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कोरोना वायरस : तीसरा विश्व युद्ध

भारत के लिए युद्ध शब्द कोई नया नहीं है और न ही आतंकवाद। विभिन्न सभ्यताओं के विकास और विनाश के हर पृष्ठ पर इनकी मुहर लगी हुई है। यहां तक कि विश्व शांति, मानवता और प्रेम का संदेश देने वाले ठेकेदारों ने भी समय-समय पर युद्ध और आतंक का ​सहारा लिया है।

04:16 AM Mar 29, 2020 IST | Aditya Chopra

भारत के लिए युद्ध शब्द कोई नया नहीं है और न ही आतंकवाद। विभिन्न सभ्यताओं के विकास और विनाश के हर पृष्ठ पर इनकी मुहर लगी हुई है। यहां तक कि विश्व शांति, मानवता और प्रेम का संदेश देने वाले ठेकेदारों ने भी समय-समय पर युद्ध और आतंक का ​सहारा लिया है।

कोरोना वायरस   तीसरा विश्व युद्ध
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भारत के लिए युद्ध शब्द कोई नया नहीं है और न ही आतंकवाद। विभिन्न सभ्यताओं के विकास और विनाश के हर पृष्ठ पर इनकी मुहर लगी हुई है। यहां तक कि  विश्व शांति, मानवता और प्रेम का संदेश देने वाले ठेकेदारों ने भी समय-समय पर युद्ध और आतंक का ​सहारा लिया है। उद्देश्य केवल यही रहा कि किस प्रकार वह दूसरों पर विजय प्राप्त करें, कैसे उन पर शासन करें एवं उन्हें अपने अनुसार जीवन जीने को मजबूर करें।
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दुनिया धनु​ष, तलवार, भाले, बरछी, गोली, बंदूक, तोप, बारूद आदि को पार करती हुई आणविक हथियारों और मिसाइलों के ढेर पर खड़े होकर अपने ही सर्वनाशी जैविक और रासायनिक हथियारों की खाेज में जुट गई है। इन हथियारों की सहायता से हजारों-लाखों लोगों को पल भर में मौत की नींद सुलाया जा सकता है या फिर तरह-तरह की बीमारियों की चपेट में लाकर सिसक-सिसक कर मरने को मजबूर किया जा सकता है।
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सबसे पहले रासायनिक हथियार के रूप में क्लोरीन गैस का दुरुपयोग जर्मनी ने प्रथम विश्व युद्ध के समय किया था। जर्मनी ने इस गैस की कई टन मात्रा वायुमंडल में छोड़ कर एक प्रकार के कृत्रिम बादल का निर्माण करने में सफलता प्राप्त की थी और इसे हवा के बहाव के साथ दुश्मन की ओर भेज दिया था। दूसरे विश्व युद्ध के समय जर्मनी के हिटलर ने दुश्मनों को मारने के लिए गैस चैम्बर्स का इस्तेमाल किया था।
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इतिहास पढ़ने वाले जानते होंगे कि किस तरह 1995 में ऑम सिन्निक्यू नामक आतंकवादी संस्था के लोगों ने टोक्यो शहर में स्नायु तंत्र को प्रभावित करने वाली गैस छोड़ कर कुछ लोगों को मौत की नींद सुला दिया था और हजारों लोग इससे प्रभावित हो गए थे। इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन ने भी कुर्दों के विद्रोह को दबाने के लिए ऐसी ही गैसों का इस्तेमाल कर हजारों कुर्दों का नरसंहार किया था। रसायनों का दुष्प्रभाव भारत भी झेल चुका है। भोपाल की कीटनाशक दवाइयां बनाने वाली यूनियन कार्बाइड नामक  फैक्टरी से 3 दिसम्बर, 1984 को जहरीली गैस के रिवास से कुछ पलों में हजारों की जान सोते-सोते चली गई थी और लाखों लोग आज भी इसका दुष्प्रभाव झेल रहे हैं।
अब रासायनिक हथियारों की जगह जैविक हथियार लेने लगे हैं। अधिकांश बीमारियों की वजह ​विषाणु होते हैं। यद्यपि बहुत से विषाणुओं को मारने के ​लिए वैज्ञानिकों और मैडिकल जगत ने सफलता प्राप्त कर ली है। कोरोना वायरस कोई सामान्य  ​विषाणु तो है नहीं क्योंकि अभी तक कोई एंटीवायटिक्स इस पर काम नहीं कर रहे।
