चुनाव आयोग को ‘आइना’
बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने भारत का जो संविधान बनाया उसमें चुनाव आयोग को देश में लोकतन्त्र की जमीन तैयार करने की महत्वपूर्ण भूमिका देते हुए साफ किया विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के साथ ही चुनाव आयोग इस देश की समूची जनतान्त्रिक व्यवस्था का चौथा खम्भा इस प्रकार होगा कि वह इन तीनों खम्भों के लिए लोक परक संवैधानिक शासन स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हो सके। इनमें हर पांच साल के लिए वयस्क मताधिकार के जरिये विधायिका का गठन करके लोगों के जनादेश अनुसार बहुमत की सरकार का गठन होते देखना चुनाव आयोग का काम था और इस प्रकार गठित सरकारों के निर्देशों के तहत संविधान के अनुसार प्रशासन देना कार्यपालिका का काम था और इस प्रशासन को संविधान के अनुसार चलते देखना न्यायपालिका काम था। बाबा साहेब ने चुनाव आयोग व न्यायपालिका को सरकार का अंग नहीं बनाया और इनकी स्वतन्त्र व निष्पक्ष सत्ता स्थापित की और यह प्रावधान किया कि ये दोनों खम्भे किसी भी सत्तारूढ़ सरकार के प्रभाव से निरपेक्ष रहते हुए सीधे संविधान से शक्ति लेकर अपना कार्य स्वतन्त्रता के साथ करें।
आजादी के बाद से ये दोनों खम्भे अपना काम इसी भावना और उद्देश्य से करते रहे केवल कुछ अपवादों को छोड़ कर परन्तु हाल के वर्षों में चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली को लेकर जिस प्रकार सन्देह पैदा हो रहे हैं और इसकी भूमिका निष्पक्षता से इतर पक्षपातपूर्ण कही जा रही है वह लोकतन्त्र के भविष्य लिए बहुत बड़ी चिन्ता की बात कही जा सकती है। इस मामले में मद्रास उच्च न्यायालय के हाल ही में अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश श्री संजीव बनर्जी ने जो वक्तव्य दिया है वह ‘चुनाव आयोग को आइना दिखाने’ की तरह देखा जा रहा है और इस चिन्ता की गंभीरता में और अधिक इजाफा करता है। श्री बनर्जी ने मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की हैसियत से 2021 में चुनाव आयोग के सकल व्यवहार पर बहुत गंभीर टिप्पणी की थी जिसकी चर्चा पूरे देश में हुई थी। उन्होंने कहा था कि 2020 में तमिलनाडु में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान जिस प्रकार चुनाव आयोग ने कोरोना नियमों का उल्लंघन होने दिया उसे देखते हुए उस पर हत्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए। श्री बनर्जी बाद में अपने इस कथन पर डटे रहे और चुनाव आयोग की निष्पक्षता को सन्देह के घेरे में लेने से भी कोई गुरेज नहीं किया। रिटायर होने के बाद उन्होंने इस पर और प्रकाश डाला और कहा कि अगर चुनाव आयोग किसी भी राजनैतिक दल के प्रति हल्का सा भी पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाता है तो इसके देश के पूरे लोकतन्त्र के लिए गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं क्योंकि चुनाव आयोग एेसा संवैधानिक संस्थान है जिसकी जिम्मेदारी बहुत बड़ी है। मगर इस टिप्पणी के कुछ समय बाद ही श्री बनर्जी का मद्रास उच्च न्यायालय से तबादला मेघालय उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के तौर पर कर दिया गया था।
दरअसल श्री बनर्जी भारत की उस महान न्यायपालिका की विरासत के ध्वज वाहक हैं जिसने हर परिस्थिति में (केवल इमरजेंसी काल को छोड़ कर) अपना कार्य बिना किसी खौफ, पक्षपात या राग-द्वेष के बिना पूरी निष्पक्षता के साथ किया है। उन्होंने तब यह भी कहा था कि जब चुनाव आयोग 2020 में प. बंगाल में आठ चरणों में चुनाव करा सकता है तो उसने तमिलनाडु जैसे बड़े राज्य में एक ही चरण में चुनाव क्यों कराये जबकि कोरोना का संकट पूरे देश के सभी राज्यों में लगभग एक समान समझा जा रहा था। चुनावों की वजह से भारी भीड़ राजनैतिक सभाओं में इकट्ठा हो रही थी। जाहिर है कि इससे कोरोना संक्रमण फैलने में मदद मिल सकती थी परन्तु वर्तमान सन्दर्भों में भी हमें चुनाव आयोग की भूमिका का आंकलन निस्पृह भाव से करना चाहिए।
आजकल पांच राज्यों में चुनाव की प्रक्रिया चल रही है और चुनाव आचार संहिता लगी हुई है। विभिन्न राजनैतिक दल एक- दूसरे के खिलाफ आचार संहिता का उल्लंघन करने के आरोप लगा रहे हैं। इन सभी शिकायतों का कायदे से संज्ञान लेकर चुनाव आयोग को निष्पक्ष भाव से बिना लाग-लपेट के बेबाक कार्रवाई करनी चाहिए। एेसा भारत का संविधान कहता है। इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि चुनाव आयोग के लिए प्रत्येक राजनैतिक दल एक समान होता है। इसमें कोई दल सत्तारूढ़ दल हो सकता है और कोई विपक्षी दल हो सकता है मगर चुनाव आयोग का पैमाना सभी राजनैतिक दलों के लिए एक समान होता है क्योंकि वह चुनावों में हरेक दल के लिए एक समान परिस्थितियां या जमीन देने के कानून से बंधा होता है। यह देखना बेशक चुनाव आयोग का काम ही होता है कि किस दल की शिकायत में कितना दम है मगर उसे कार्रवाई करता हुआ दिखना जरूर चाहिए जिससे आम जनता में उसकी विश्वसनीयता बनी रहे। चुनाव आयोग की विश्वसनीयता भारतीय लोकतन्त्र में उसकी मुद्रा या करेंसी के समान होती है क्योंकि जब इसमें कमी आती है तो केवल एक खम्भा ही नहीं बल्कि शेष तीन खम्भे भी थरथराने लगते हैं। यह चुनाव आयोग ही है जो विधानसभा से लेकर राष्ट्रपति तक के चुनावों को सम्पन्न कराता है और इस आश्वासन व विश्वास के साथ सम्पन्न कराता है कि उसके नियम हर प्रत्याशी व पार्टी के लिए एक समान हैं और एेसी शक्ति उसे कोई सरकार नहीं बल्कि भारत का संविधान देता है अतः संविधान की रुह को जमीन पर उतारना उसका लोकतन्त्र में परम कर्त्तव्य होता है। इसी वजह से बाबा साहेब चुनाव आयोग व न्यायपालिका को सरकार का अंग बनाकर नहीं गये थे जिससे हर मजदूर से लेकर उद्योगपति तक को यह भरोसा रहे कि उसके एक वोट की कीमत एक समान है।