उत्तर-दक्षिण का विवाद व्यर्थ
भारत में उत्तर-दक्षिण की राजनीति का विवाद तभी से सुर्खियों में आया है जब से राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस पार्टी कमजोर होनी शुरू हुई है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के राष्ट्रीय आन्दोलन में कांग्रेस पार्टी देश की सभी क्षेत्रीय ‘उप- राष्ट्रीयताओं’ को खुद में समाहित करते हुए चलती थी और सभी ऐसी उप-राष्ट्रीयताओं के प्रमुख नेता इसके ‘राष्ट्रीय नेता’ थे परन्तु 1967 में हालांकि देश के नौ राज्यों में कांग्रेस का स्पष्ट बहुमत नहीं आ पाया मगर सर्वाधिक मुखरता दक्षिण के तमिलनाडु राज्य ने दिखाई जहां राज्य की क्षेत्रीय पार्टी ‘द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम’ ने कांग्रेस को बुरी तरह हराया और स्व. सी.एन. अन्नादुरै के नेतृत्व में अपनी मजबूत सरकार बनाई। 1967 में लोकसभा व विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे। राजनीति में बदलाव की जिज्ञासा उस समय लोगों में इस कदर थी कि तमिलनाडु से ही कांग्रेस के महाप्रतापी माने जाने वाले और देश को दो बार प्रधानमन्त्री देने वाले राष्ट्रीय नेता स्व. कामराज नाडार भी अपनी ‘नागरकोइल’ लोकसभाई सीट से चुनाव हार गये।
उत्तर और पूर्वी भारत में भी यही बदलाव का ज्वार लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था और उत्तर प्रदेश से लेकर प. बंगाल व मध्य प्रदेश, बिहार के साथ पंजाब, हरियाणा में भी कांग्रेस पार्टी बहुमत से पिछड़ गई। मगर इन सभी राज्यों में केवल पंजाब को छोड़ कर शेष सभी में कांग्रेसी विधायकों ने ही विद्रोह करके पार्टी से बाहर आकर अन्य विपक्षी दलों के विधायकों के साथ प्रादेशिक सरकारें बनाई जिन्हें ‘संयुक्त विधायक दलों’ की सरकारें कहा गया। मगर उत्तर और पूर्व के राज्यों में कांग्रेस के कमजोर होने का कारण अलग था जबकि दक्षिण में इसके हाशिये पर खिंचने के कारण पूरी तरह अलग थे। हालांकि श्री कामराज जल्दी ही तमिलनाडु में हुए एक लोकसभा उपचुनाव में जीत कर पुनः लोकसभा में आ गये और लोगों ने स्वीकार किया कि 1967 के चुनावों में उनसे गलती हो गई थी कि उन्होंने नागरकोइल सीट से श्री कामराज को हरा दिया परन्तु तमिलनाडु में भी इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी का रुतबा बहुत कम नहीं हुआ परन्तु 1977 में पहली बार उत्तर-दक्षिण की राजनीति में स्पष्ट रूप से शिखर विभाजन सामने आया जब स्व. इन्दिरा गांधी की इमरजेंसी के विरोध में पूरे उत्तर, पूर्व व पश्चिम भारत में कांग्रेस पार्टी का लगभग सफाया हो गया परन्तु दक्षिण भारत के तत्कालीन चारों राज्य उनके साथ चट्टान की तरह अभेद्य खड़े रहे और लोकसभा में कांग्रेस पार्टी की इन्हीं राज्यों के बूते और थोड़ा बहुत पूर्वी व पूर्वोत्तर राज्यों के बूते पर 153 सींटें आयी जबकि सत्तारूढ़ जनता पार्टी को 350 से ऊपर सीटें मिलीं।
