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चीनी सत्ता पर सवार तानाशाह

तानाशाह आसमान से नहीं आते बल्कि इसी धरा से आते हैं।

12:54 AM Oct 18, 2022 IST | Aditya Chopra

तानाशाह आसमान से नहीं आते बल्कि इसी धरा से आते हैं।

चीनी सत्ता पर सवार तानाशाह
तानाशाह आसमान से नहीं आते बल्कि इसी धरा से आते हैं। दुनिया अब तक कई तानाशाहों को देख चुकी है। अब चीन के इतिहास में माओत्से तुंग के बाद सबसे ताकतवर नेता के तौर पर उभरे शी जिनपिंग को एक तानाशाह के रूप में स्थापित हो चुके नेता के रूप में देखा जा रहा है। उनका आजीवन राष्ट्रपति बने रहना तय है। चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष पद की कमान वह तीसरी बार संभालने जा रहे हैं। अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए वह अपनी पार्टी का संविधान तक बदल चुके हैं। वर्ष 2018 में यही अहम बदलाव था जिसके बाद चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष के दो कार्यकाल वाले नियम को बदल दिया गया था। शी जिनपिंग की पार्टी पर पकड़ इतनी मजबूत है जो उन्हें पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के संस्थापक माओ के स्तर तक ले जाती है। शी जिनपिंग की कुशल रणनीति के चलते उनके बराबर कोई नेता नहीं पनपा। उन्होंने 2012 से ही राजनीति में ऐसा कदम रखा कि दस वर्ष बाद उनका कोई विकल्प सामने नहीं दिख रहा। कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस में शी जिनपिंग के संबोधन का विश्लेषण करना जरूरी है। शी​ जिनपिंग का संबोधन उनके युद्ध उन्मादी होने का ही सीधा संकेत दे रहा है। शी जिनपिंग ने दो टूक शब्दों में कहा कि चीनी सेना ट्रेनिंग और युद्ध की तैयारी पर पहले से ज्यादा जोर देगी जिसका उद्देश्य युद्ध लड़ने और उसे जीतने के उद्देश्य को बढ़ाना है। गलवान घाटी में भारत और चीन की सेनाओं के बीच हुई खूनी झड़प का वीडियो भी इस सम्मेलन में दिखाया गया।
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शी द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट में एक विशेष चैप्टर में पीएलए के केंद्रीय लक्ष्य को हासिल करना और राष्ट्रीय रक्षा, सेना को अति आधुनिक बनाने का लक्ष्य रखा गया है। पूर्वी लद्दाख सीमा पर भारत और चीन में गति​रोध अभी भी बरकरार है। 16 दौर की बातचीत के बाद भी सीमा के कई बिंदुओं को सुलझाया जाना बाकी है। इसलिए चीन की सैन्य योजना भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। शी ने वर्ष 2027 में चीनी सेना के 100 साल पूरे होने के अवसर पर सारे लक्ष्य पूरे करने की ठानी है। ताइवान पर भी शी ने कड़ा रुख अपनाया है। शी जिनपिंग की सोच विस्तारवादी और तानाशाही के करीब है। चीन कम्युनिस्ट देश है, वहीं भारत एक धुर लोकतांत्रिक देश है। एशिया में चीन को टक्कर देने वाला एकमात्र देश भारत ही है। जुलाई 2021 में कम्युनिस्ट पार्टी ने 100 वर्ष पूरे किए थे उस समय शी जिनपिंग ने वादा किया था कि वह ताइवान को चीन के साथ मिलाकर रहेंगे। साथ ही उन्होंने ताइवान के आजादी हासिल करने के किसी भी तरह के प्रयासों को कुचलने की बात कही थी। ताइवान को लेकर अमेरिका और  चीन में जबर्दस्त टकराव है। अगस्त में जब अमेरिकी स्पीकर नैंसी ताइवान पहुची ​थी तो चीनी सेना ने सबसे बड़ा सैन्य अभ्यास शुरू कर दिया था। शी जिनपिंग के दिमाग में क्या है इस बात का अनुमान लगाना तो कठिन है, लेकिन यह स्पष्ट है कि वह ताइवान पर सैन्य कार्रवाई करने से परहेज नहीं करेगा? शी जिनपिंग जिस तरह से सर्वाधिक शक्तिशाली नेता के तौर पर उभरे हैं उसके पीछे उनकी आक्रामक नीतियां रही हैं। दस वर्ष में उन्होंने ड्रैगन को ‘भेड़िया’ बना दिया। शी जिनपिंग ने हमेशा अमेरिका और उनके मित्र देशों के प्रति काफी हमलावर रुख अपनाया है। विदेश नीति के पूर्व नेता देंग शिया ओपिंग मानते थे “अपनी ताकत को छिपा कर अपना समय बिताने की कोशिश करें।” लेकिन शी जिनपिंग अपनी ताकत का प्रदर्शन करने में यकीन रखते हैं। घरेलू स्तर पर उन्होंने चीन में राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हिंद प्रशांत क्षेत्र में चीन का दूसरे देशों से टकराव कोई नया नहीं है। चीन साउथ चाइना समुद्र के कुछ हिस्से पर अपना दावा जताता है। चीन ने समुद्र के क्षेत्र में कई कृत्रिम द्वीप बनाए हैं। चीन द्वारा भारत की घेराबंदी करना भी कोई नया नहीं है। पिछले 10 वर्षों के दौरान भारत और चीन के संबंधों में कड़वाहट बनी रही है। 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद 2-3 वर्ष तक संबंध मधुर रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन यात्रा की थी और शी जिनपिंग भी भारत आए थे लेकिन दोनों पक्षों में डोकलाम को लेकर विवाद शुरू हो गया था। दोनों देशों के संबंधों में विरोधाभास भी है। एक तरफ भारत और चीन में सीमा विवाद जारी है तो दूसरी तरफ दोनों देशों में व्यापार लगातार बढ़ रहा है। अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि शी जिनपिंग के सर्वाधिक शक्तिशाली बनने के बाद आगे क्या होगा? क्या स्थितियों में कुछ बदलाव आएगा? चीन की राजनीति पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों की राय है कि अगले पांच वर्षों में कुछ नया नहीं होने वाला और  न ही उससे कोई उम्मीद की जानी चाहिए। मानवाधिकारों को कुचलने के मामले में चीन का रिकॉर्ड काफी खराब है। सोशल मीडिया पर चीन में आक्रोश की खबरें भी आ रही हैं। चीन के लोगों को अभी शी जिनपिंग के दमन से मुक्ति नहीं मिलने वाली।
जहां तक भारत-चीन संबंधों का सवाल है उन्हें लेकर भी कोई ज्यादा उम्मीद नहीं पालनी चाहिए। दुनियाभर में नए समीकरण बनते बिगड़ते दिखाई दे रहे हैं। यूक्रेन रूस युद्ध के बाद चीन रूस के नजदीक ज्यादा दिखाई दिया। भारत अमेरिका के करीब आने से भी चीन परेशान है। पाकिस्तान के मामले में भी चीन का रवैया काफी नरम है, क्योंकि वह पीओके में आर्थिक गलियारा बना रहा है। भारत की अमेरिका से निकटता को चीन अपने लिए खतरा मानता है। वास्तविकता यह है कि चीन खुद को एशिया का लीडर मानता है और वह किसी को अपने बराबर नहीं मानता। भारत को आने वाले दिनों में अपनी सामरिक नीतियों को लेकर काफी सतर्क होकर चलना होगा। मधुर संबंधों की उम्मीद लगाना एक सपना ही होगा।
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