कांग्रेस कार्य समिति का गठन
01:36 AM Aug 22, 2023 IST
Advertisement
भारत के आधुनिक इतिहास का जब हम विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि 1900 से लेकर 2000 तक का भारत का इतिहास वही है जो कांग्रेस पार्टी का इतिहास है। महात्मा गांधी से लेकर पं. नेहरू, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी व राहुल गांधी तक के सफर के दौरान यह पार्टी सत्तारूढ़ पार्टी होने के स्थान पर विपक्षी पार्टी बनती गई मगर भारत की संसदीय प्रणाली के लोकतन्त्र को स्थापित करने से लेकर देश के लोगों को सुजान व सामर्थ्यवान औऱ वैज्ञानिक सोच की तरफ ढालने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका इस प्रकार रही कि भारत में बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली इस तरह पुष्पित- पल्लवित हुई कि विभिन्न राजनैतिक दलों ने खुल कर सत्ता का आसन पाया औऱ अपनी-अपनी विचारधारा के अनुरूप देश का विकास करने में योगदान दिया। मगर महात्मा गांधी से राहुल गांधी तक का यह सफर बहुत ऊंचे-नीचे ढलानों वाला रहा और बीच- बीच में ऐसा भी एहसास होता रहा कि कांग्रेस अपने उन मूल मानवतावादी-समावेशी विचारों से किनारा कशी कर रही है जिसने स्वतन्त्रता मिलने पर भारत को भौगोलिक परक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया ( टेरीटोरियल स्टेट)।
वर्तमान में यह 137 साल पुरानी पार्टी अपने संक्रमण काल से गुजर रही है और इसके सामने ऐसा संकट खड़ा नजर आता है जिससे इसका ‘गांधीवादी’ आधार ‘नमी से उसीज’ रहा है। पार्टी के समक्ष आज सबसे बड़ा संकट यही है कि वह किस प्रकार बाजारीकरण के इस दौर में लोक कल्याणाकारी प्रशासनिक व्यवस्था ( वैलफेयर स्टेट) के विचार को जन आन्दोलन में परिवर्तित करे। निश्चित रूप से यह 21वीं सदी का समय है और फिलहाल देश में स्वतन्त्रता प्राप्ति को बाद की पीढि़यां इसे चला रही हैं मगर भारत की तासीर में कहीं कोई बदलाव नहीं आया है क्योंकि भारत की मिली-जुली संस्कृति का प्राथमिक आह्लाद स्वर ‘विविधता में एकता’ उस राष्ट्रवाद को परिभाषित करता है जिसके लिए सरदार भगत सिंह से लेकर अशफाक उल्ला खां ने हंसते-हंसते फांसी का फन्दा चूमा था। मैंने पहले ही संकेत दिया है कि कांग्रेस पार्टी अपने मूल सिद्धान्तों से इस लम्बे सफर के दौरान गांधीवादी विचारों के साथ राजनैतिक हानि-लाभ को देखते हुए समय-समय पर समझौते करती रही है परन्तु अभी भी इसकी आत्मा को ‘गांधी बाबा’ कहीं न कहीं कचोटते रहते हैं और इसका सबसे बड़ा प्रमाण इस पार्टी के अध्यक्ष पद पर एक गरीब-दलित के बेटे श्री मल्लिकार्जुन खड़गे का होना है। श्री खड़गे ने अध्यक्ष बनने के बाद अब ‘कांग्रेस कार्य समिति’ के पुनर्गठन की घोषणा की है और इसमें उन ‘शशि थरूर’ को भी शामिल किया है जो उनके ही विरुद्ध कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़े थे।
