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दलित, मुस्लिम, पिछड़ा गठबन्धन और राहुल गांधी

1963 में जब समाजवादी विचारक आचार्य जे.बी. कृपलानी ने उत्तर प्रदेश की..

04:40 AM Feb 01, 2025 IST | Rakesh Kapoor

1963 में जब समाजवादी विचारक आचार्य जे.बी. कृपलानी ने उत्तर प्रदेश की..

दलित  मुस्लिम  पिछड़ा गठबन्धन और राहुल गांधी

1963 में जब समाजवादी विचारक आचार्य जे.बी. कृपलानी ने उत्तर प्रदेश की अमरोहा- मुरादाबाद लोकसभा सीट पर उपचुनाव लड़ते हुए यह कहा था कि कांग्रेस पार्टी को इस देश में हराना बहुत आसान है। बस उसके चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी के इन दोनों बैलों को खोल दो जो कि मुसलमान व दलित हैं। तब कांग्रेस का चुनावी निशान दो बैलों की जोड़ी ही थी। आचार्य जी ने ये उदगार मुरादाबाद के कम्पनी बाग में आयोजित एक जनसभा में कहे थे। कांग्रेस पार्टी ने आचार्य जी के मुकाबले अपने राज्यसभा में सदन के नेता स्व. हाफिज मुहम्मद इब्राहीम को खड़ा किया था। उनके इस बयान की सबसे ज्यादा निन्दा उन्ही की पत्नी स्व. श्रीमती सुचेता कृपलानी ने की थी और कहा था कि आचार्य जी चुनाव जीतने के लिए साम्प्रदायिकता को हवा दे रहे हैं। सुचेता जी उस समय कांग्रेस पार्टी में थी जो इसी वर्ष में उत्तर प्रदेश की मुख्यमन्त्री भी बनी और 1967 तक इस पद पर रहीं।

दरअसल आचार्य जी ने भारत के सामाजिक ताने-बाने की राजनैतिक बुनावट पर सीधा आक्रमण किया था। मगर वर्तमान समय की राजनीति में कांग्रेस पार्टी के लोकसभा में विपक्ष के नेता श्री राहुल गांधी यह स्वीकार करते हैं कि 1990 के बाद से कांग्रेस पार्टी दलितों, पिछड़ों व अल्संख्यकों का विश्वास जीतने में असफल रही है तो हमें इसके राजनैतिक परिणामों की बहुत गंभीरता के साथ विवेचना करनी होगी। किन्तु इसके साथ यह भी हकीकत है कि कांग्रेस को इस हालत में खुद कांग्रेसी नेताओं ने ही पहुंचाया है ।

1991 से लेकर 1996 तक केन्द्र में कांग्रेस पार्टी की स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में सरकार सत्ता पर काबिज थी। इस सरकार के कार्यकाल के दौरान ही अयोध्या में 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी। नरसिम्हा राव ने कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष भी रहते हुए जातिवादी राजनीति के समक्ष माथा टेका और उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ समझौता करते हुए राज्य की कुल 425 विधानसभा सीटों में से तीन चौथाई सीटें बहुजन समाज पार्टी को दे दीं। इसके साथ ही राज्य में कांग्रेस पार्टी का गहरा पतन शुरू हुआ। मगर इससे पूर्व ही 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हो चुकी थीं जो कांग्रेस से ही निकले स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा केन्द्र में जनता दल के प्रधानमन्त्री के रूप में की गई थीं। इनके लागू होने से क्षेत्रीय स्तर पर जातिमूलक राजनैतिक दलों का गठन जनता दल को बिखेर कर शुरू हुआ और उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे बड़े राज्यों में पिछड़े समाज व दलित समाज की अलग-अलग पार्टियां मजबूत हुई।

जबकि बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में दलित वोट बैंक के आधार पर 1984 के बाद ही मजबूत होने लगी थी। पिछड़े, दलित व अल्पसंख्यक मतों पर एेसे राजनैतिक दलों का आधिपत्य बढ़ता गया और कांग्रेस कमजोर से कमजोर तर होने लगी। श्री राहुल गांधी ने यह स्वीकार कर साफ कर दिया है कि उनकी पार्टी अपने खोये हुए वोट बैंक को प्राप्त करने के लिए समाज के इन तबकों का पुनः विश्वास हासिल करने के लिए गांधीवाद के रास्ते पर चल कर देश की 90 प्रतिशत आबादी की सत्ता में आनुपातिक भागीदारी की मांग पर डटी रहेगी। उहोंने यह स्वीकारोक्ति दलित बुद्धिजीवियों की एक सभा में ही की।

