मौत बेचते नकली दवाओं के सौदागर
देश में आए दिन नकली दवाइयों का भंडाफोड़ होना समाज के नजरिये से सुखद…
देश में आए दिन नकली दवाइयों का भंडाफोड़ होना समाज के नजरिये से सुखद, पर प्रशासन के नजरिये से शर्मनाक है। पिछले कुछ समय से दिल्ली, नोएडा, कोलकाता, मुम्बई अाैर पुणे व हिमाचल, उत्तराखंड में नकली दवाइयों की खेप पकड़ी जा रही है। यहां तक कि कैंसर उपचार के लिए भी नकली दवाइयां बाजार में बिक रही हैं।
नकली दवाओं का निर्माण न केवल लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़, बल्कि देश के साथ शत्रुता के समान है। पता नहीं, ऐसी कितनी कंपनियां देश में चल रही हैं? जहां रक्तचाप, मधुमेह और गैस की नकली दवाएं बनाई जा रही हैं। जाहिर है, यह कंपनी अपने बाजार प्रतिनिधियों के जोर पर अनेक चिकित्सकों को लुभावने प्रस्ताव देकर अपनी दवाओं को बेचती होंगी। इसमें कोई शक नहीं है कि मिलावटखोरों या नकली उत्पाद बनाने वाले उद्यमियों के साथ हमारे देश में ढिलाई या उदारता बरती जाती है, इसलिए अपराधियों के हौसले बुलंद रहते हैं। किसी न किसी रसूखदार का सहारा लेकर ऐसे उद्यमी-अपराधी बचने के रास्ते निकाल लेते हैं। चूंकि भारत में आबादी ज्यादा है और उसी अनुपात में बीमारियां भी हैं, तो दवाओं की मांग यहां लगातार बनी रहती है। ऐसे में, कुछ दवा निर्माता कंपनियों का काम ही यही है कि ब्रांडेड दवाओं के नाम का लाभ उठाया जाए। दवा कारोबार में लाभ भी बहुत होता है, यह लाभ भी अपराधियों को दवा निर्माण के व्यवसाय में खींच लाता है। नकली दवाओं का मामला केवल एक राज्य या क्षेत्र तक सीमित नहीं है। केंद्रीय दवा मानक नियंत्रण संगठन दरअसल हर महीने राष्ट्रीय स्तर पर ड्रग अलर्ट जारी करता है। इसमें जिन दवाओं के सैंपल फेल होते हैं, उनकी सूची जारी की जाती है, ताकि उनका स्टॉक बाजार से वापस मंगवाया जा सके। देश में जुलाई से नवंबर तक दवाओं के कुल 317 सैंपल फेल हुए। इनमें हिमाचल का आंकड़ा 112 है। जुलाई में दवाओं के 31 सैंपल फेल हुए थे, जिनमें हिमाचल में बनी 12 दवायें थीं। अगस्त में राष्ट्रीय स्तर पर 70 दवाओं के सैंपल फेल हुए थे, जिनमें हिमाचल के 20 सैंपल थे। सितंबर में देश भर में फेल हुए 59 दवा सैंपलों में हिमाचल की हिस्सेदारी 19 थी। अक्तूबर में 67 सैंपल फेल हुए थे, जिनमें हिमाचल का आंकड़ा 23 था, तो नवंबर में देश भर में दवाओं के 90 सैंपल फेल हुए थे, जिनमें से 38 दवायें हिमाचल में बनी थीं। हिमाचल प्रदेश फार्मा हब के नाम से मशहूर है।
इससे पहले जनवरी से जुलाई तक हिमाचल की 107 दवाओं के सैंपल जांच में फेल हुए थे। इससे फार्मा हब के नाम से मशहूर हिमाचल प्रदेश की छवि खराब हो रही है। हिमाचल में करीब 600 फार्मा कंपनियां सालाना 12,000 करोड़ रुपये से अधिक का कारोबार करती हैं। उत्तराखंड में इसी तरह के एक नकली दवा रैकेट का भंडाफोड़ किया गया था, जिसमें चॉक पाउडर वाली नकली दवाओं को सिप्ला जैसी प्रतिष्ठित फार्मा कंपनियों की दवा के रूप में पेश किया जा रहा था। नकली दवाओं से शायद ही कोई राज्य अछूता है। पिछले महीने महाराष्ट्र में भी भारी मात्रा में नकली एंटीबायोटिक दवाओं को जब्त किया गया था।
