कब सीखेंगे कलाकारों-कलमकारों का सम्मान करना?
इन दिनों ‘लिटटेरी-फैस्टीवल का आयोजन भी ‘ईवैंट-मैनेजमेंट’ का एक भाग बन गया है। ‘लिट फेस्ट’ अर्थात ‘साहित्य पर्वों’ का आयोजन चंडीगढ़, कसौली और अनेक अन्य महानगरों में होता रहा है। कसौटी, चंडीगढ़ आदि उत्तर भारत के कुछ साहित्य पर्वों को करीब से देखने, सुनने का मौन भी मिला। मगर ऐसा नहीं लगा कि एक लेखक, कवि, साहित्य नुरागी अथवा कलाकार के रूप में सुपात्रों एवं सही पात्रों को एक करीने से याद किया जा सका हो। चंडीगढ़ में हर वर्ष आयोजित ‘मिल्ट्री लिट्रेचर फैस्टीवल’ में अनेक रिटायर्ड फौजी अफसर, कुछ ब्यूरोक्रेट्स और कुछ राजनेता भाग लेते हैं। अनेक पुस्तकों का लोकार्पण भी होता है। मगर इनमें अधिकांश पुस्तकें भारत-पाक युद्ध या भारत-चीन युद्ध पर ही केंद्रित रहती हैं। सेना की जिंदगी का माननीय चेहरा व संवेदनशीलता उभर ही नहीं पाती।
अब तक किसी भी ऐसे पर्व में सैनिक पृष्ठभूमि पर आधारित साहित्य की चर्चा नहीं हुई। हो सकता है कि किसी भी जनरल/रिटायर्ड जनरल ने चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विश्व-चर्चित कहानी ‘उसने कहा था’ के बारे में कभी भी कहा या सुना या पढ़ा ही न हो। यही स्थिति प्रख्यात कथाकार एवं नाटककार स्वदेश दीपक के नाटक ‘कोर्टमार्शल’ की है। इस नाटक का मंचन 110 बार चंडीगढ़ के ही टैगोर-थियेटर में हो चुका है और देश के लगभग सभी महानगरों, दिल्ली, कोलकाता, भोपाल, लखनऊ, मुम्बई और हैदराबाद में भी इसका मंचन हो चुका है। सभी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में इसकी चर्चा भी होती रही है, शोध-निबंध व शोध प्रबंध भी लिखे जा चुके हैं, मगर किसी ‘लिटरेरी फेस्टीवल’ में इसकी चर्चा नहीं हुई। यहां तक कि ब्रिटेन में युद्धमंत्री एवं प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के युद्ध-संस्मरणों (12 जिल्दों में) के बारे में कभी चर्चा उचित नहीं समझी गई।
‘लिट-फेस्ट’ अर्थात् साहित्य पर्व, जयपुर में कसौली में हुए तो वहां भी साहित्य को मध्य में रखने के स्थान पर कुछ ‘सियासी एजेंडों’ पर चर्चा को अधिमान दिया गया। केवल ‘शांति निकेतन’, ‘साहित्य अकादमी नई दिल्ली’ और भोपाल के भारत-भवन में आयोजित समारोहों का निर्वाह हो जाता है। उधर, पड़ौसी देश पाकिस्तान के कराची व लाहौर में आयोजित ‘साहित्य पूर्व’ अवश्य चर्चा का विषय बने हैं। अब कुछ इलेक्ट्रॉनिक चैनलों ने भी ऐसे पर्वों के आयोजन आरंभ किए हैं लेकिन वहां भी राजनैतिक-चर्चाएं और राजनीतिज्ञों की उपस्थितियां अधिक हावी रह जाती हैं। इसके विपरीत बहुत कुछ शब्दानुरागियों के बारे में कहा या सुना या देखा जा सकता था।
‘मिल्ट्री लिटरेचर फैस्टीवल’ व अन्य लिट-फैस्टीवल में सेना के ‘रेजिमैंटल’ गीतों पर भी चर्चा मुमकिन थी। मगर कभी उनका जि़क्र भी नहीं चला। भारतीय सेना में अपनी-अपनी रेजिमेंट के अपने गीत हैं जिन्हें रेजिमेंट-स्थापना दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में सभी जवान व अधिकारी मिलकर गाते हैं।
कुछेक रेजिमेंट-गीतों की अपनी पृष्ठभूमि होती है और लगभग सभी गीतों में समर्पण, सेवा और देशरक्षा के लिए सर्वस्व बलिदान की भावना या किसी घटना विशेष पर आधारित गीत पंक्तियां भरी होती हैं। उदाहरण के रूप में असम-रेजिमेंट का रेजिमेंट-गीत ‘बदलू राम का बदन’ जवानों व सेना संस्कृति की विविधता का अनूठा उदाहरण है।
असम-रेजिमेंट का एक वीर जवान था बदलू राम। द्वितीय महायुद्ध में यह रेजिमेंट ब्रिटिश-भारतीय सेना का एक अंग थी। इस रेजिमेंट की तैनाती जापान के मोर्चे पर हुई थी। हर रेजिमेंट के ‘क्वार्टर मास्टर’ का दायित्व होता है कि वह मोर्चे पर तैनात किसी जवान की मृत्यु की सूचना, उच्चाधिकारियों को भेजे ताकि दिवंगत जवान का नाम राशन की सूची में से कटे और उसके परिजनों को भी सूचित किया जा सके। सिपाही बदलू राम, इसी मोर्चे पर दोनों तरफ की फायरिंग में मारा गया था। वे तनाव के दिन थे। क्वार्टर मास्टर संयोगवश राशन-सूची से सिपाही बदलू राम का नाम नहीं काट पाया। मगर रेजिमैंटल-ईमानदारी के तकाज़े का पालन करते हुए बदलू राम का राशन अलग से ‘स्टोर’ में सुरक्षित रखा जाने लगा।
दैव-वश उक्त ‘प्लैटून’ को वर्ष 1944 में जापानी सैनिकों ने घेर लिया और सबसे पहले इस रेजिमेंट की ‘सप्लाई पंक्ति’ काट दी गई। तब घिरे हुए जवानों को बदलू राम के राशन से भोजन बनाकर जीवित रखा गया।
कालांतर में इसी प्रसंग ने ‘रेजिमेंट-गीत’ का रूप ले लिया। गीत की पंक्तियां थी ः
बदलू राम का बदन
जमीं के नीचे है
हमको अब तक बदलू राम
का राशन मिलता है
एक बार अमेरिकन-सेना के साथ एक सांझे युद्धाभ्यास के समय भी यही गीत असम रेजिमेंट के जवानों ने गाया और इसके पूर्वाभ्यास व प्रस्तुति में अमेरिकी सेना के जवानों ने भी भागीदारी की। मगर बाज़ारवाद द्वारा प्रायोजित ‘लिट-फेस्ट’ में उन्हें महत्वपूर्ण नहीं माना जाता। एक ही तर्क होता है इनकी ‘ब्रांड वैल्यू’ नहीं है।