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निगम के ‘हाई–फाई’ चुनाव

दिल्ली नगर निगम के अतिशय प्रचार से परिपूर्ण चुनाव समाप्त हो गये हैं, जिन्हें कुछ समालोचक हाई-फाई चुनाव भी कह रहे हैं। अब 7 दिसम्बर को इनके परिणाम आयेंगे।

01:35 AM Dec 05, 2022 IST | Aditya Chopra

दिल्ली नगर निगम के अतिशय प्रचार से परिपूर्ण चुनाव समाप्त हो गये हैं, जिन्हें कुछ समालोचक हाई-फाई चुनाव भी कह रहे हैं। अब 7 दिसम्बर को इनके परिणाम आयेंगे।

दिल्ली नगर निगम के अतिशय प्रचार से परिपूर्ण चुनाव समाप्त हो गये हैं, जिन्हें कुछ समालोचक हाई-फाई चुनाव भी कह रहे हैं। अब 7 दिसम्बर को इनके परिणाम आयेंगे। बेशक स्वतंत्रता के बाद नगर निगम गठित होने के बाद से अभी तक के ये सबसे महंगे ‘हाई डेसीमल’ चुनाव जा सकते हैं जिनमें अधिसंख्य स्थानों पर आमने-सामने और कुछ स्थानों पर त्रिकोणीय मुकाबला रहा। दिल्ली के कुल एक करोड़ 45 लाख से अधिक मतदाताओं वाले इस अर्ध राज्य में पचास प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल करके 250 निगम पार्षदों का भाग्य ईवीएम मशीनों में बन्द कर दिया है। पूरी राजधानी में मतदान शान्तिपूर्ण सम्पन्न हुआ जिसके लिए चुनाव आयोग को बधाई मगर जिस प्रकार दिल्ली में इस बार जायज मतदाताओं के नाम मतदान सूची से गायब पाये गये हैं, वह शोचनीय है। हद तो यह हो गई कि दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष श्री अनिल चौधरी का नाम ही मतदाता सूची से नदारद  पाया गया। इससे स्पष्ट है कि जमीनी स्तर पर मतदाताओं को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ा होगा और उन्हें अपने संवैधानिक अधिकार के उपयोग से वंचित रहना पड़ा होगा। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि जब मतदान में शत प्रतिशत लोग भाग लेने नहीं जाते हैं तो कुछ लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब होने से क्या फर्क पड़ता है? उनकी यह सोच पूर्णतः लोकतंत्र विरोधी ही नहीं बल्कि संविधान विरोधी भी है, क्योंकि संविधान ने प्रत्येक वयस्क को एक वोट का अधिकार दिया है और उसके उपयोग करने की जिम्मेदारी उसी पर छोड़ी है। अतः चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था का यह प्राथमिक दायित्व बनता है कि वह इस अधिकार से प्रत्येक मतदाता को लैस करे।
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चुनाव आयोग जब लोगों से अधिकाधिक संख्या में मतदान करने की अपील करता है और लाखों रुपये के विज्ञापनों का खर्चा करता है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वह प्रत्येक नागरिक को वोट देने के अधिकार से आभूषित कर चुका होगा। इस बारे में चुनाव आयोग को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है और इसके लिए दोष रहित प्रणाली ईजाद करने की जरूरत है। राजधानी में भाजपा, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस तीनों ने ही निगम चुनावों में हिस्सा लिया। भाजपा पिछले 15 सालों से नगर निगम पर काबिज है। एशिया की इस महत्वपूर्ण नगर निगम को 2010 में तीन हिस्सों में बांट दिया गया था। जिसका पुनः एकीकरण किया गया और कुल 250 वार्ड बनाये गये जिनमें से पचास प्रतिशत महिलाओं के लिए आरक्षित रखे गये। इसके साथ ही अनुसूचित जातियों के लिए भी नियमतः आरक्षण किया गया। सभी वार्डों पर चुनावी घमासान भी जमकर हुआ और भाजपा की तरफ से विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों व केन्द्रीय मंत्रियों तक ने इन स्थानीय निकाय चुनावों में प्रचार किया। 
भाजपा का प्रचार करने के इस तरीके के बारे में अपने तर्क हो सकते हैं परन्तु अन्तिम सत्य यही रहेगा कि ये शहरी समस्याओं का हल ढूंढने वाले ही चुनाव थे। आम आदमी पार्टी ने भी अपनी तरफ से चुनाव प्रचार में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। केवल कांग्रेस पार्टी ही ऐसी निकली जिसने इन चुनावों की महत्ता और किस्म को देखते हुए स्थानीय नेतृत्व से ही काम चलाने की कोशिश की और अपना चुनावी घोषणा पत्र भी दिल्ली की स्थानीय समस्याओं तक सीमित रखा। दरअसल नगर निगम का हस्तक्षेप किसी भी नागरिक के जीवन में घर से बाहर पांव निकालते ही शुरू हो जाता है। वह जिन गलियों से गुजरता है या जहां जिस कालोनी में रहता है वहां की साफ-सफाई का काम नगर निगम ही देखती है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी नगर निगम की ही होती है। दैनिक फेरी लगा कर या पटरी पर फड़ लगाकर अथवा ठेले पर सामान बिक्री करके अपना गुजारा करने वाले लोगों का जीवन भी नगर निगम के नियमों पर ही निर्भर करता है। 
2014 में संसद ने पटरी-फेरी-फड़ वाले दुकानदारों के लिए एक राष्ट्रीय कानून बनाया था। उसका पालन दिल्ली में कितना हुआ, कोई नहीं जानता। सफाई कर्मचारियों को ठेके पर रखने की प्रणाली अभी तक क्यों खत्म नहीं हुई जबकि एक सफाई कर्मचारी के नियमित सरकारी नौकर बनने पर न केवल उसकी वर्तमान पीढ़ी का भला होता है जबकि आने वाली पीढ़ियों का भी जीवन स्तर भी सुधरता है। ये कुछ ऐसे मूलभूत सवाल हैं जो नगर निगम की कार्य प्रणाली से जुड़े हुए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि दिल्ली वालों ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल करते हुए इस तरफ भी गौर किया होगा। दूसरे आज सोमवार को गुजरात में विधानसभा चुनावों का दूसरा व अन्तिम चरण है। विगत 1 दिसम्बर के प्रथम चरण के चुनाव में गुजरात के मतदाताओं ने मतदान में वह जोश नहीं दिखाया जिसकी अपेक्षा की जा रही थी और सोचा जा रहा था कि वे 2017 के पिछले मतदान के रिकार्ड से आगे निकलेंगे। 
राज्य में पिछली बार के मुकाबले चार प्रतिशत मतदान कम रहा और शहरी क्षेत्रों में यह बहुत धीमा रहा। हालांकि राज्य में चुनाव प्रचार में यहां भी किसी प्रकार की कमी नहीं देखी गई। सोचने वाली बात यह है कि चुनाव आम नागरिकों के लिए राजनैतिक पाठशाला की तरह होते हैं जिनमें प्रत्येक राजनैतिक दल अपनी विचारधारा के अनुरूप सिद्धान्तों की व्याख्या करता है मगर जब खुद राजनैतिक दल ही चुनावों को किसी तमाशे की तरह लेंगे तो लोग भी गंभीरता से चुनावों के बारे में विचार करना छोड़ देंगे। हमें इस तरफ सावधानी की जरूरत है और लोगों को यह बताने की जरूरत है कि चुनाव लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसके जरिये एक वोट के इस्तेमाल से लोग अपनी किस्मत खुद लिखते हैं।
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