दीपावली : अंधेरे से प्रकाश तक
आज दीपावली महोत्सव है। भारतीय संस्कृति में जितने भी पर्व या उत्सव होते हैं उन सब में दीपावली का स्थान अति विशिष्ट है क्योंकि यह अंधकार से उजाले की तरफ जाने का त्यौहार है। भारत में जितने भी धर्म जन्मे हैं वे सभी दीपावली को किसी न किसी रूप में मनाते हैं। हिन्दू धर्म की जितनी भी शाखाएं हैं वे सभी दिवाली के महत्व को स्वीकार करती हैं। वास्तव में दीप मालिका का सन्देश मनुष्य के कर्मशील बनने का है जो कि भारतीय संस्कृति का भौतिक स्वरूप है। इस पर्व पर सुनाई जाने वाली कहानी गृहलक्ष्मी की महत्ता को बताती है और पाश्चात्य संस्कृति से अलग नारी शक्ति का गुणगान करती है। स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर घर की गाड़ी को किस युक्ति से खींचे, इसका सन्देश भी दिवाली का पर्व देता है। आज रात्रि को पूजन के समय जो कहानी कही जाती है वह विपन्न व गरीबी की मार सह रहे एक व्यक्ति की होती है जिससे उसकी पुत्रवधू अपनी बुद्धि चातुर्य से निजात दिलाती है। भारत में कही जाने वाली लोक-कथाओं में व्यावहारिक जीवन का सच छिपा पड़ा है। यही वजह है कि 1932 के करीब राष्ट्रिपता महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत के लोग गरीब व अनपढ़ हो सकते हैं मगर वे मूर्ख नहीं हैं। यह उन्होंने तब कहा था जब आजादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी ने यह तय किया था कि स्वतन्त्र भारत में सारे जातिगत या सम्प्रदायगत भेदों को भूलकर प्रत्येक वयस्क स्त्री- पुरुष को एक समान रूप से वोट देने का अधिकार मिलेगा। हम भारतीय प्रत्येक बड़े पर्व के साथ एक लोक कहानी को जोड़ कर चलते हैं।
दिवाली की कहानी भी हमें यही बताती है कि किस तरीके से विपन्नता को एक गृहलक्ष्मी सम्पन्नता में बदलती देती है। कहानी में एक पुत्रवधू अपने ससुर के माध्यम से पूरे परिवार को कर्मशील बनाती है और घर में मतैक्य कायम करती है। परिवार तभी इकट्ठा रह सकता है जब उसमें मतैक्य हो जाये और इसी आधार पर स्त्री-पुरुष दोनों को अधिकार सम्पन्न किया जाये। इसमें भी घर में सुख-शान्ति बनाये रखने की जिम्मेदारी गृहलक्ष्मी उठाये। यदि हम गौर से विश्लेषण करें तो भारत में लोकतन्त्र सबसे पहले घर से ही शुरू होता है। दीपावली की कहानी में गरीब ब्राह्मण व्यक्ति का परिवार कलह और स्वच्छन्दता का पर्याय था। इस घर की नववधू जब यह देखती है तो वह इसका कारण जान जाती है क्योंकि केवल ससुर को छोड़कर इस परिवार के सभी पुरुष सदस्य महा-आलसी व निखट्टू थे। वधू अपने ससुर को इस बात के लिए राजी कर लेती है कि घर का प्रत्येक पुरुष कुछ कर्म करने के लिए घर से बाहर निकले और वापस घर में खाली हाथ न आये। यदि कुछ काम न भी मिले तो वह बेशक मिट्टी या ईंधन की लकड़ी लेकर ही आये लेकिन उसके हाथ खाली न हों। इस नियम के चलते ही एक दिन उसका ससुर मरा हुआ सांप लेकर घर में आता है और सुदृढ़ बहू अपने ससुर से उसे छत पर फेंक देने के लिए कहती है। इसी से वह घटना जुड़ी होती है जिसमें उस राज्य के राजा की रानी का हार गुसलखाने में