चुनावी बांड के मुद्दे पर बहस
भारत में चुनावी चन्दे को लेकर शुरू से ही भारी विवाद रहा है। आजादी के प्रारम्भिक वर्षों में ऐसी कोई समस्या नहीं थी मगर पं. नेहरू की मृत्यु के बाद देश की राजनीति जिस तरह बदलने लगी उसमें पूंजीपतियों द्वारा पार्टियों को चुनावी चन्दा देने के किस्से बढ़ने लगे और 1967 तक जीवित रहे समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया इस चलन का पुरजोर विरोध करते रहे परन्तु 1969 के आते-आते यह हालत हो गई कि देश के प्रमुख अखबारों और पत्रिकाओं में राजनैतिक दलों को चन्दा देने वाले पूंजीपतियों या उद्योग घरानों की फेहरिस्त छपने लगी। उस समय चन्दा पाने वाली पार्टियों में प्रमुख रूप से कांग्रेस, जनसंघ, स्वतन्त्र पार्टी आदि हुआ करती थीं। इसी वर्ष में जब कांग्रेस का विभाजन हुआ तो इसके सिंडिकेट गुट की संगठन कांग्रेस को दिल खोल कर पूंजीपतियों ने चन्दा दिया। इस मुद्दे पर जब बवाल मचा तो तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने उद्योग घरानों यानि कार्पोरेट कम्पनियों द्वारा राजनैतिक चन्दा देने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। मगर इसके बावजूद भीतरखाने उद्योग घराने राजनैतिक चुनावी चन्दा देते रहे।
1985 में राजीव गांधी की सरकार ने इस विवाद को जड़ से समाप्त करने के लिए उद्योग घरानों पर लगे प्रतिबन्ध को हटाया और कानून बनाया कि कोई भी कार्पोरेट कम्पनी अपने शुद्ध वार्षिक लाभ का पांच प्रतिशत चन्दा राजनैतिक पार्टियों को दे सकती है जो कि सीधे जनता की नजर में रहेगा। इसके बाद के वर्षों में कानून में संशोधन करके इसे लाभ का साढे़ सात प्रतिशत कर दिया गया परन्तु इस दौरान चुनावों को लेकर एक और महत्वपूर्ण घटना 1974 में हुई जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली सदर सीट से लोकसभा चुनाव जीते कांग्रेस सांसद स्व. अमरनाथ चावला का चुनाव इस आधार पर अवैध करार दे दिया कि उन्होंने अपने चुनाव में निर्धारित सीमा से अधिक धन खर्च किया है। तब इंदिरा गांधी सरकार ने चुनाव कानून में संशोधन कर यह कानून बनाया कि चुनाव में खड़े किसी भी प्रत्याशी पर उसका कोई मित्र या समर्थक संगठन कितना भी धन खर्च कर सकता है। यह खर्च प्रत्याशी के चुनाव खर्च में शामिल नहीं होगा। इस संशोधन के बाद भारत में चुनाव लगतार खर्चीले और महंगे होते गये और इन पर धनतन्त्र का दबाव बढ़ता चला गया।
1985 में राजीव गांधी सरकार द्वारा कार्पोरेट कम्पनियों को राजनैतिक चन्दा देने की छूट देने के बाद इसमें पारर्शिता तो आयी मगर चुनाव कानून में हुए संशोधन की वजह से चुनावों में काले धन का प्रयोग जैसे सामान्य प्रक्रिया बनती चली गई। 2018 में मोदी सरकार ने कार्पोरेट कम्पनियों द्वारा राजनैतिक दलों को चन्दा देने की गरज से ‘चुनावी बांड’ जारी करने की परिपाठी शुरू की। इस प्रक्रिया में भारतीय स्टेट बैंक ये बांड जारी करेगा जिन्हें बैंक से खरीद कर कार्पोरेट कम्पनियां अपनी मनपसन्द कम्पनी के बैंक खाते में जमा कर सकेंगी। इन बांडों की धनराशि की कोई सीमा नहीं होगी। कोई कार्पोरेट कम्पनी कितनी ही धनराशि के बांड बैंक से खरीद कर राजनैतिक दल को दे सकती है। बांड खरीदने वाले की पहचान बैंक के पास ही रहेगी और उसे सार्वजनिक नहीं किया जायेगा। सरकार को यह हक होगा कि वह बांड जमा करने वाले की पहचान जान सके। आजकल सर्वोच्च न्यायालय में इसी मुद्दे पर सुनवाई चल रही है जिसमें सरकारी पक्ष और विरोध के पक्ष को अलग-अलग विधि विशेषज्ञ वकील रख रहे हैं। चुनावी बांड नीति के विपक्ष में प्रबल तर्क यह दिया गया कि यह संविधान के मूल ढांचे के इस सिद्धान्त के खिलाफ है कि भारत में निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनाव होंगे जिनकी देखरेख चुनाव आयोग करेगा।
चुनाव आयोग का दायित्व होगा कि वह चुनाव में भाग ले रहे प्रत्येक राजनैतिक दल के लिए एक समान परिस्थितियों का निर्माण करे और उन्हें एक समान अवसर प्रदान करे। तर्क दिया गया कि जो स्कीम चुनावी बांड के नाम से शुरू की गई है उसका लक्ष्य चुनावी वित्त पोषण करने की बजाये राजनीतिक दल का वित्त पोषण करना है क्योंकि स्कीम में कहीं यह स्पष्ट नहीं है कि चुनावी बांड के धन का खर्चा केवल चुनावों पर ही किया जायेगा। राजनैतिक दल चाहे तो इस धन का खर्च किसी भी अन्य गतिविधि पर कर सकता है। तर्क यह भी रखा गया कि चुनावी बांड स्कीम से भारत के सहभागी लोकतन्त्र के सिद्धान्त की भी अवहेलना होती है क्योंकि पूरा संविधान चुनाव प्रक्रिया में नागरिकों की सक्रिय भागीदारी की वकालत करता है।
सवाल यह पैदा होता है कि क्या कोई कार्पोरेट कम्पनी नागरिक हो सकती है जो वह चुनावी चन्दा दे रही है? केवल नागरिक ही चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा हो सकता है। तर्क यह दिया गया कि चुनावी बांड के जरिये राजनैतिक दल का वित्त पोषण करने वाली कार्पोरेट कम्पनी इसका उपयोग अपने लाभ में भी कर सकती है क्योंकि किसी भी दल के सत्ता में होने पर वह चन्दे के
बदले कुछ अपेक्षा भी रख सकती है। इस विषय पर सुनवाई पूरी हो चुकी है और मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। अतः देखने वाली बात होगी कि चुनावी बांड के मामले में अन्तिम निर्णय क्या आता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com