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दलित युवक का दारुण चीत्कार !

इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि स्वतन्त्र भारत के जिस संविधान ने लोगों के बीच बराबरी पैदा करने के लिए जिस जाति विहीन समाज का सपना देखा उसे कालान्तर में स्वयं संविधान की शपथ लेकर लोकतान्त्रिक प्रशासन चलाने वाले राजनीतिज्ञों ने ही तोड़ डाला

01:31 AM Sep 30, 2022 IST | Aditya Chopra

इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि स्वतन्त्र भारत के जिस संविधान ने लोगों के बीच बराबरी पैदा करने के लिए जिस जाति विहीन समाज का सपना देखा उसे कालान्तर में स्वयं संविधान की शपथ लेकर लोकतान्त्रिक प्रशासन चलाने वाले राजनीतिज्ञों ने ही तोड़ डाला

इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि स्वतन्त्र भारत के जिस संविधान ने लोगों के बीच बराबरी पैदा करने के लिए जिस जाति विहीन समाज का सपना देखा उसे कालान्तर में स्वयं संविधान की शपथ लेकर लोकतान्त्रिक प्रशासन चलाने वाले राजनीतिज्ञों ने ही तोड़ डाला और इस पर सितम यह किया कि भारतीय समाज में जाति की जड़ों को और ज्यादा गहरा व पुख्ता बना डाला। सामाजिक न्याय के नाम पर जिस प्रकार जातियों की पहचान को केन्द्र में रख कर असमानता के निशान ढूंढे गये उससे समाज के लोगों के बीच जाति की पहचान इतनी गहरी होती गई कि वही शिनाख्त नागरिकों को समाज में और ज्यादा ऊंचे व नीचे बैठाने लगी। इन तर्कों से कुछ कथित समाजवादी सोच के लोग मतभेद रखेंगे क्योंकि उनकी राय में भारतीय विशेष रूप से हिन्दू समाज में जाति ही किसी व्यक्ति को पिछड़ा या अगड़ा बनाती है। यह अवधारणा पूरी तरह तर्कहीन है क्योंकि भारत में 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद पिछड़े वर्ग में जो भी जातियां शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर शामिल की गई हैं उनमें से अधिसंख्य ऐसी जातियां हैं जो इतिहास के विभिन्न कालखंडों में शासन करती रही हैं। अर्थात इनका इतिहास राजवंशों से जाकर जुड़ता है। इनमें गुर्जर राजाओं का इतिहास भारत के इतिहास के एक कालखंड का गौरवशाली अध्याय भी रहा है। 
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बिना पीछे इतिहास की पर्तों में जाये बिना यह लिखा जा सकता है कि अधिसंख्य कथित पिछड़ी जातियां लड़ाकू जातियां रही हैं जिसकी वजह से इनमें से अधिसंख्य 1990 से पहले स्वयं को क्षत्रिय वर्ण की बताती थीं। परन्तु हरिजन या दलित जातियों के लोगों के साथ दुर्भाग्य से हिन्दू समाज के सभी वर्णों के लोगों का व्यवहार अमानुषिक रहा है और ग्रामीण परिवेश में इन पर सर्वाधिक शारीरिक अत्याचार पिछड़ी जातियों के कहे जाने वाले लोगों द्वारा ही किया जाता रहा है। यह भारतीय समाज की एक हकीकत है जिसे हम अनदेखा नहीं कर सकते। जाति गौरव से भी सर्वाधिक अभिभूत इसमें पिछड़े वर्ग के लोग भी रहते हैं और कथित ‘आनर किलिंग’ के मामले भी इन्हीं जातियों में होते हैं। वास्तव में अलग जातियों के  युवा युगल के बीच प्रेम सम्बन्धों को लेकर किसी युवती या युवक की हत्या ‘हारर किलिंग’ (वीभत्स हत्या) ही होती है । इसे आॅनर किलिंग कहना पूरी तरह बेमानी है। 