कोरोना वायरस चीन के वुहान शहर से निकला है और यह दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचा है। मरने वालों की संख्या 25 हजार के करीब पहुंचने को है। हैरानी की बात तो यह है कि यह वायरस चीन की राजधानी बीजिंग, आर्थिक राजधानी शंघाई तक नहीं पहुंचा लेकिन न्यूयार्क, पैरिस, बर्लिन, इटली, स्पेन, टोक्यो, दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, पंजाब, उत्तर प्रदेश तक पहुंच गया। चीन के किसी नेता, ​िकसी सैन्य कमांडर को संक्रमण नहीं हुआ, बीजिंग में कोई लॉकडाउन नहीं है। इससे चीन के इरादों  पर संदेह गहरा गया है। दुनिया के बड़े लोगों को कोरोना हो चुका है। ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स, प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन, आस्ट्रेलिया के गृहमंत्री, अमेरिका के कुछ मंत्रियों और स्पेन के प्रधानमंत्री की पत्नी को कोरोना हो चुका है।
अब सवाल यह है कि क्या दुनिया खतरनाक विषाणुओं से तीसरा युद्ध लड़ रही है। यह एक तरह से तीसरा विश्व युद्ध ही है। अमीर और विकसित देश तो कोरोना वायरस की मार झेल जाएंगे लेकिन गरीब और विकासशील देश अपने लोगों और अर्थव्यवस्थाओं को कैसे झेल पाएंगे, यह चुनौती उनके सामने है। अमेरिका के प्रतिष्ठित दैनिक वाशिंगटन पोस्ट में इस आशय की रिपोर्ट छपी है कि कोरोना वायरस चीन के जैविक युद्ध कार्यक्रम का एक हिस्सा है जो गलती से प्रयोगशाला से निकल कर खुली हवा में आ गया।
जैविक ​हथियारों के विकास और भंडारण को प्रतिबंधित करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय संधि के पालन को लेकर यदि कोई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था होती तो चीन के खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच हो सकती थी लेकिन चीन, अमेरिका , रूस सहित सभी बड़ी ताकतें जैविक हथियारों की संधि के पालन की जांच व्यवस्था स्वीकार करने काे तैयार नहीं हैं, इसलिए कई देश जैविक हथियारों के विकास और भंडारण में जुटे हुए हैं। अमेरिका कोरोना वायरस का एपिक सैंटर बन रहा है, वहां कम्युनिटी ट्रांसमीशन का भयंकर खतरा पैदा हो चुका है। याद कीजिए यह वही अमेरिका है जिसने इराक पर रासायनिक हथियारों के निर्माण का आरोप लगाकर सद्दाम हुसैन की सत्ता पलट कर उसे फांसी पर चढ़ा दिया था। उसने इराक में ​विध्वंस का नंगा खेल खेला लेकिन वहां कुछ नहीं मिला था। अब अमेरिका ही कोरोना के आक्रमण से सर्वाधिक पीड़ित है।
जैव हथियारों के इस्तेमाल को प्रतिबंधित करने के लिए 1925 में ही जैनेवा में एक अन्तर्राष्ट्रीय संधि हुई थी, लेकिन इस संधि में जैव हथियारों के विकास और भंडारण को लेकर कोई संकल्प नहीं था। बाद में 1972 में इस संधि में नए प्रावधान जोड़े गए और इसके विकास और भंडारण पर भी रोक लगाने का प्रस्ताव ब्रिटिश सरकार ने तैयार ​किया था, जिसे 26 मार्च, 1975 को लागू किया गया। अगस्त 2019 तक इस संधि पर 183 देशों ने हस्ताक्षर किए लेकिन इस संधि का पालन किसी ने ईमानदारी से नहीं किया।
जैविक और घातक हथियार संधि लागू होने की 45वीं वर्षगांठ के अवसर पर भारत ने जैविक हथियारों पर प्रतिबंध लगाने का फिर से आह्वान करते हुए तेजी से फैलते कोरोना वायरस और इसके वैश्विक प्रभाव का उल्लेख किया है। भारत पहले भी कई बार भविष्य में जैविक हथियारों का आतंकवादियों द्वारा इस्तेमाल की आशंका जता चुका है। अगर महाशक्तियां अब भी नहीं सम्भलीं तो मानव की रक्षा करना मुश्किल होगा और महाशक्तियां खुद भी इसका शिकार हो जाएंगी।
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