कॉप-30 : क्या कुछ बदलेगा!
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव काफी भयानक होते जा रहे हैं। पृथ्वी का तपमान हर दशक 0.27 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ रहा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो वातावरण को काफी क्षति होगी। मौसम में बदलाव जैसे अत्यधिक गर्मी, अत्यधिक सर्दी, सूखा, बाढ़ और तूफान चरम स्थिति पर पहुंचते हुए नजर आ रहे हैं। ग्लेशियर पिंघल रहे हैं। वैज्ञानिक दक्षिणी महाद्वीप के आसपास समुद्री बर्फ के पिघलने को लेकर चिंतित हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। जलवायु परिवर्तन से प्राकृतिक आपदाएं लगातार बढ़ रही हैं। द लांसेट काऊंटडाउन आन हैल्थ एंड क्लाइमेट चेंज 2025 की रिपोर्ट बताती है कि पिछले वर्ष जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि क्षेत्र में 66 फीसदी और निर्माण क्षेत्र में 20 फीसदी का नुक्सान हुआ। यह रिपोर्ट इशारा करती है कि अत्यधिक गर्मी के कारण श्रम क्षमता में कमी के कारण 194 अरब डॉलर की संभावित आय का नुक्सान हुआ। उल्लेखनीय है कि यह रिपोर्ट विश्व के 71 शैक्षणिक संस्थानों और संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों के 128 अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने तैयार की, जिसका कुशल नेतृत्व यूनिवर्सिटी कालेज लंदन ने किया। इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य के बीच संबंधों का अब तक सबसे व्यापक आंकलन किया गया है।
रिपोर्ट बताती है कि जीवाश्म ईंधनों पर अत्यधिक निर्भरता और जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन की विफलता से लाखों लोगों की जिंदगियां, स्वास्थ्य और आजीविका खतरे में हैं। रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को मापने वाले 20 में से 12 संकेतक अब तक के सबसे उच्चतम स्तर तक जा पहुंचे हैं। रिपोर्ट बताती है कि साल 2020 से 2024 के बीच भारत में औसतन हर साल दस हजार मौतें जंगल की आग से उत्पन्न पीएम 2.5 प्रदूषण से जुड़ी थीं। चिंता की बात यह है कि यह वृद्धि 2003 से 2012 की तुलना में 28 फीसदी अधिक है, जो हमारी गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए।
द लांसेट रिपोर्ट के अनुसार मानव जनित पीएम 2.5 प्रदूषण भारत में 2022 के दौरान 17 लाख मौतों का जिम्मेदार था। सड़क परिवहन में पैट्रोल के उपयोग से उत्पन्न प्रदूषण से लगभग 2.69 लाख मौतें हुई हैं। राजधानी दिल्ली और देश के कई महानगर प्रदूषण की मार झेल रहे हैं और प्रदूषण की मार सबसे ज्यादा बच्चों पर पड़ रही है। जन्म के साथ ही बच्चों पर प्रदूषण की काली हत्या के चलते शारीरिक ही नहीं मानसिक बीमारियां भी हावी हो रही हैं। प्रदूषण की मार बाहर ही नहीं घर के भीतर भी महसूस होने लगी है। ब्राजील के बेलेम शहर में आज से जलवायु परिवर्तन पर कॉप-30 शुरू हो गया है। 21 नवम्बर तक चलने वाले इस सम्मेलन में 200 देशों के 50 हजार से अधिक प्रतिनिधि शामिल होंगे। अब सवाल यह है कि क्या कॉप-30 के सार्थक परिणाम निकलेंगे या यह महज दुनियाभर के नेताओं का सैर सपाटा ही सिद्ध होगा। जलवायु सम्मेलन पहले भी होते रहे हैं लेकिन कुछ नहीं बदला। इसके लिए जिम्मेदार हैं विकसित देश जो गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाए हुए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ही इस सम्मेलन से किनारा करके बैठे हुए हैं। पैरिस जलवायु सम्मेलन को 10 साल बीत चुके हैं लेकिन पृथ्वी के तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक घटाने के उद्देश्य में कोई सफलता हाथ नहीं लगी। नवीकरणीय ऊर्जा ने जीवाश्म ईंधन की ऊर्जा के सबसे बड़े स्रोत के रूप में पीछे छोड़ दिया है।
फिर भी ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कोई कमी नहीं आई। सबसे ज्यादा गैसों का उत्सर्जन विकसित देश कर रहे हैं लेकिन वह इसके लिए गरीब और विकासशील देशों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। विकसित देशों ने हमेशा ही जलवायु सम्मेलनों की सिफारिश की धज्जियां उड़ाई हैं। जलवायु सम्मेलनों में भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देश प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं। कॉप-29 में 2035 तक जलवायु नियंत्रण के लिए 300 अरब अमेरिकी डालर जुटाने का लक्ष्य रखा गया था जिसे इस सम्मेलन में अंतिम रूप दिया जाना है लेकिन ट्रंप के पीछे हटने से यह लक्ष्य भी पूरा होता नजर नहीं आता। कॉप-30 के सामने बहुत चुनौतियां हैं। ग्लोबल वार्मिंग के चलते देशों को चरम मौसम की घटनाओं से लोगों की सुरक्षा के लिए अधिक निवेश करना होगा। विकासशील देशों को अब 2035 के बीच लोगों को भीषण गर्मी, बढ़ते समुद्र, नदियों का उफान और घातक तूफानों से बचाने के लिए प्रतिवर्ष 10 विलियन डॉलर की जरूरत होगी जो कि वर्तमान में आवंटित वित्त का लगभग 12 गुणा है। दुनिया को बचाने के लिए पृथ्वी का तापमान कम करना बहुत जरूरी है। इसके लिए सभी को संवेदनशील बनना होगा और ऐसा रोडमैप तैयार करना होगा जो भविष्य में दुनिया को सुरक्षित बना सके। मनुष्य को भी प्रकृति से छेड़छाड़ करने से रोकना होगा क्योंकि अंततः प्राकृति ही इस धरती को बचाएगी।

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