लगी खूंटी से गायब हो जाता है और एक चील उसे अपनी चोंच में भरकर गायब हो जाती है तथा गरीब ब्राह्मण की छत पर पड़े हुए मरे सांप को देखकर हार को अपनी चोंच से छोड़ कर मरे सांप को ले जाती है। मेरा उद्देश्य कहानी सुनाने का नहीं है बल्कि इसके पीछे छिपे सन्देश को बाहर लाने का है और सन्देश यही है कि केवल कर्मशील व्यक्ति ही जीवन के भौतिक सुखों का आनन्द ले पाता है। हिन्दू धर्म में लोक कहानियों के पीछे कहीं न कहीं बहुत बड़ा सन्देश होता है। अतः जो लोग कर्मकांड को केवल ढोंग समझते हैं उन्हें सबसे ज्यादा इन्हीं प्रचिलित कहानियों के महत्व को समझना चाहिए। ये सन्देश पूरे समाज को एकता के सूत्र में बांधने का ही होता है मगर यह एकता सबसे पहले परिवार से ही शुरू होती है। अतः यह लोकोक्ति,
जहां सुमति तहां सम्पत्ति नाना
जहां कुमति तहां विपत्ति विधाना
परिवार में सुमति और मतैक्य कायम करने में गृलक्ष्मी की भूमिका ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। यह सुमति परिवार में बनाने का काम भी गृहलक्ष्मी ही करती है। एेसा वह परिवार के सभी सदस्यों की सहमति से करती है अर्थात परिवार में मतैक्य का होना उसके आगे बढ़ने की शर्त होती है। लोकतन्त्र में भी इसी रास्ते पर चलकर पूरे देश में सुख-समृद्धि प्राप्त की जाती है। हमारी संसद से लेकर विधानसभाओं तक में अलग-अलग विचारधारा वाले दल बैठते हैं।
बेशक चुनावों में वे एक-दूसरे का कड़ा विरोध करते हुए निर्वाचित सदनों में आते हैं मगर जब एक बार कोई व्यक्ति सांसद या विधायक बन जाता है तो विपक्ष में बैठे जनप्रतिनिधियों के मूल अधिकार वही होते हैं जो कि सत्तारूढ़ दल के सदस्यों के होते हैं। इसीलिए संसदीय प्रणाली में चुने हुए सदनों के भीतर विपक्ष व सत्ता पक्ष के बीच किसी भी विषय पर मतैक्य कायम करने की कोशिश की जाती है। इसी वजह से सरकार द्वारा पेश किये गये विधेयकों पर चर्चा की जाती है। इस चर्चा या बहस के दौरान एेसे बिन्दू उभरते हैं जिनमें सत्ता व विपक्ष के बीच समता भी होती है जबकि सरकार केवल बहुमत पाने वाले दल की ही बनती है। अतः भारतीय संस्कृति की आधारशिला में ही लोकतन्त्र के बीज पड़े हुए हैं। दीपावली को गरीब ब्राह्मण परिवार पर धन की देवी लक्ष्मी की तभी कृपा होती है जब पूरा परिवार कर्मशील बन जाता है। यह कर्मशीलता या उद्यमता ही परिवार से लेकर देश तक को समृद्धि देते हैं। दीपावली पर दीप जलाना कोई ढोंग नहीं है, बल्कि यह समाज की उद्यमता का परिचायक भी है। निश्चित रूप से प्रकाश हमें आगे की ओर ले जाता है और आलस्य त्यागकर अपने चारों तरफ फैले अवसरों को दिखाता है। कोई राष्ट्र तभी आगे बढ़ सकता है जब उसके लोग उद्यमशील हों। आज भारत में समस्याओं का अम्बार लगा हुआ है। दलितों पर अत्याचार की हृदय विदारक घटनाएं हम आज भी सुनते हैं। एेसी जातिवाद से भरी मानसिकता अंधेरे का ही पर्याय है। हर वर्ष दीपावली आती है और हम राम राज्य की बातें करने लगते हैं मगर वह राज तभी आयेगा जब हम अपने भीतर में बैठे अंधेरे को दूर करते हुए समतामयी समाज के प्रकाश की तरफ बढ़ेंगे।