ध्वस्त मणिपुर : पुनर्निर्माण की ओर !
गृहमंत्री अमित शाह ने सुरक्षा बलों को 8 मार्च तक का समय दिया है कि वे मणिपुर की सभी..
गृहमंत्री अमित शाह ने सुरक्षा बलों को 8 मार्च तक का समय दिया है कि वे मणिपुर की सभी सड़कों पर लोगों की स्वतंत्र आवाजाही सुनिश्चित करें। संयोगवश, 8 मार्च को विश्वभर में महिला दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। इसलिए, यह मणिपुर की महिलाओं के लिए एक उपयुक्त अवसर है कि वे सरकार से पूछें-क्या यह दिन उन्हें सुरक्षा और संरक्षा का उपहार देगा? क्या यह राहत शिविरों को खाली करवाएगा और विस्थापितों को उनके घरों में लौटने की गारंटी देगा, भले ही उनके घरों का जो भी अंश शेष रह गया हो? मई 2023 में भड़की हिंसा में राज्यभर में सैकड़ों घर जलाकर राख कर दिए गए थे, और असंख्य परिवार विस्थापित हो गए। इस त्रासदी की सबसे ज़्यादा पीड़ित महिलाएं रहीं।
राज्य में मैतेई और कुकी समुदायों के बीच लंबे समय से हिंसक झड़पें होती रही हैं। वर्तमान संकट की जड़ राज्य के उच्च न्यायालय की वह सिफारिश है जिसमें मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की बात कही गई थी। कुकी समुदाय ने इसका विरोध किया क्योंकि उन्हें लगा कि इससे मैतेई समुदाय को पहाड़ी क्षेत्रों पर नियंत्रण का लाभ मिलेगा। “वे धनबल का उपयोग कर हमारी ज़मीन छीन लेंगे और हमारे रोजगार भी हड़प लेंगे,” थांगसो (परिवर्तित नाम) कहते हैं, जो तब से आत्मरक्षा के लिए एक बंदूक रखते हैं।
कुकी-ज़ो जनजातियां अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाकर संरक्षित हैं। भारत सरकार इसी माध्यम से ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर रहे जनजातीय समुदायों को मान्यता देती है। मैतेई समुदाय, जो राज्य की बहुसंख्यक आबादी है, हिंदू धर्म का पालन करता है और मुख्य रूप से राजधानी इम्फाल में बसता है। कुकी और नागा अल्पसंख्यक हैं, जो मुख्यतः ईसाई हैं और पहाड़ी इलाकों में निवास करते हैं। भारतीय संविधान मणिपुर के पहाड़ी ज़िलों में भूमि संरक्षण का प्रावधान करता है। इस विशेष प्रावधान के तहत मैतेई समुदाय पहाड़ी क्षेत्रों में ज़मीन नहीं खरीद सकता और उनकी वहाँ बसने की संभावनाएं सीमित हैं। मैतेई समुदाय महसूस करता है कि उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा न मिलना अन्यायपूर्ण है। वे यह भी चिंता जताते हैं कि म्यांमार से आए अवैध प्रवासियों की संख्या बढ़ रही है।
मणिपुर की अंतर्राष्ट्रीय सीमा काफी संवेदनशील और खुली है। जब म्यांमार में गृह युद्ध छिड़ा, तो वहां के नागरिक मणिपुर की ओर पलायन कर गए। 1 फरवरी 2021 को म्यांमार में सेना ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया था। रिपोर्टों के अनुसार, कुकी समुदाय म्यांमार से आए चिन प्रवासियों को शरण दे रहा है। म्यांमार में कुकी समुदाय को चिन नाम से जाना जाता है। यदि मैतेई समुदाय जनसंख्या संतुलन के बदलाव को लेकर चिंतित है, तो कुकी समुदाय उन पर बहुसंख्यकवादी एजेंडा थोपने का आरोप लगाता है।
वर्तमान संकट से परे, मणिपुर की हिंसा का एक रक्तरंजित इतिहास रहा है। साठ के दशक से ही सशस्त्र गुटों ने कुकी और नागा समुदायों की असंतोषजनक स्थिति को भुनाने का प्रयास किया है, जो अपने लिए एक अलग मातृभूमि की मांग कर रहे हैं। दूसरी ओर, मैतेई समुदाय राज्य की क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए कटिबद्ध है।
हिंसा के इस चक्र को राष्ट्रीय स्तर पर तब गंभीरता से लिया गया जब दो आदिवासी महिलाओं को निर्वस्त्र कर घुमाने का एक वीभत्स वीडियो सामने आया। महिलाओं को भीड़ द्वारा पीटा गया, उनके साथ यौन उत्पीड़न किया गया। यह त्रासदी का एक पक्ष था। दूसरा और कहीं अधिक भयावह पक्ष यह था कि अपराध में महिलाओं की भी भागीदारी देखी गई।