दलित समाज के लोगों के साथ बराबरी का व्यवहार करने की गरज से कई कानून बनाये गये और संविधान में इन्हें राजनैतिक आरक्षण देने की व्यवस्था भी की गई परन्तु आजादी के 75 साल बाद भी समाज की मानसिकता में वह बदलाव नहीं आ सका जिसकी अपेक्षा हमारे संविधान निर्माताओं ने की थी। सदियों से दलितों के साथ पशुवत व्यवहार करने वाले समाज में इतनी जल्दी बदलाव आने की अपेक्षा करना भी स्वयं में उचित नहीं है, क्योंकि हजारों साल का हर्जाना केवल कुछ वर्षों  
मे नहीं चुकाया जा सकता । इस प्रक्रिया को पलटने में भी सैकड़ों वर्ष लग सकते हैं। अतः 21वीं सदी के भारत से भी हमें अक्सर दलितों के साथ अन्याय होने की घटनाएं सुनने को मिलती रहती हैं। कभी किसी दलित दूल्हें के घोड़े पर चढ़ने को ही जाति गौरव का सवाल बनाकर  स्वयं को ऊंचा समझने वाले कुछ लोग उसकी हत्या तक कर डालते हैं, तो कभी दलित कन्याओं को हवस का शिकार बना लिया जाता है। कभी दलित युवक को अमानुषिक सजाएं दी जाती हैं। मगर पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के औरेया जिले में एक स्कूली दलित छात्र के साथ उसके स्कूल के एक अध्यापक ने जिस तरह का व्यवहार किया वह रौंगटे खड़े कर देने वाला है। समाज शास्त्र के इस अध्यापक ने एक सवाल का गलत उत्तर लिखने के लिए दलित छात्र की इस कदर पिटाई की कि उसकी मृत्यु ही हो गई। 
इससे यह सवाल भी पैदा होता है कि आजकल के शिक्षक किन संस्कारों के साथ पढ़ाई कराने के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं ? मृतक छात्र दलित होने के साथ गरीब भी होगा, इसकी कल्पना कोई भी कर सकता है, मगर वह पहले से ही कमजोर व गुर्दे की बीमारी से ग्रस्त था, इसकी कल्पना वही व्यक्ति कर सकता है जो छात्र के सम्पर्क में रहता हो। शिक्षक को इस तथ्य की जानकारी न हो, ऐसा नहीं माना जा सकता क्योंकि विद्यालय में एक कक्षा के छात्रों के बीच एक-दूसरे के बारे में ऐसी जानकारियां छिपती नहीं हैं। इसके बावजूद एक सवाल का गलत उत्तर देने पर ऐसे छात्र की पिटाई बेदर्दी के साथ यदि कोई शिक्षक करता है तो अवश्य उसके जहन में कोई दूसरा कारण रहा होगा और बहुत संभावना इस बात की है कि जातिगत बोध की वजह से उसने छात्र को बहुत कड़ा दंड दिया होगा। इसकी एक वजह और भी है कि औरेया जिला ऐ सा जिला माना जाता है, जहां जातिगत ऊंच-नीच का बोलबाला आज भी माना जाता है। यहां के सामाजिक जीवन में जातिगत प्रधानता आसानी से देखी जा सकती है।
अध्यापक के इस कर्कश व्यवहार का प्रमाण एक और तथ्य यह है कि दलित छात्र की पिटाई के बाद सख्त बीमार हो जाने पर शिक्षक ने छात्र के पिता को इलाज के लिए 40 हजार रुपए दिये मगर और आगे चिकित्सा कराये जाने की जरूरत पर बाद में आवश्यक धन देने से मना कर दिया और छात्र के पिता को जातिमूलक गालियां अलग से दीं। अतः समाज में ऐसे  शिक्षकों को सबक सिखाने के लिए जरूरी है कि उस पर एक युवक की हत्या करने की धारा के तहत मुकदमा चलाया जाये और फांसी के फंदे तक ले जाया जाये। हालांकि शिक्षक के विरुद्ध विभिन्न धाराओं में मुकदमा दर्ज हो चुका है मगर दफा 302 नहीं लगाई गई है। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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