टॉप न्यूज़भारतविश्वराज्यबिजनस
खेल | क्रिकेटअन्य खेल
बॉलीवुड केसरीराशिफलसरकारी योजनाहेल्थ & लाइफस्टाइलट्रैवलवाइरल न्यूजटेक & ऑटोगैजेटवास्तु शस्त्रएक्सपलाइनेर
Advertisement

चुनावों में भ्रष्टाचार और बांड

NULL

10:22 AM Apr 14, 2019 IST | Desk Team

NULL

लोकसभा चुनावों के चलते राजनैतिक दलों को दिये जाने वाले चन्दे के मामले में देश के सर्वोच्च न्यायालय का अत्यन्त महत्वपूर्ण अन्तरिम आदेश आया है कि स्टेट बैंक आफ इंडिया द्वारा जारी किये जाने वाले ‘चुनावी बांडों’ को खरीदने वाले लोगों के नाम-पते चुनाव आयोग को दिये जाएं और बताया जाये कि किस कम्पनी या व्यक्ति ने किस राजनैतिक दल के पक्ष में ये बांड खरीदे हैं। भारत के राजनैतिक लोकतन्त्र को स्थापित करने की मूल जिम्मेदारी संविधान ने चुनाव आयोग को ही सौंपी है जो पूरी तरह निष्पक्ष और निडर होकर राज्यों से लेकर देश की लोकसभा के चुनाव सम्पन्न कराता है और प्रत्येक राजनैतिक दल के लिए जनता के बीच जाकर वोट मांगते समय एक समान वातावरण देता है।

चूंकि राजनैतिक दल ही चुनाव लड़कर सरकार बनाते हैं अतः उनके वित्तीय पोषण की निगरानी भी चुनाव आयोग के जिम्मे होती है। चूंकि मतदाता ही अपने एक वोट के अधिकार से राजनैतिक दलों को बहुमत देकर उनकी सरकारें गठित करता है अतः सबसे पहले मतदाता को यह जानकारी होना जरूरी है कि जिस भी राजनैतिक दल के प्रत्याशी को वह वोट दे रहा है उसे वित्तीय ताकत देने वाले कौन लोग हैं और उनके द्वारा दिया गया धन वैध स्रोतों से कमाया गया है या नहीं। स्वच्छ व भ्रष्टाचार से मुक्त लोकतान्त्रिक शासकीय व्यवस्था देने की जिम्मेदारी राजनैतिक रूप से दलगत आधार पर बनी सरकारों की ही होती है।

मूल प्रश्न यह है कि यदि राजनैतिक दलों का वजूद ही भ्रष्टाचार से अर्जित कमाई पर खड़ा होगा तो वे किस प्रकार भ्रष्टाचार मुक्त सरकारें दे सकेंगे ? मगर इससे एक और सवाल आकर जुड़ गया है। पिछले पांच सालों में रिजर्व बैंक द्वारा दिये गये आंकड़ों के अनुसार बैंकों ने पांच लाख करोड़ रुपये से अधिक के कार्पोरेट अर्थात कम्पनियों के ऋणों को माफ या बट्टे खाते में डाला है। अतः देश की आम जनता के लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि इन महारथियों में से तो किसी ने राजनैतिक दलों पर ‘कृपा’ नहीं बरसाई है ? लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि राजनैतिक दलों को चन्दा देने वाली इकाइयों के नाम केवल स्टेट बैंक में ही गुप्त क्यों रखे जायें और इनके बारे में चुनाव आयोग तक को मालूम न हो जबकि हमारे संविधान निर्माताओं ने गहन विचार और मनन के बाद चुनावों को संचालित करने के लिए जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की संरचना की थी।

हालांकि इस अधिनियम में इसके बाद कई बार सत्तारूढ़ सरकारों ने संशोधन किये मगर यह काम चोरी-छिपे या पिछले दरवाजे से नहीं किया गया मगर 2016-17 के बजट प्रस्तावों में जिस तरह कम्पनी कानून-2013, रिजर्व बैंक आफ इंडिया कानून-1934 , विदेशी वित्तानुदान (नियमन) कानून-2010 व आयकर कानून-1961 में संशोधन करते हुए जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में भी संशोधन कर दिया गया उससे भारत की लोकतान्त्रिक प्रणाली के न केवल देशी बल्कि विदेशी कम्पनियों के प्रभाव में भी आने का मार्ग प्रशस्त हो गया। इस संशोधन ने विदेशी कम्पनियों की परिभाषा ही बदल डाली है और हर उस विदेशी कम्पनी को भारतीय राजनीति में प्रवेश का हक दे दिया है जिसका उपक्रम उन क्षेत्रों में हो जिन्हें 51 प्रतिशत या इससे ऊपर विदेशी निवेश के लिए खोल दिया गया है मगर सरकारी वकील महाधिवक्ता के. के. वेणुगोपाल ने इस बारे में अजीब दलील सर्वोच्च न्यायालय के सामने पेश की और कहा कि मतदाताओं को प्रत्याशियों के बारे में जानने का अधिकार तो हो सकता है मगर उन्हें राजनैतिक दलों के चन्दे या वित्तीय पोषण के बारे में जानने की क्यों जरूरत है?

