कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय
सर्वोच्च न्यायालय ने आज जम्मू-कश्मीर राज्य के बारे में जो ऐतिहासिक फैसला दिया है उससे भारतीय संविधान की समूचे भारत को एक तार में जोड़े रखने की अन्तर्निहित शक्ति का ही प्रदर्शन होता है और यह भ्रम दूर होता है कि 1949 में भारतीय संविधान में जो अनुच्छेद जोड़ा गया था उसमें एक देश में ही दोहरी संवैधानिक प्रणाली को जारी रखने का लाइसेंस दे दिया गया था। देश की सबसे बड़ी अदालत के पांच न्यायमूर्तियों की पीठ ने यह फैसला देकर साफ कर दिया है कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था, इसीलिए इसे संविधान की 21वीं अनुसूची में रखा गया था। मगर इसके साथ न्यायमूर्तियों ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि 5 अगस्त 2019 को जिस तरह जम्मू- कश्मीर राज्य को तोड़ कर जम्मू-कश्मीर को ही केन्द्र शासित राज्य में तब्दील किया गया वह उचित नहीं था क्योंकि भारत का संविधान यह तो इजाजत देता है कि किसी राज्य के किसी भी हिस्से को केन्द्र शासित क्षेत्र में बदला जा सकता है मगर उस राज्य को ही केन्द्र शासित राज्य में बदलने की इजाजत नहीं है। अतः मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ के नेतृत्व में गठित पांच न्यायमूर्तियों की पीठ ने केन्द्र सरकार को आदेश दिया है कि वह जम्मू-कश्मीर राज्य का दर्जा जल्दी से जल्दी पूर्ण राज्य का बनाये और चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह सितम्बर 2024 तक वहां विधानसभा चुनाव करा कर लोकतान्त्रिक सरकार के गठन की प्रक्रिया को पूरा करें। इसके साथ ही लद्दाख को अलग केन्द्र शासित प्रदेश बनाने के निर्णय को भी न्यायमूर्तियों ने उचित माना और कहा कि केन्द्र के पास अधिकार है KI वह राज्य में किसी क्षेत्र को विशेष दर्जा तथा अलग प्रदेश बना सकता है। यह संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत होगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 370 को हटाये जाने के केवल संवैधानिक पक्ष पर ही अपना निर्णय देना था और उसने साफ कर दिया कि केन्द्र सरकार की ओर से राष्ट्रपति ने इसे हटाये जाने का आदेश देकर पूर्णतः वैध कार्रवाई की है। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने 40 मिनट तक फैसले को पढ़ कर सुनाया और स्पष्ट किया कि 370 की मार्फत जम्मू-कश्मीर के भारत में समन्वय की प्रक्रिया सतत थी मगर यह एक अस्थायी प्रावधान था। अतः राष्ट्रपति का इसे हटाने का फैसला पूरी तरह वैध व किसी भी दुर्भावना से रहित था। न्यायमूर्तियों ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा भंग रहने की स्थिति में इसके अधिकारों के संसद में संचयन को भी वैध मानते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में इसके द्वारा की गई कार्रवाई को गलत नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसने संवैधानिक दायरे में ही इन अधिकारों का प्रयोग किया है।
न्यायालय ने इस तर्क को उचित नहीं माना कि 370 को हटाने का फैसला केवल ‘जम्मू-कश्मीर संविधान सभा’ की अनुशंसा के बाद ही किया जा सकता था। यह कहना कि यह संविधान सभा 1957 में ही भंग हो गई थी अतः इस फैसले को अमली जामा नहीं पहनाया जा सकता, गलत अवधारणा है। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि संविधान सभा का गठन राज्य का संविधान लिखने के विशेष उद्देश्य से किया गया था जिसके पूरा होने पर उसे भंग कर दिया गया। मगर संविधान के तहत राष्ट्रपति को यह अधिकार प्राप्त था कि वह उचित माहौल होने पर इस अनुच्छेद को हटा सकते हैं। जाहिर है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस ऐतिहासिक फैसले के राजनैतिक प्रभाव भी होंगे और राष्ट्रीय राजनीति भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेगी।
यह फैसला ऐसे समय किया है जब लोकसभा चुनावों में केवल चार महीने का समय शेष बचा है। इसमें भी कोई दो राय नहीं हो सकती कि केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा इसका पूरा श्रेय लेने का प्रयास करेगी क्योंकि इस पार्टी के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी 1952 से ही 370 के विरोध में खड़े रहे और उन्होंने एक ही देश में दो संविधान, दो प्रधान व दो निशान का पुरजोर विरोध किया और जन आन्दोलन के चलते ही 1953 में उनकी जम्मू में शहादत भी हो गई। परन्तु यह भी सत्य है कि जब 1949 में 370 को संविधान में जोड़ा गया था तो डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी पं. नेहरू की सरकार में उद्योग मन्त्री रहने के साथ ही भारत की संविधान सभा के सदस्य भी थे। उस समय उन्होंने इसका विरोध नहीं किया था। इसका कारण यह हो सकता है कि 26 अक्टूबर 1947 को कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत की सरकार के साथ अपनी पूरी रियासत के जिस विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये थे उसमें और अनुच्छेद 370 के प्रावधानों में कोई ऐसा विरोधाभास नहीं था जिन्हें भारत के समग्र एकीकरण में अवरोध समझा जा सके क्योंकि 370 का दर्जा ‘अस्थायी’ था।
इस कानूनी पक्ष की तरफ सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने फैसले में ध्यान आकृष्ट किया है। इसके साथ यह भी जरूरी लगता है कि जम्मू-कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियां इस फैसले से नाखुश हों मगर उनकी यह नाराजगी निजी हित औऱ स्वार्थ के कारण मानी जायेगी क्योंकि आजादी के 75 वर्षों बाद भी कश्मीर को भारतीय संघ में 370 की मार्फत जुड़ा हुआ नहीं माना जा सकता है। इतने वर्षों में देश के साथ समन्वय की प्रक्रिया इस तरह हो जानी चाहिए थी कि जम्मू-कश्मीर के लोगों पर भी देश के अन्य राज्यों के नागरिकों की तरह भारतीय संविधान की सभी धाराएं लागू होती और सभी संवैधानिक व नागरिक अधिकार व लाभ मिलते। 370 ऐसा होने से रोक रही थी और कहीं न कहीं ‘अलगाववाद’ की चिंगारी को बुझने नहीं दे रही थी। अतः सर्वोच्च न्यायालय का फैसला किसी राजनैतिक दल के हित में नहीं बल्कि राष्ट्र के हित में आया है और भारत के समग्र और पुख्ता एकीकरण का मार्ग प्रशस्त करता है।