For the best experience, open
https://m.punjabkesari.com
on your mobile browser.
Advertisement

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं

भारत के इतिहास में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस रामस्वामी पर अनैतिक…

10:57 AM Mar 30, 2025 IST | Vineet Narain

भारत के इतिहास में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस रामस्वामी पर अनैतिक…

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं

भारत के इतिहास में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस रामस्वामी पर अनैतिक आचरण के चलते 1993 में संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था, पर कांग्रेस पार्टी ने मतदान से पहले लोकसभा से बहिर्गमन करके उन्हें बचा लिया। 1997 में मैंने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे. एस. वर्मा के अनैतिक आचरण को उजागर किया तो सर्वोच्च अदालत, संसद व मीडिया में तूफान खड़ा हो गया था। पर अंततः उन्हें भी सजा के बदले तत्कालीन सत्ता व विपक्ष दोनों का संरक्षण मिला। 2000 में एक बार फिर मैंने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डॉ. ए.एस. आनंद के छह जमीन घोटाले उजागर किए तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ये मामला चर्चा में रहा व तत्कालीन कानून मंत्री राम जेठमलानी की कुर्सी चली गई पर तत्कालीन बीजेपी सरकार ने विपक्ष के सहयोग से उन्हें सजा देने के बदले भारत के मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बना दिया। इसलिए मौजूदा विवाद जिसमें जस्टिस यशवंत वर्मा के घर जले नोटों के बोरे मिले, कोई चौंकाने वाली घटना नहीं है। न्यायपालिका को देश के लोकतांत्रिक ढांचे का आधार माना जाता है, जो संविधान की रक्षा और कानून के शासन को सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है। सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालयों की एकीकृत प्रणाली के साथ यह संस्था स्वतंत्रता और निष्पक्षता के सिद्धांतों पर खड़ी है। दुर्भाग्य से हाल के दशकों में न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के बढ़ते आरोपों ने इसकी साख पर सवाल उठाए हैं। किसी न्यायाधीश के घर पर बड़ी मात्रा में नकदी मिलना एक गंभीर मुद्दा है। ऐसी घटनाओं से न ​सिर्फ न्यायपालिका पर कई सवाल उठते हैं बल्कि न्याय की आशा रखने वाली आम जनता का न्यायपालिका से विश्वास भी उठने लगता है। भारत की न्यायपालिका का आधार संविधान में निहित है। अनुच्छेद 124 से 147 सर्वोच्च न्यायालय को शक्तियां प्रदान करते हैं जबकि अनुच्छेद 214 से 231 उच्च न्यायालयों को परिभाषित करते हैं। यह प्रणाली औपनिवेशिक काल से विकसित हुई हैं, जब ब्रिटिश शासन ने आम कानून प्रणाली की नींव रखी थी। स्वतंत्रता के बाद, न्यायपालिका ने संवैधानिक व्याख्या, मूल अधिकारों की रक्षा और जनहित याचिकाओं के माध्यम से अपनी प्रगतिशील भूमिका निभाई है। 1973 के केशवानंद भारती मामले में मूल संरचना सिद्धांत और 2018 के समलैंगिकता की अपराधमुक्ति जैसे फैसले इसकी उपलब्धियों के उदाहरण हैं। हालांकि न्यायपालिका की छवि आमतौर पर सम्मानजनक रही है लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप इसकी विश्वसनीयता को चुनौती दे रहे हैं। 2010 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगे, जिसके बाद उन पर महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हुई। यह स्वतंत्र भारत में पहला ऐसा मामला था। हाल के वर्षों में कुछ निचली अदालतों के न्यायाधीशों के घरों से असामान्य मात्रा में नकदी बरामद होने की खबरें सामने आई हैं। 2022 में एक जिला जज के यहां छापेमारी में लाखों रुपये मिले, जिसने भ्रष्टाचार के संदेह को बढ़ाया।

