जा सकता है। इसलिए आजादी के आन्दोलन के दौरान यह भी बहुमत था कि हिन्दोस्तानी भाषा की लिपी देवनागरी व अरबी लिपी में से कोई भी हो सकती है।

आजादी के आन्दोलन में सर्वाधिक उपयोग हिन्दी भाषा का ही हुआ जो अधिक क्लिष्ठ या संस्कृतनिष्ठ नहीं होती थी। संविधान लागू करते समय यह निश्चित किया गया था कि भारत की अंग्रेजी व हिन्दी दो राजभाषाएं (आफीशियल लेंगुएज) होंगी जिनका प्रयोग सरकारी कामकाज में किया जायेगा। आजादी से पहले सारा उच्च सरकारी काम अंग्रेजी में ही होता था और निचले स्तर के सरकारी दफ्तरों व अदालतों में उर्दू का भी बोलबाला था। अतः हिन्दी को इस स्तर पर लाने के लिए 15 वर्ष का समय लिया गया और कहा गया कि 26 जनवरी 1965 से हिन्दी में भी सरकारी कामकाज करना आवश्यक हो जायेगा विशेषकर उन प्रदेशों में जहां हिन्दी बोली जाती है। इसका दक्षिण भारत व पूर्वी भारत के राज्यों में विरोध हुआ जबकि उत्तर भारत के राज्यों में अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन चल पड़ा। यह आन्दोलन जगह-जगह हिंसक स्वरूप भी ले रहा था।

उस समय देश के प्रधानमन्त्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री थे परन्तु कुछ महीने बाद जाड़ों के मौसम में भारत का पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया जिसकी वजह से आन्दोलन ठंडा हो गया परन्तु जनवरी 1966 के दूसरे हफ्ते में शास्त्री जी की अक्समात मृत्यु हो गई और श्रीमती इन्दिरा गांधी प्रधानमन्त्री बनीं। उनके प्रधानमन्त्री बनने के बाद भाषा आन्दोलन फिर से शुरू हो गया। 1967 के आम चुनावों में उत्तर भारत के राज्यों में भाषा भी एक चुनावी मुद्दा बनी। अंग्रेजी हटाने के पक्ष में भारत की प्रमुख विपक्षी पार्टियां एक स्वर से बोल रही थीं। 1967 के चुनावों में पहली बार कांग्रेस नौ राज्यों में अपनी सरकारें नहीं बना पाई और वहां विपक्षी दलों ने साझा सरकारें बनाईं। केन्द्र में भी कांग्रेस पार्टी को लोकसभा में बहुत कम सीटों के अन्तर से बहुमत मिला।

इस समस्या का हल श्रीमती गांधी ने प्रसिद्ध शिक्षाविद स्व. डा. त्रिगुण सेन को भारत का शिक्षा मन्त्री बना कर ढूंढा जो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति थे। वह 1967 में ही राज्यसभा में आ गये थे। डा. त्रिगुण सेन ने 1968 में देश को एेसा त्रिभाषा फार्मूला दिया जिससे पूरे राष्ट्र की एकता भी बनी रहे और उत्तर-दक्षिण के बीच टकराव भी टले। इस फार्मूले के तहत देश के प्रत्येक विद्यार्थी को तीन भाषाएं पढ़नी थीं। पहली मातृभाषा, दूसरी हिन्दी या अंग्रेजी में से एक और तीसरी कोई क्षेत्रीय भाषा। उत्तर भारत में अधिसंख्या विद्यार्थियों की मातृभाषा हिन्दी थी। अतः उन्होंने प्रायः संस्कृत या उर्दू पढ़ने का विकल्प रखा। जबकि त्रिभाषा फार्मूले में यह प्रावधान था कि उत्तर भारत के छात्र दक्षिण की कोई भी भाषा पढ़ेंगे और दक्षिण के छात्र हिन्दी का ज्ञान लेंगे। इसका तोड़ दोनों ही क्षेत्रों ने निकाल लिया।

दक्षिणी राज्यों के विद्यार्थियों के लिए इससे हिन्दी पढ़ने का मार्ग खुला जरूर था मगर उनकी क्षेत्रीय भाषा व मातृभाषा एक थी। अतः उन्होंने केवल अंग्रेजी का विकल्प चुना। वर्तमान में जो नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति आयी है वह तीन भाषाएं पढ़ने के लिए प्रत्येक विद्यार्थी के लिए जरूरी है। इनमें उत्तर भारत के छात्र बचकर निकल जाते हैं क्योंकि वे संस्कृत या उर्दू में से किसी एक भाषा का चयन कर लेते हैं मगर दक्षिण के राज्यों में त्रिभाषा फार्मूले के तहत हिन्दी को बढ़ावा देने का रास्ता फिर भी खुला रहता है। तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री श्री एम.के. स्टालिन कह रहे हैं कि केन्द्र की सरकार इस फार्मूले के बहाने उन पर हिन्दी थोप रही है। केन्द्र समग्र शिक्षा अभियान के तहत राज्यों को जो धन देता है वह धन केन्द्र ने रोक लिया है और वह उन पर विद्यालयों में हिन्दी पढ़ाने के लिए दबाव बना रहा है।

स्टालिन सवाल उठा रहे हैं कि उत्तर भारत में कितने छात्र दक्षिण की कोई एक भाषा भी पढ़ते हैं? पहले यह तो सरकार स्पष्ट करे। जाहिर है कि उत्तर भारत में बिरले ही विद्यालय होंगे जहां तमिल, तेलगू, मलयालम या कन्नड़ पढ़ाई जाती होगी। स्टालिन यह भी चुनौती दे रहे हैं कि कौन से कानून के तहत तीन भाषाएं पढ़ना जरूरी है? शिक्षा भारत की समवर्ती सूचि में शामिल है अतः केन्द्र व राज्य दोनों के ही इस मामले में अधिकार है। सवाल पैदा होना निश्चित है कि जब उत्तर भारत के विद्यार्थी कोई दक्षिणी भाषा नहीं पढ़ते हैं तो दक्षिण के लोग हिन्दी क्यों पढ़ें । मगर श्री स्टालिन को यह विचार करना चाहिए कि किसी भी देश में केवल वही भाषा फलती–फूलती है जिसका सम्बन्ध रोजी–रोटी से होता है। आज का दौर 1968 का दौर नहीं है। हिन्दी की हालत अब वह नहीं है जो साठ के दशक में थी। हिन्दी अब उच्चतम सरकारी कार्यों में प्रयोग हो रही है अतः नई पीढ़ी की रोजी-रोटी से इसका सम्बन्ध बढ़ रहा है। उच्च सरकारी सेवाओं में प्रवेश पाने का यह माध्यम भी बन चुकी है हालांकि इसके लिए अंग्रेजी का ज्ञान भी जरूरी है। अतः भाषा के विवाद को मौजूदा हालात की रोशनी में परख कर सब्र के साथ निपटाया जाना चाहिए।

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