यह दलील स्वयं में भारत की समूची लोकतान्त्रिक व्यवस्था को ‘भ्रष्टाचार को धर्म’ मानने का ऐलान करती है और कहती है कि ‘साधन और साध्य’ की शुचिता जरूरी नहीं है मगर यह तर्क बहुत खतरनाक इसलिए है क्योंकि इसमें भारत में कार्यरत विदेशी कम्पनियों के हाथों में भारत की राजनीति को गिरवी रखने की दलील छिपी हुई है और साढ़े तीन सौ साल पहले भारत आयी ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ की उस कारगुजारी को ताजा करती है जिसने तिजारत के रास्ते ही भारत की राजनीति को कब्जाते हुए अंत में इसे 1860 में इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया को बेच दिया था। यह मूल सिद्धान्त है कि ‘आर्थिक दासता’ ही ‘राजनैतिक दासता’ का द्वार खोलती है और वर्तमान में यही काम हम कर रहे हैं। यह कैसे संभव है कि राजनैतिक दलों को यह छूट दे दी जाये कि वे अपने वित्तीय हिसाब-किताब का लेखा-जोखा चुनाव आयोग को न दें और स्टेट बैंक के माध्यम से केवल सरकार को ही पता हो कि कौन कम्पनी या व्यक्ति किस राजनैतिक दल को चन्दा दे रहा है।

जाहिर है कि इसका लाभ केवल सत्ता में रहने वाली पार्टी को ही मिलेगा क्योंकि विपक्षी पार्टी को चन्दा देने से कोई भी व्यक्ति सरकार की टेढ़ी निगाहों का हकदार हो जायेगा। यह बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली को कुचलने का आगे जाकर जरिया बनकर ही रहेगा क्योंकि सारे वित्तीय स्रोतों पर एक ही पार्टी का एकाधिकार हो जायेगा। भारत के लोग उस लोकतन्त्र को अपनी आंखों के सामने मटियामेट होते नहीं देख सकते जिसे उनकी पुरानी पीढि़यों ने अपना खून देकर प्राप्त किया था। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने फिलहाल अंतरिम आदेश देकर यही किया है कि सारी सूचना एक बन्द लिफाफे में चुनाव आयोग को देने का आदेश दिया है और अन्तिम निर्णय विषय की गहन गंभीरता को देखते हुए दोनों पक्षों की पूरी सुनवाई करने के बाद करने का फैसला किया है। इस मामले में दूसरा पक्ष एक गैर सरकारी संगठन ‘ए.डी.आर.’ है जो चुनावी पारदर्शिता और शुचिता के लिए लड़ाई लड़ता रहता है।

यह मामला कमोबेश वैसा ही है जब हिन्दोस्तान के शहंशाह जहांगीर ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को अपनी सल्तनत में तिजारत करने का ‘शाही फरमान’ जारी किया था मगर वाह री आजाद हिन्दोस्तान की सियासत कि आज मतदाता से कहा जा रहा है कि वह यह जानकर क्या करेगा कि सियासी पार्टियों के असली आका कौन हैं? तुर्रा यह मारा जा रहा है कि बांड खरीदने वाले को अपनी पहचान बैंक को बतानी पड़ेगी जिससे वह कालेधन का निवेश इन बांडों में नहीं कर सकेगा मगर इस बात की गारंटी कौन देगा कि देश में लाखों करोड़ रुपये का दाल घोटाला करके सरकारी खजाने में जनता से वसूले गये राजस्व को हड़प करने वाले लोग इन बांडों को नहीं खरीदेंगे? दुनिया जानती है कि दाल घोटाला ऐसा तिजारती कारनामा है जिसमें भारत के किसानों की फसल को सस्ते दाम पर खरीद कर विदेशी कम्पनी को बेचकर फिर से भारत में ऊंची कीमत पर सरकार को बेच दिया गया था और मौज मनाई गई थी। अतः लोकतन्त्र का नाम पारदर्शिता ही होता है।

Advertisement
Advertisement
Next Article