पार्टी में आन्तरिक लोकतन्त्र की मौजूदा समय में यह मिसाल कही जा सकती है। इसके साथ ही उन्होंने तरुण गोगोई जैसे युवा नेता को भी इस समिति में लिया है। श्री गोगोई को कांग्रेस पार्टी का उगता सितारा कहा जा सकता है क्योंकि हाल ही में लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव का प्रारम्भ करते हुए उन्होंने जिस राजनैतिक परिपक्वता और संसदीय गरिमा का निर्वाह किया वह युवा कांग्रेसी नेताओं के लिए अनुकरणीय कही जा सकती है। राजस्थान के एक जमाने के विद्रोही हुए नेता श्री सचिन पायलट को भी खड़गे ने कार्यसमिति का सदस्य बनाया है। सचिन पायलट राजस्थान के ऐसे नेता कहे जा सकते हैं जो ‘सब कुछ लुटा कर होश में आये हैं’। अतः उन्हें पार्टी की सर्वोच्च कार्यकारिणी में स्थान देना बताता है कि श्री खड़गे 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी में कहीं कोई अन्दरूनी बगावत के कारण छोड़ना नहीं चाहते हैं। इनके अलावा श्री खड़गे ने विभिन्न राज्यों के युवा कांग्रेसी नेताओं को भी इस समिति में शामिल करके आम जनता को सन्देश देने का प्रयास किया है कि संक्रमण काल से गुजर रही कांग्रेस पार्टी में अभी इतनी कूव्वत बची है कि वह समाज के सभी वर्गों के लोगों का प्रतिनिधित्व कर सके और समावेशी भारत की परिकल्पना के अनुरूप अपना ढांचा भी खड़ा कर सके।
कांग्रेस के सामने आज सबसे बड़ा संकट अपनी उन जड़ों को फिर से हरा करने का है जो पूरे भारत के हर राज्य के गांव-कस्बे में फैली पड़ी हैं। इन जड़ों को तभी हरा-भरा किया जा सकता है जबकि इसकी सर्वोच्च निर्णायक संस्था ‘कार्य समिति’ ऐसा विमर्श खड़ा करे जो वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों और सन्दर्भों में युवा वर्ग को ज्यादा से ज्यादा मोहित करने में सक्षम हो सके। कार्य समिति में ज्यादा से ज्यादा नेता जमीन से जुड़े हुए हों और वैचारिक दृष्टि से भी गंभीर हों। यह गुण हमें राहुल गांधी व प्रियंका गांधी से लेकर श्री खड़गे तक में देखने में आता है। कार्य समिति को बदली हुई राजनैतिक परिस्थितियों में यह भी देखना होगा कि वह राष्ट्रवाद की उस परिभाषा को आम लोगों में स्थापित कर सके जिसकी वजह से स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान इस पार्टी को राष्ट्रवादी पार्टी (नेशनलिस्ट पार्टी) कहा जाता था। साथ ही इसे विभिन्न राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय नेतृत्व को भी बढ़ावा देना होगा क्योंकि राज्यों के संघ भारत में क्षेत्रीय आकांक्षाओं का राष्ट्रीय आकांक्षा में समावेश जरूरी होता है। मजबूत केन्द्र की मांग कांग्रेस के आजादी के आन्दोलन से जुड़ी हुई मांग ही रही है परन्तु यह मजबूत केन्द्र राज्यों के अपने स्वायत्तशासी अधिकारों से ही जुड़ा रहा है जिसका प्रमाण भारत की वह प्रशासनिक प्रणाली है जिसकी आधारशिला सरदार वल्लभ भाई पटेल गृहमन्त्री के रूप में रख कर गये थे। इसमें किसी जिले का जिलाधीश नौकर तो केन्द्र सरकार का होता है मगर उसकी जवाबदेही राज्य सरकार के प्रति होती है। इसे भारत का ‘स्टील्थ फ्रेम’ कहा गया। नई कांग्रेस कार्य समिति को वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में अपने विमर्शों से कारगर व मजबूत विपक्ष की लोकतन्त्र में सकारात्मक उपयोगिता को ‘जन-विमर्श’ का चुनावी मुद्दा भी बनाना होगा तभी हम लोकतन्त्र को मजबूत होता देख सकेंगे। सदस्यों की संख्या 24 से बढ़ा कर 35 करने का तभी कोई उद्देश्य है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkes
Advertisement