उत्तर और दक्षिण की राजनीति में यह ऐसा ऐतिहासिक विभाजन था जिसके तार भारत के एक जमाने के इतिहास से भी जोड़े जा सकते थे और कहा जा सकता था कि विन्ध्याचल पर्वत के पार का भारत उत्तर के दिल्ली के शासकों के लिए दुर्गम रहा है। दक्षिणी राज्यों में से एक आन्ध्र प्रदेश में जनता पार्टी को केवल एक सीट स्व. नीलम संजीव रेड्डी की मिली थी जो बाद में देश के राष्ट्रपति भी बनाये गये और जिनकी राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर 1969 में कांग्रेस पार्टी ही दो भागों में इन्दिरा जी ने विभाजित कर दी थी।
1977 के चुनावों के बाद से देश की राजनीति में अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन के चलने की वजह से 90 के दशक में जो परिवर्तन आया उससे केवल कुछ अर्थों में कर्नाटक को छोड़ कर पूरा दक्षिण भारत अछूता रहा और यहां राम मन्दिर आन्दोलन की प्रवर्तक भारतीय जनता पार्टी का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसकी वजह सांस्कृतिक मानी जाती है क्योंकि दक्षिण के अधिकतर राज्य केवल तेलंगाना को छोड़ कर समुद्र के तटीय क्षेत्रों पर बसे हैं अतः इनके लोगों का सम्पर्क विश्व की अन्य संस्कृतियों के साथ समय-समय पर होता रहा है। यह बेवजह नहीं है कि केरल के तटीय क्षेत्र में आठवीं सदी में ही इस्लाम पहुंच गया था और मस्जिद बन गई थी। इसी प्रकार ईसाईयत भी यहां ईसा के जन्म के बाद इस धर्म के प्रसार काल में ही पहुंच गई थी। केरल के कोच्चि शहर में ही यहूदियों की अच्छी खासी संख्या थी जिसके अवशेष ‘ज्यू टाऊन’ के रूप में यहां आज भी मौजूद हैं और उनका धर्म स्थल ‘सिनेगाग’ भी है। कहने का मतलब यह है कि हिन्दू धर्म के व्यावाहरिक अर्थों में आदि शंकराचार्य की जन्म स्थली होने के बावजूद दक्षिण भारत के लोगों के हिन्दू संस्कार कभी भी हिंसक स्वरूप से आवेषित नहीं हुए और इन राज्यों के लोग अपनी भाषा व संस्कृति को सर्वोपरि रख कर अपने-अपने मजहब के रीति-रिवाजों का सौहार्दतापूर्वक पालन करते रहे जिसकी वजह से यहां मजहब के आधार पर लोगों में विभाजन किसी विशिष्ट मन्दिर के निर्माण को लेकर संभव ही नहीं हो सका।
कर्नाटक में भाजपा के पैर पसारने का प्रमुख कारण राम मन्दिर आन्दोलन के बहाने इस वजह से हुआ कि इसके बहुत से इलाके पूर्व के निजाम हैदराबाद की रियासत के अंग थे और यह महाराष्ट्र के शिवाजी राजे के प्रभाव क्षेत्र में भी आता था जिन्हें महाराष्ट्र की क्षेत्रीय पार्टी शिवसेना ने अपना नायक बना कर हिन्दुत्व का विमर्श गढ़ा था। इसी वजह से भाजपा नेता येदियुरप्पा के प्रयास यहां भाजपा को लाभांश दे गये। अब लोकसभा चुनाव आने वाले हैं और अभी से उत्तर-दक्षिण की राजनीति के बारे में चर्चा शुरू हो गई है। यह चर्चा व्यर्थ है क्योंकि दक्षिण के राज्य अपना मूल चारित्रिक स्वभाव नहीं बदल सकते क्योंकि उनकी समन्वित संस्कृति सबसे पहले मानवतावाद को ही सर्वोच्च रखती है। इसी वजह से वहां सबसे पहले हिन्दू समाज में दिलतों व पिछड़ों की स्थिति बदलने के लिए जमीनी आन्दोलन चले और सफलता के साथ सामाजिक परिवर्तन के प्रवाहक बने।