राहुल गांधी अपनी प्रत्येक जन सभा में जातिगत जनगणना की बात करते हैं और आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा को हटाने की बात करते हैं। इससे केवल यह स्पष्ट होता है वह संसद से लेकर विधानसभा और नौकरशाही में आनुपातिक आरक्षण को लागू करने की दिशा में बढना चाहते हैं। उनका यह कहना कि पिछले 15 साल से कांग्रेस ने दलितों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों व आदिवासियों का विश्वास जीतने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है, बताता है कि पार्टी अखिल भारतीय स्तर पर इन तबकों के बीच अपनी पैठ अपनी विचारधारा के अनुसार जमाने की कोशिश करेगी। अतः राहुल गांधी जब ​िपछड़ों, दलितों, आदिवासियों व अल्पसंख्यकों की बात करते हैं तो जाहिर है कि उनकी मंशा क्षेत्रीय दलों के साथ सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी से भी इन वर्गों के मतों को छीनने की है।

बहुत साफ है कि राहुल गांधी कबूल कर रहे हैं कि फिलहाल कांग्रेस की हालत एक ‘लुटे नवाब’ जैसी है। वह पिछले 15 सालों में कांग्रेस द्वारा लोकहित में किये गये प्रयासों से सन्तुष्ट नहीं हैं। क्योंकि आजादी के बाद से इस देश में कांग्रेस की छवि गरीबों व पिछड़ों की पार्टी के रूप में ही मुखर रही है। राहुल गांधी ने तो दलित समागम में यहां तक स्वीकार किया कि उनकी दादी स्व. इन्दिरा गांधी के जमाने तक दलित व अल्संख्यक समुदायों का अटूट विश्वास कांग्रेस पार्टी के साथ था मगर इसके बाद उनका विश्वास हिलने लगा और जो जगह खाली होती रही उसे भाजपा व क्षेत्रीय दल भरते रहे। राजनीति में सच को स्वीकार करना आम राजनीतिज्ञों के बस की बात नहीं होती है। अतः जो राजनीतिज्ञ अपने समय के सच को स्वीकार करता है वह जन नेता बनने की सीढि़यों पर चढ़ता नजर आता है। क्योंकि राहुल गांधी चाहते हैं कि 90 प्रतिशत दलितों, अल्पसंख्यकों व आदिवासियों को केवल प्रतिनिधित्व ही नहीं दिया जाना चाहिए बल्कि उनकी प्रशासन में सर्वांगीण भागीदारी भी होनी चाहिए। यह कार्य निश्चित रूप से प्रशासनिक आरक्षण व राजनीतिक आरक्षण के बिना नहीं हो सकता। इसके लिए भारत का संविधान रास्ता सुझाता है।

संविधान सभी प्रकार नागरिकों को बराबर समझता है और उनकी पहचान हिन्दू-मुस्लिम आधार पर नहीं बल्कि भारतीय नागरिक के रूप में करता है। 1980 में जनता पार्टी टूटने के बाद इस पार्टी के सबसे बड़े भागीदार चौधरी चरण सिंह ने 1984 के चुनाव से पहले अपनी पार्टी लोकदल का नाम बदल कर ‘दलित मजदूर किसान पार्टी’ (दमकिपा) रख दिया था। 1984 में श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में उत्तर भारत में कांग्रेस पार्टी के बाद सर्वाधिक मत प्रतिशत इसी पार्टी का था हालांकि उसके कुल दो सांसद ही चुने गये थे। जिनमें एक चौधरी साहब स्वयं थे।

बाद में चौधरी साहब का यही वोट बैंक सब प्रकार के जनता दलों ने जातिगत व क्षेत्र गत आधार पर हथिया लिया। इसलिए राहुल गांघी के समक्ष यह तथ्य भी स्पष्ट होना चाहिए जाति मूलक क्षेत्रीय दलों से पहले भी ग्रामीण वोट बैंक पर चौधरी साहब कब्जा कर चुके थे। मगर वर्तमान परिस्थितियों में सत्ताधारी भाजपा का मुस्लिमों को छोड़ कर पिछड़ों, दलितों व आदिवासियों के बीच भी अच्छा- खासा वोट बैंक है। मगर भारत की इस हकीकत को कैसे बदला जा सकता है कि कुल 140 करोड़ की इसकी जनसंख्या में 90 प्रतिशत जनसंख्या इन चार समाजों की ही होगी। इनमें चुनावी एकता स्थापित होती है तो देश के हर राजनीतिक दल को अपनी नीतियों मे परिमार्जन करना होगा।

जहां तक मुस्लिमों का सवाल है तो इन्होंने आजादी के बाद से कांग्रेस का ही साथ दिया और मौलाना आजाद के बाद अपने खेमे का कोई नेता नहीं बनाया। उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस के कमजोर होने पर इन्होंने मुलायम सिंह यादव व लालू प्रसाद यादव व मायावती पर भरोसा करना केवल भाजपा के खिलाफ होने की वजह से ही किया। मगर इन नेताओं का मूल जनाधार उनकी अपनी-अपनी जातियों में ही रहा। जबकि चौधरी चरण सिंह के ग्रामीण वोट बैंक में किसी प्रकार का जातिगत बंधन नहीं था।

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