2017 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तक को एक याचिका में शामिल किया गया, जिसमें मेडिकल कॉलेजों को अनुमति देने में कथित रिश्वतखोरी का आरोप था। हालांकि ये आरोप सिद्ध नहीं हुए लेकिन इसने संस्थान की छवि को काफी हद तक प्रभावित किया। कई मामलों में वकील और कोर्ट स्टाफ पर पक्षपातपूर्ण फैसलों के लिए पैसे लेने के आरोप भी लगे हैं, जिससे यह संदेह पैदा होता है कि क्या न्यायाधीश भी इसमें शामिल हो सकते हैं। ये घटनाएं अपवाद हो सकती हैं लेकिन इनका प्रभाव व्यापक है। भ्रष्टाचार के ये आरोप न केवल जनता के भरोसे को कम करते हैं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता पर भी सवाल उठाते हैं। न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ-साथ कई अन्य चुनौतियां भी हैं जो भारत की न्यायपालिका की वर्तमान स्थिति को परिभाषित करती हैं। आंकड़ों की मानें तो मार्च 2025 तक, देशभर में 4.7 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। सर्वोच्च न्यायालय में 80,000 से अधिक और उच्च न्यायालयों में 60 लाख से अधिक मामले विचाराधीन हैं। यह देरी भ्रष्टाचार के लिए अवसर पैदा करती है, क्योंकि लोग त्वरित न्याय के लिए अनुचित साधनों का सहारा ले सकते हैं। देशभर में न्यायाधीशों के स्वीकृत 25,771 पदों में से लगभग 20% रिक्त हैं। इससे मौजूदा जजों पर दबाव बढ़ता है और पारदर्शिता बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पर भी विवाद हुए हैं। कालेजियम प्रणाली, जो न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए जिम्मेदार है, पर अपारदर्शिता और भाई-भतीजावाद के आरोप लगते रहे हैं। 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को असंवैधानिक ठहराने के बाद भी इस मुद्दे पर बहस जारी है। इतना ही नहीं न्यायिक जवाबदेही की कमी भी एक गंभीर मुद्दा है, क्योंकि न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया जटिल है और महाभियोग दुर्लभ है। इसके अलावा, आंतरिक अनुशासन तंत्र कमजोर है, जिससे भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पाता। देखा जाए तो बड़ी संख्या में ग्रामीण और गरीब आबादी को कानूनी सहायता और जागरूकता की कमी का सामना करना पड़ता है। यह असमानता भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है। न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोपों का समाज पर प्रभाव बहुआयामी है। समय-समय पर होने वाले सर्वेक्षण और सोशल मीडिया पर चर्चाएं यह दर्शाते हैं कि लोग न्यायपालिका को पक्षपाती और भ्रष्ट मानने लगे हैं। यह लोकतंत्र के लिए खतरा है, क्योंकि न्यायपालिका पर भरोसा कम होने से कानून का सम्मान घटता है। जब किसी फैसले पर पैसे या प्रभाव से प्रभावित होने की आशंका उठती है, तो यह निष्पक्षता के सिद्धांत को कमजोर करता है। भ्रष्टाचार के आरोप सरकार और अन्य संस्थानों के लिए हस्तक्षेप का बहाना बन सकते हैं, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता खतरे में पड़ती है। कई लोग मानते हैं कि ‘न्याय बिकता है’ और गरीबों के लिए यह पहुंच से बाहर है। ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा। 1 जुलाई 2024 से लागू भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम में पारदर्शिता और तकनीक पर जोर दिया गया है। डिजिटल साक्ष्य और समयबद्ध सुनवाई से भ्रष्टाचार के अवसर कम हो सकते हैं। वर्चुअल सुनवाई और ऑनलाइन केस प्रबंधन से प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा रहा है, जिससे बिचौलियों की भूमिका कम हो सकती है।सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों के लिए आचार संहिता को सख्त करने की बात कही जा रही है, हालांकि इसे लागू करने में चुनौतियां हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायतों की जांच के लिए स्वतंत्र तंत्र की मांग बढ़ रही है, लेकिन यह अभी प्रस्ताव के स्तर पर है।

भारत की न्यायपालिका एक शक्तिशाली संस्था है, जो देश के लोकतंत्र को संभाले हुए है लेकिन न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप और संरचनात्मक कमियां इसकी विश्वसनीयता को कमजोर कर रही हैं। सुधारों की दिशा सकारात्मक अवश्य है, लेकिन इनका प्रभाव तभी दिखेगा जब इन्हें प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। समय की मांग है कि न्यायपालिका अपनी आंतरिक कमियों को दूर करे और जनता का भरोसा फिर से हासिल करे, ताकि यह संविधान के ‘न्याय, समानता और स्वतंत्रता’ वाले वादे को साकार कर सके।

Advertisement
Advertisement
Author Image

Vineet Narain

View all posts

Advertisement
×