कुकी-ज़ो महिलाओं के विरुद्ध अपराध नामक एक दस्तावेज़ में महिलाओं पर हुई भयावह हिंसा के हृदयविदारक विवरण दर्ज हैं। इस दस्तावेज़ में उल्लेख किया गया है कि मैतेई उग्रवादियों ने कुकी-जो महिलाओं को निशाना बनाया और भीड़ को उकसाते हुए कहा, “इसके साथ वही करो, जो इसके लोगों ने हमारी महिलाओं के साथ किया।” इसका सीधा अर्थ था-बलात्कार, जलाना और हत्या।
इस संकट को महिलाओं की बहुआयामी भूमिकाओं के परिप्रेक्ष्य में देखना अनुचित नहीं होगा। यहां महिलाएं न केवल पीड़िता के रूप में सामने आईं, बल्कि कई बार हिंसा की सूत्रधार भी बनीं। ऐसी कई घटनाएं दर्ज हैं जहां जातीय निष्ठा ने लैंगिक एकता को पीछे छोड़ दिया। महिलाओं द्वारा महिलाओं की रक्षा करने का भाव कब महिलाओं पर ही आक्रमण में बदल गया, इसका भान तक नहीं हुआ। समुदाय के प्रति प्रेम ने स्त्रीत्व की सामूहिक भावना को पराजित कर दिया। एक-दूसरे की रक्षा करने के बजाय, महिलाएं स्वयं हिंसा की कारक बन गईं।
“मशाल वाहक” के रूप में पहचानी जाने वाली मैरा पैबिस एक जातीय महिला-नेतृत्व वाली सामाजिक आंदोलनकारी शक्ति हैं, जो विशेष रूप से सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (अफ्सा) के विरोध के दौरान प्रभाव में आईं। यह अधिनियम सेना को अपार शक्तियां प्रदान करता है। यदि कुकी समुदाय की बातों को आधार माना जाए, तो मैरा पैबिस अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के साथ हो रहे कुछ बलात्कारों को उकसाने में भूमिका निभा रही हैं।
दूसरी ओर, मैरा पैबिस की सदस्य इन आरोपों को सिरे से खारिज करती हैं। उनका कहना है कि महिला संगठनों की दृष्टि में कुकी और मैतेई का भेदभाव नहीं होता, बल्कि वे महिलाओं के कल्याण के लिए एकजुट होकर काम करती हैं। आरोप और प्रत्यारोप, अभियोग और खंडन के बीच एक बात स्पष्ट है-व्यापक भय और आघात का स्थायी वातावरण।दरारें गहरी हैं और अविश्वास पूर्णतः व्याप्त है। राज्य और केंद्र, दोनों ही सरकारें इस समूचे घटनाक्रम की मूकदर्शक बनी रहीं। मुख्यमंत्री बीरेन सिंह इस अशांति में अपनी संलिप्तता को लेकर आलोचनाओं के घेरे में रहे।
यदि अविश्वास प्रस्ताव का खतरा मंडराता न होता, तो संभवतः बीरेन सिंह पद पर बने रहते। लेकिन विधानसभा में बहुमत खोने की संभावना उनके पतन का कारण बनी। कांग्रेस ने आगामी सत्र में अविश्वास प्रस्ताव लाने की योजना बनाई थी। उनके इस्तीफे के बाद भाजपा उनकी जगह नए नेता पर सहमति नहीं बना पाई। चार दिन बाद केंद्र सरकार ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की घोषणा कर दी। राष्ट्रपति शासन लागू किया जाना एक मिश्रित परिणाम है। यह एक साथ चुनौती भी है और अवसर भी। अवसर इस अराजकता को समाप्त करने का, गलतियों को सुधारने का। और चुनौती यह है कि परस्पर संघर्षरत समुदायों के बीच सुलह कराई जाए।
यह एक कठिन कार्य है-कहना आसान है, करना कहीं अधिक दुष्कर। कई प्रश्न सामने नज़ार आ रहे हैं -क्या लोग अब चैन की सांस ले पाएंगे? क्या आशा की कोई किरण शेष है? क्या संघर्षरत समूह आपसी समझौते तक पहुंच पाएंगे? क्या वे आपस में मिलनसार हो पाएंगे, या एक-दूसरे के रक्त के प्यासे बने रहेंगे? क्या कोई समाधान संभव है? क्या इन घावों पर मरहम लगाया जा सकेगा? क्या वे कभी भर पाएंगे, या यूं ही नासूर बने रहेंगे?और सबसे महत्वपूर्ण-क्या राज्य यूं ही जलता रहेगा? क्या शांति मात्र एक दूर का सपना है? और क्या यह विभाजन अब एक अटल सच्चाई बन चुका है? इन प्रश्नों के आसान उत्तर नहीं हैं। कम से कम अभी तो नहीं।