बिहार के दलित-मुस्लिम
बिहार के 2025 के विधानसभा चुनावों में सभी स्थापित परंपराओं और चुनावी मान्यताओं को जनादेश ने धत्ता बताकर नये समीकरण इस प्रकार गढे़ हैं कि बिहार की सामाजिक संरचना के नये रसायन शास्त्र का निर्माण हुआ है। यह इस बात का द्योतक है कि जब जनता अपने ही गठजोड़ और गठबन्धन तय करती है तो वह रूढि़वादी मान्यताओं को परे धकेलते हुए चलती है। बिहार का यह जनादेश कई मायनों में चौंकाने वाला है क्योंकि इसने बिहार के चुनावी गणित की उन मान्यताओं को तार-तार किया है जिनके आधार पर राजनीतिक दल अपनी हार-जीत का गुणा-गणित करते हैं। मसलन मुस्लिम बुहल क्षेत्रों में इस बार के जनादेश ने मुस्लिम-यादव गठबन्धन के परखचे उड़ा दिये हैं वहीं अनुसूचित जातियों व जन जातियों के लिए आरक्षित सीटों पर भी चुनाव परिणाम एक सिरे से बदल दिये हैं। हालांकि बिहार के पुराने इतिहास में 2010 के चुनावों में सत्तारूढ़ एनडीए को वर्तमान जीत 202 सीटों से भी ज्यादा 206 सीटों की विजय प्राप्त हुई थी मगर सामाजिक समीकरण इस प्रकार नहीं सुलझे थे जिस प्रकार इस बार के चुनावों में सुलझे हैं। जनता ने इस बार सीधा सन्देश दिया है कि वह सुशासन और लोक कल्याण के स्थान पर किन्हीं अन्य समीकरणों को स्वीकार्यता प्रदान नहीं करती है।
2010 के चुनावों में नीतीश बाबू की पार्टी जनता दल(यू) ने 141 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 115 स्थानों पर सफलता मिली थी। वहीं भाजपा ने कुल 102 सीटें लड़ी थी और उसे 91 सीटें मिली थीं। इस बार भाजपा व जदयू दोनों ने बराबर-बराबर 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ा जिसमें भाजपा को 89 व (जद यू) को 85 सीटें मिलीं। मगर इन सीटों में समाज के सभी वर्गों की भागीदारी रही। जदयू ने मुस्लिम समाज से चार उम्मीदवार खड़े किये थे जो चारों विजयी रहे वहीं एनडीए की सहयोगी पार्टी चिराग पासवान की लोजपा ने एक मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारा था। बिहार का सीमांचल इलाका मुस्लिम मतों का गढ़ माना जाता है जिसमें चार जिले किशनगंज, कटिहार, अररिया व पूर्णिया शामिल हैं। इन चारों जिलों में 24 सीटें हैं। माना जा रहा था कि सीमांचल में मुस्लिम वोट बैंक आपस में नहीं बंटेगा मगर इसमें विभाजन हुआ और असीदुद्दीन ओवैसी की मुस्लिम इत्तेहादे मुसलमीन पार्टी के पांच उम्मीदवार इसी इलाके से जीते।
पिछले 2020 के चुनावों में भी इस पार्टी के इतने ही उम्मीदवार विजयी रहे थे। इस क्षेत्र में मुस्लिम मतों का बंटवारा विपक्षी महागठबन्धन व इत्तेहादे मुसलमीन के बीच हुआ जिसका सबसे बड़ा लाभ एनडीए को हुआ और इसके सर्वाधिक प्रत्याशी सीमांचल से जीते। सीमांचल में जहां मुस्लिम वोटों के एकीकरण का शोर था वहां हिन्दू वोटों का एकीकरण एनडीए के पक्ष में बिना जाति-पाति के भेदभाव के हुआ और परिणामस्वरूप इस गठबन्धन के प्रत्याशी सबसे बड़ी संख्या में विजयी हुए। सीमांचल की 24 सीटों में से एनडीए को 14 सीटें प्राप्त हुई जिनमें भाजपा को सात, जदयू को पांच व चिराग पासवान की लोजपा को दो सीटें मिलीं। जबकि विपक्षी महागठबन्धन में कांग्रेस को चार व राजद को मात्र एक सीट मिली और पांच सीटें असीदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ले उड़ी। जबकि माना यह जा रहा था कि सीमांचल का इलाका लालू यादव की राजद पार्टी के लिए अधिक अनुकूल है क्योंकि यहां मुस्लिम मत बहुसंख्या में हैं और मुस्लिम-यादव समीकरण अपनी सक्रियता में है। मगर हुआ उल्टा। मुस्लिम मतों के बट जाने से जद(यू) के चारों मुस्लिम प्रत्याशी विजयी हो गये। इलाके के किशनगंज जिले में सर्वाधिक 67 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम मतदाता हैं जबकि कटिहार में 45 प्रतिशत, अररिया में 43 प्रतिशत व पूर्णिया में 39 प्रतिशत हैं। कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन सीमांचल में बहुत खराब माना जा रहा है हालांकि इसने चार सीटें जीती हैं। जबकि क्षेत्र के मुसलमानों में राहुल गांधी के प्रति सद्भावना की कमी नहीं थी। इस प्रकार एनडीए ने 2020 के मुकाबले इस बार सीमांचल में बेहतर प्रदर्शन करके यह बता दिया कि महागठबन्धन के कथित मुस्लिम परक होने का उस पर कोई असर नहीं पड़ा है। इसी प्रकार राज्य की दलितों के लिए आरक्षित सीटों का हाल रहा है। बिहार में कुल 40 सीटें आरक्षित हैं इनमें केवल दो ही अनुसूचित जनजाति या आदिवासियों के लिए हैं, शेष 38 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए हैं। इन 40 सीटों में से एनडीए ने इस बार 34 पर कब्जा जमा कर बता दिया कि विपक्षी महागठबन्धन का जाति जनगणना कराने का कार्ड नहीं चला है और सामाजिक न्याय के अलम्बरदार कहे जाने वाले लालू यादव की पार्टी के पैरोकारों का बस अनुसूचित जातिवर्ग पर हल्का पड़ा है।
हालांकि इन 40 सीटों पर लालू जी की पार्टी राजद को सर्वाधिक 22 प्रतिशत से अधिक मत मिले हैं मगर उसे सीटें नहीं मिल पाईं। महागठबन्धन को 38 में से चार सीटें ही मिल पाईं और एक आदिवासी सीट मिली। जबकि 2020 को पिछले चुनावों में एनडीए ने 21 आरक्षित सीटें व एक आदिवासी सीट जीती थीं जबकि महागठबन्धन के हिस्से में 17 आरक्षित व एक आदिवासी सीट गई थी। आरक्षित सीटों पर महागठबन्धन के खराब प्रदर्शन को देखकर कहा जा सकता है कि राहुल गांधी का संविधान बचाओ अभियान इन इलाकों में बहुत फीका रहा। इस प्रकार एनडीए ने सभी मोर्चों पर महागठबन्धन को पछाड़ा और अपनी लोक कल्याण की अवधारणा को मजबूत बनाते हुए नये चुनावी समीकरण गढे़।

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