पिछले सप्ताह भारतीय मीडिया में दो खबरें सुर्खियों में रही थीं। पहली खबर एंटीबायोटिक सहित नकली दवाओं की आपूर्ति के आरोप में कुछ लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किए जाने से जुड़ी थी। इन लोगों पर आरोप है कि वे महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और झारखंड में सरकारी अस्पतालों को घटिया एवं नकली दवाओं की आपूर्ति कर रहे थे। जो गोलियां और टैबलेट अस्पतालों को भेजी गई थीं, उनमें ज्यादातर टैल्कम पाउडर और स्टार्च से तैयार की गई थीं। उनमें कोई औषधीय रसायन था ही नहीं। घटिया और नकली दवाओं की समस्या केवल भारत में ही नहीं है। कुछ वर्ष पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अनुमान जताया था कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों के बाजारों में बिक रहे 10 चिकित्सा उत्पादों (ज्यादातर दवाएं या टीके मगर स्वास्थ्य उपकरण भी) में से कुछ घटिया या ‘फर्जी’ की श्रेणी में आते हैं। भारत अपनी वर्तमान प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से निम्न मध्यम आय वाले देशों में आता है। यह समस्या विकसित या उच्च-आय वाले देशों में भी थोड़ी-बहुत है।
घटिया और नकली दवाएं कई कारणों से देश की आर्थिक उत्पादकता एवं वृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। इन प्रभावों की पड़ताल के लिए एशिया, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका के देशों में कई अध्ययन किए गए हैं। हैरत की बात है कि इस विषय पर भारत में ऐसा एक भी अध्ययन नहीं हुआ है, जो विस्तृत हो या बड़े पैमाने पर नमूने लेकर किया गया हो।
तब भी यह समझने में विशेष कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि देश की अर्थव्यवस्था पर घटिया एवं नकली दवाओं का बड़ा असर क्यों होता है। ये दवाएं बीमारियां ठीक करने में कारगर नहीं होतीं और अक्सर लोगों को अधिक समय तक बीमार रखती हैं। कभी-कभी ये जानलेवा भी साबित होती हैं। इससे इलाज का खर्च बढ़ जाता है और कामकाज का नुक्सान भी होता है। इससे नौकरी जा सकती है और इलाज के लिए कर्ज भी लेना पड़ जाता है।
जिस देश में इलाज के लिए एक बार अस्पताल में भर्ती होने पर ही देश की बड़ी आबादी की माली हालत खस्ता हो जाती है वहां ऐसी दवाओं की वजह से भारी संख्या में लोग गरीबी के जंजाल में फंस जाते हैं। घटिया और नकली दवाएं किसी भी उम्र के लोगों की जान ले सकती हैं मगर नवजात शिशुओं और बुजुर्गों के लिए ये ज्यादा खतरनाक होती हैं। इनसे लोगों की सेहत को दीर्घकालिक खतरे भी बढ़ जाते हैं जैसे बीमारियों से लड़ने की क्षमता कमजोर होना या दवाओं का रोगाणुओं पर बेअसर होना। ये दोनों समस्याएं दूर हो सकती हैं, बशर्ते केंद्र एवं राज्य सरकारें ऐसा करने के लिए तत्पर हों। राज्यों में बुनियादी क्षमता और विकास करने की बात हो या दोषियों को सजा देने वाले कड़े कानूनों का अभाव हो, दुर्भाग्य से भारतीय नीति निर्धारकों ने स्वास्थ्य सेवाओं को हमेशा कम प्राथमिकता दी है।