काशी और मथुरा का विवेक
मेरी यह शुरू से ही राय रही है कि काशी के भगवान विश्वनाथ परिसर में बनी ज्ञानवापी मस्जिद को मुस्लिम समुदाय को स्वयं ही हिन्दुओं को सौंप देना चाहिए जिससे भारत की ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब का सितारा बुलन्द होकर पूरी दुनिया खास कर एशिया में यह सन्देश दे सके कि भारत अपनी आजादी की लड़ाई की उस विरासत को आज भी कस कर बांधे हुए हैं जिसने 1947 में अंग्रेजों से आजादी पाकर महात्मा गांधी के नेतृत्व इस महाद्वीप के सभी दबे हुए देशों के सामने आजाद होने की मिसाल पेश की थी। यह काम देश के इन दोनों समुदायों के प्रबुद्ध व विद्वान लोगों के बीच इस प्रकार होना चाहिए कि नीचे तक आम जनता के बीच भारत की हिन्दू-मुस्लिम एकता का सन्देश जाये। यह कार्य कोई मुश्किल नहीं है। इसके लिए केवल राष्ट्र व मानवता के लिए प्रतिबद्धता की जरूरत है। निश्चित रूप से यह काम राजनीतिज्ञों के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता है। इस मुद्दे पर अदालतों में जो लड़ाई चल रही है वह साक्ष्यों के आधार पर ही हो रही है और इस सम्बन्ध में सबसे बड़ा साक्ष्य यह है कि भारत के पुरातत्व अभिलेखागारों में मुगल बादशाह औरंगजेब का 1669 में जारी किया हुआ वह फरमान अभी तक सुरक्षित है जिसमें उसने काशी विश्वनाथ मन्दिर का विध्वंस करने का आदेश दिया था। अकेला यह दस्तावेज ही इतिहास की इस क्रूरता को साबित कर देता है।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में बहुत ही धैर्य और विवेक से काम ले रहा है और भारत के साम्प्रदायिक सौहार्द का सवाल भी उसके सामने है अतः मुस्लिम समुदाय को अपना राष्ट्रीय दायित्व मानते हुए इस मुद्दे पर होने वाली राजनीति पर पानी फेरने का काम कर देना चाहिए। जहां तक मथुरा के श्रीकृष्ण जन्म स्थान का सवाल है तो यहां बनी ईदगाह मस्जिद के साथ हिन्दुओं को किसी तरीके की छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए क्योंकि पुराने तामीर जिस किले के परिसर में कृष्ण जन्म स्थान स्थित है उसका निर्माण पूरी हिन्दू विधियों के अनुसार वैभवशाली तरीके से हो चुका है। व्यर्थ में ही इस मुद्दे को अदालत में घसीटने से ज्यादा लाभ नहीं हो सकता। हमें इतिहास के बारे में यह भी ज्ञात होना चाहिए कि औरंगजेब ने ही ‘चित्रकूट’ में ‘बालाजी’ मन्दिर का निर्माण भी कराया था जो कि आज भी औरंगजेब के मन्दिर के नाम से वहां स्थित है। बेशक औरंगजेब अन्य पूर्ववर्ती मुगल बादशाहों के समान सहिष्णु नहीं था और धार्मिक रूप से कट्टरपंथी भी कहा जाता था। मगर उसने इस्लाम के ही फिरके शिया मुसलमानों के साथ भी भेदभावपूर्ण व्यवहार करते हुए उनके मोहर्रम के ताजियों के जुलूस पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया था।
इतिहास को हम केवल हिन्दू-मुसलमान के नजरिये से नहीं पढ़ सकते हैं। इसका असली नजरिया शासन चलाने का होता है। वर्तमान सन्दर्भ में हमारे सामने देश का वह कानून भी है जिसमें 15 अगस्त, 1947 के बाद देश में स्थित किसी भी धार्मिक स्थान का चरित्र नहीं बदला जा सकता है। केवल अयोध्या के राम मन्दिर को इससे छूट दी गई थी। इस हिसाब से देखें तो अयोध्या के अलावा अन्य किसी धार्मिक स्थान का स्वरूप या चरित्र बदलने का मामला उठाया ही नहीं जाना चाहिए परन्तु भारत कानून से चलने वाला देश है अतः मथुरा और काशी के मामले निचली अदालतों के माध्यम से ही कुछ हिन्दू श्रद्धालुओं ने इसकी इजाजत मिलने के बाद ही उठाये हैं परन्तु सार्वजनिक विवेक देश काल परिस्थितियों की उपज होता है और यह विवेक कहता है कि धार्मिक विवादों को बजाये अदालतों के माध्यम से सुलझाने के आपसी समझ से सुलझाया जाना चाहिए जिससे देश में प्रेम व भाईचारा हर हालत में कायम रह सके क्योंकि इसके बिना कोई भी देश कभी भी तरक्की नहीं कर सकता। सदियों पहले के इतिहास की घटनाओं को हम वर्तमान की घटनाएं कभी नहीं मान सकते क्योंकि भारत अब दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातन्त्र है और प्रजातन्त्र की पहली शर्त हर हालत में साम्प्रदायिक सौहार्द ही होती है जिससे सामान्य व्यक्ति की सत्ता में सीधी भागीदारी संभव हो सके। लड़ाई-झगड़े के बीच यह सामान्य व्यक्ति ही किसी दूसरे सामान्य व्यक्ति को अपना दुश्मन मान कर चलने लगता है जिससे लोकतन्त्र में लोग स्वयं ही शिकार होने लगते हैं। हमारी विरासत भगवान महावीर से लेकर भगवान बुद्ध तक भी है जिनका लक्ष्य केवल अहिंसा, सत्य और प्रेम ही रहा है। काशी के मामले में सत्य हमारे सामने है और मथुरा के मामले में प्रेम का उदाहरण है। हिन्दू-मुसलमानों में प्रेम के चलते ही मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म स्थान व मस्जिद थोड़ी दूरी पर ही हैं और सौहार्दपूर्वक यहां के लोग रहते हैं। काशी में मस्जिद की दीवारें खुद कह रही हैं कि इसकी गुम्बद मन्दिर की दीवारों पर ही रखी गई है। अब दोनों समुदायों के प्रबुद्धजनों को आगे आकर भारत की प्रतिष्ठा बढ़ानी चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com