चुनाव क्षेत्रों का ‘परिसीमन’
लोकसभा चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन के मुद्दे पर जिस प्रकार देश उत्तर और दक्षिण…
लोकसभा चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन के मुद्दे पर जिस प्रकार देश उत्तर और दक्षिण में बंट रहा है वह भारत की एकता व अखंडता के लिए किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। सवाल यह खड़ा हो रहा कि यदि जनसंख्या को आधार बनाकर चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन होता है तो इससे दक्षिण के राज्य घाटे में रहेंगे और उत्तर के राज्य लाभ में होंगे क्योंकि पिछले दो दशकों में जहां उत्तर भारतीय राज्यों की जनसंख्या बढ़ी है वहीं दक्षिण के राज्यों जनसंख्या घटी है। यह विवाद इतना बढ़ रहा है कि गत रविवार को इस मुद्दे पर विचार करने के लिए दक्षिण के राज्यों के नेताओं की एक बैठक चेन्नई में तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री श्री एम.के.स्टालिन के नेतृत्व में बुलाई गई। इस बैठक में पंजाब के मुख्यमन्त्री भगवन्त सिंह मान ने भी भाग लिया और ओडिशा के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री नवीन पटनायक ने इस बैठक को वीडियो द्वारा सम्बोधित किया।
प्रश्न यह है कि जब अभी तक लम्बित देश में जनगणना ही नहीं हुई है तो परिसीमन किस आधार पर हो सकता है। दक्षिण के राजनैतिक दलों को डर है कि केन्द्र सरकार परिसीमन अनुमानित जनसंख्या आंकड़ों के आधार (प्रो-रेटा) पर कर सकती है। चुनाव क्षेत्रों का पिछला परिसीमन 1971 की जनगणना के आधार पर हुआ था जिसमें लोकसभा की सीटें 522 से बढ़ाकर 545 की गई थीं। इसके बाद परिसीमन नहीं किया गया और 2001 में हुई जनगणना के बाद 2002 में केन्द्र में वाजपेयी सरकार ने इसी परिसीमन को 25 वर्ष आगे तक के लिए स्थिर रखा। इस हिसाब से नया परिसीमन 2026 में होना चाहिए। मगर देश में हर दस वर्ष बाद जनगणना होती है। पिछली जनगणना 2011 में हुई थी जिसमें जातिगत गणना भी शामिल थी। अतः अगली जनगणना 2021 में होनी चाहिए थी जो कोरोना महामारी के चलते मुल्तवी कर दी गई। केन्द्र ने अभी तक स्पष्ट नहीं किया है कि वह जनगणना कब करायेगा मगर गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने यह जरूर कहा है कि नये परिसीमन में दक्षिण के राज्यों की लोकसभा सीटों की संख्या प्रो रेटा आधार पर नहीं घटेगी। दक्षिण के राज्यों को डर है कि यदि केन्द्र सरकार बिना नई जनगणना कराये ही प्रो रेटा आधार पर परिसीमन करता है और जनसंख्या को आधार बनाता है तो उत्तर भारत के राज्यों की लोकसभा सीटें बढ़ जाएंगी क्योंकि इन राज्यों ने अपनी आबादी घटाने पर जोर नहीं दिया जबकि दक्षिण के राज्यों ने यह कार्य सफलतापूर्वक किया।
अतः दक्षिण के राज्य मांग कर रहे हैं कि परिसीमन केवल जनसंख्या के आधार पर ही नहीं किया जाना चाहिए बल्कि इसके लिए अन्य विकास मूलक व क्षेत्रफलीय मापकों पर भी विचार किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में दक्षिण के राज्यों का हिस्सा 36 प्रतिशत है अतः लोकसभा में इसी अनुपात में सीटों का बंटवारा भी होना चाहिए। एेसी मांग तेलंगाना की भारत राष्ट्र समिति के नेता टी. रामाराव ने की। फिलहाल लोकसभा में दक्षिण के पांच राज्यों की 130 के लगभग सीटें हैं जो कुल लोकसभा सीटों की 24 प्रतिशत हैं। 2026 में सीटों का परिसीमन संवैधानिक रूप से हो जाना चाहिए। क्योंकि 2002 में वाजपेयी सरकार ने संसद में प्रावधान किया था कि सीटों की संख्या अगले 25 वर्षों तक स्थिर ही रहेगी। अब दक्षिण के राज्य मांग कर रहे हैं कि सीटों की संख्या के स्थायीकरण को अगले 25 वर्षों तक स्थिर रखा जाये और संसद इस बारे में प्रस्ताव पारित करे।
1971 में जब जनगणना के बाद लोकसभा की सीटें 522 से बढ़कर 545 हुई थी तो इनका आधार जनसंख्या को बनाया गया था और मैदानी क्षेत्रों में 10 लाख 11 हजार जनसंख्या पर एक लोकसभा सीट मुकर्रर की गई थी। जाहिर है कि जनसंख्या का यह आधार नये परिसीमन में नहीं रखा जा सकता है क्योंकि देश की आबादी 1971 के मुकाबले अब बढ़कर लगभग दुगनी 140 करोड़ से ऊपर हो चुकी है। यदि 10 लाख को ही आधार बनाया जाये तो अकेले उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड से लोकसभा की सीटों की संख्या 85 से बढ़कर 250 हो जाएगी और तमिलनाडु की सीटें 39 से बढ़कर 76 हो जाएंगी तथा बिहार व झारखंड की सीटें 54 से बढ़कर 169 हो जाएंगी और केरल की 20 से बढ़कर 36 हो जाएंगी। इस प्रकार सभी राज्यों की सीटें बढें़गी और कुल एक हजार से ऊपर चली जाएंगी जबकि नई लोकसभा में कुल 888 सांसद ही बैठ सकते हैं। मगर जनसंख्या का आधार अगर दुगना 20 लाख कर दिया जाये तो लोकसभा सीटों की संख्या बढ़कर 707 होगी इस फार्मूले के तहत दक्षिण के राज्यों को नुक्सान होगा। केरल की सीटें 20 से घटकर 18 ही रह जाएंगी हालांकि तमिलनाडु की 39 की 39 ही रहेंगी। मगर उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड की सीटें 85 से बढ़कर 126 हो जाएंगी।
जाहिर है कि लोकसभा में 20 लाख पर एक सांसद देने से दक्षिण के राज्यों को नुक्सान होगा और उत्तर भारत के राज्यों को लाभ होगा। इसीलिए दक्षिणी राज्य जनसंख्या आधार पर परिसीमन का विरोध कर रहे हैं और कह रहे हैं कि इसका आधार अन्य मापकों के अनुसार भी होना चाहिए जिससे लोकसभा में उनका राजनैतिक प्रतिनिधित्व न घटे। जाहिर है कि राज्यों की सीटें बढ़ने का असर राज्यसभा पर भी पड़ेगा। इस पर भी विचार होना चाहिए। राष्ट्रीय एकता के लिए जरूरी है कि दक्षिणी राज्यों को भी केन्द्र सरकार विश्वास में लेकर परिसीमन के कार्य को अंजाम दे। एक विचार यह भी है कि परिसीमन से पहले देश के सभी प्रमुख क्षेत्रीय व राष्ट्रीय दलों की सर्वदलीय बैठक बुलाकर इस पर आम सहमति कायम की जाये जिससे भारत की एकता और मजबूत हो।