चीन से ऐसे निपटो
चीन की कूटनीति का मुंह तोड़ उत्तर देने के लिए भारत को ऐसी नीति की जरूरत है जिसके तहत दुश्मन को उसके घेरे में ही बांधने का सफल प्रावधान छिपा रहता है। कई एजैंसियों के सर्वे से यह ज्ञात हो रहा है
12:07 AM Jun 25, 2020 IST | Aditya Chopra
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चीन की कूटनीति का मुंह तोड़ उत्तर देने के लिए भारत को ऐसी नीति की जरूरत है जिसके तहत दुश्मन को उसके घेरे में ही बांधने का सफल प्रावधान छिपा रहता है। कई एजैंसियों के सर्वे से यह ज्ञात हो रहा है कि मोदी सरकार इससे निपटने में सक्षम है और भारतीय सेना में भी बहुत जोश और जुनून है। अब यह समय 1962 वाला नहीं है। अब भारत सरकार, सेना और रक्षा मंत्रालय चौकस एवं सक्षम हैं।
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यह सनद रहनी चाहिए कि मनमोहन सरकार के दौरान 2006 में जब बतौर रक्षा मन्त्री के श्री प्रणव मुखर्जी ने चीन का दौरा किया था तो वहां जाकर उन्हें आश्चर्य हुआ था कि चीन भारत से लगते सीमावर्ती इलाकों में जबर्दस्त निर्माण कार्य कर रहा है। उन्होंने तब बीजिंग में कहा कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है और नई दिल्ली में लौट कर चीन से लगते भारत के सीमावर्ती इलाकों में तेजी से निर्माण कार्य करने के आदेश दिये। आज जिस गलवान घाटी से होकर जाने वाली दौलत बेग ओल्डी तक जाने वाली सड़क से चीन फड़फड़ा रहा है वह उसके बाद ही शुरू की गई। इतना ही नहीं 2004 में रक्षा मन्त्री बनते ही प्रणवदा ने भारत-चीन-रूस के बीच रक्षात्मक सहयोग का ‘त्रिकोण’ बनाने की पहल भी की जिसकी 16वीं बैठक मास्को में हुई और उसमें हिस्सा लेने विदेश मन्त्री एस. जयशंकर गये।
इस त्रिपक्षीय बैठक में चीन को रास्ते पर लाने का तरीका खोजा जा सकता था। उल्टा हमें यह सुनने को मिला कि रूस ने भारत और चीन को अपने मसले स्वयं सुलझाने की ही ताईद कर डाली। यह त्रिपक्षीय मंच एशिया महाद्वीप में भारत को चीन के समानान्तर ही आपसी सहयोग के साथ बहुआयामी विकास करने के लक्ष्य से बनाया गया था और दुनिया में एशिया के पक्ष में सन्तुलन को बल देने की गरज से वजूद में आया था। यह रक्षात्मक त्रिकोण भी था और आर्थिक विकास त्रिकोण भी परन्तु कालान्तर में चीन ने भारत और अमेरिका के बीच के प्रदर्शित सम्बन्धों की रोशनी में एशिया के स्थान पर स्वयं को केन्द्र में रख लिया और अब हालत यह है कि वह भारत के साथ लगी नियन्त्रण रेखा को ही बदल देना चाहता है।
चीन कभी भरोसे लायक देश नहीं है। इस हकीकत को प्रणव दा जानते थे जिसकी वजह से उन्होंने सीमावर्ती इलाकों में आधारभूत ढांचा मजबूत करने का फैसला लिया था परन्तु चीन भारत का पड़ोसी भी है इसीलिए उन्होंने रूस को बीच में डालकर त्रिपक्षीय सहयोग तन्त्र बनाया था। यही कूटनीति कहती थी और चाणक्य नीति भी इसी का प्रतिपादन करती है। चीन की नीयत से भारत की कोई भी जिम्मेदार राजनीतिक पार्टी वाकिफ न हो इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। जब 19 नवम्बर, 2019 को अरुणाचल प्रदेश से भाजपा के लोकसभा सदस्य श्री तारिप गाव शून्यकाल में अरुणाचल प्रदेश में चीन द्वारा कब्जाये गये भारतीय इलाके के बारे में खुलासा कर रहे थे तो पूरा देश सुन रहा था। उनकी बात पर किसी ने कान ही नहीं दिया मगर उन्होंने पुनः विगत 18 जून को टेलीविजन पर असम में खुलासा किया कि अरुणाचल के अफर सुबंसिरे जिले की भूमि के बड़े इलाके पर चीन ने कब्जा कर लिया है और हमारी एक सैनिक पोस्ट को भी अपना बना लिया है। चीन ने नाकूला क्षेत्र में मैकमोहन रेखा के भारतीय इलाके में यह कारस्तानी की है। श्री गाव अरुणाचल प्रदेश भाजपा के ही पूर्व अध्यक्ष हैं। दूसरी तरफ वह लद्दाख में गलवान घाटी और पेगोंग- सो झील इलाके में नियन्त्रण रेखा को बदल कर अख्साई चिन के करीब तक पहुंचने वाली हमारी सड़क को बीच से काट देना चाहता है जिससे भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा कमजोर पड़ जाये मगर उसकी चालबाजियां देखिये कि गलवान घाटी में हमारे बीस सैनिकों की बर्बरतापूर्ण ढंग से हत्या करने के बाद वह उस भारतीय इलाके को खाली करने को तैयार नहीं है जहां विगत 15 जून को उसने इस घटना को अंजाम दिया था। चीन का एक इंच भारतीय भूमि पर अतिक्रमण किसी भी भारतीय को स्वीकार नहीं है और यही सच्ची राष्ट्रभक्ति भी है। इसकी असली वजह यह है कि चीन के कब्जे में पहले से ही लद्दाख का वह अख्साई चिन इलाका है जिसका क्षेत्रफल 38 हजार वर्ग किलो मीटर से भी ज्यादा है जो उसने 1962 में हड़प लिया था। इसके पास इससे लगते काराकोरम इलाके की पांच हजार वर्ग कि.मी. भूमि पाकिस्तान ने 1963 में उसे खैरात में देकर उसके साथ नया सीमा समझौता किया। इसी इलाके में चीन ने काराकोरम सड़क का निर्माण सत्तर के दशक में कर लिया था, अब चीन नियन्त्रण रेखा की स्थिति को परिवर्तित करके पाकिस्तान के साथ अपनी सी पैक परियोजना से जोड़ना चाहता है। वह भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान व नेपाल को अपने साथ रख कर भारत पर अपना रौब गालिब इसलिए करना चाहता है कि पूरे एशिया में अकेला भारत ही एेसा है जो उसे चुनौती दे सकता है लेकिन उसका पाला देश की सीमाओं की रक्षा करती भारत की उस जांबाज सेना से पड़ा है जिसके हौंसलों से वह 1962 में ही वाकिफ हो गया था। बेशक चीन की फौजें तब तेजपुर तक आ गई थीं मगर उन्हें वापस भी अन्तर्राष्ट्रीय दबाव की वजह से जाना पड़ा था क्योंकि भारत के साथ पंचशील समझौता करने के बाद चीन ने ‘बुद्ध’ की जगह ‘युद्ध’ को वरीयता दी थी। भारत की नीति आज भी शान्ति और सौहार्द की है मगर चीन इसे कमजोरी समझने की भूल न करे। भारत पर जब संकट आता है तो पूरा देश एकजुट हो जाता है और राजनीतिक दलों के भेद मिट जाते हैं।
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आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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