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चौंको मत यह भाजपा है

04:40 AM Dec 13, 2023 IST
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भाजपा द्वारा विजित तीनों प्रदेशों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व राजस्थान में जिस प्रकार मुख्यमन्त्री पद पर चौंकाने वाले फैसले सामने आये हैं, उनसे स्पष्ट है कि यह पार्टी अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए दूसरी पंक्ति के नेताओं को ‘अग्रिम दस्ते’ में शामिल कर रही है और आम जनता को सन्देश दे रही है कि साधारण से साधारण कार्यकर्ता भी पार्टी में एक दिन ऊंचे से ऊंचे पद पर पहुंच सकता है। छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय, मध्य प्रदेश में मोहन यादव और आज राजस्थान में श्री भजनलाल शर्मा को जिस तरह मुख्यमन्त्री का पद सौंपा गया है उससे यह भी साफ करने की कोशिश की गई है कि भाजपा में प्रादेशिक स्तर पर केवल पहले से ही प्रचिलित और पार्टी पर वर्चस्व बनाये रखने वाले नेताओं का कब्जा नहीं हो सकता। कोई प्रादेशिक नेता यदि यह समझता है कि वह अपनी लोकप्रियता का ढिंढोरा पीटकर और विधायकों को अपनी जेब में रखने का भ्रम दिखा कर मुख्यमन्त्री बन सकता है तो आलाकमान उसकी यह दादागिरी बर्दाश्त नहीं करेगा।
राजस्थान में जिस तरह बहुचर्चित नेता व दो बार मुख्यमन्त्री रहीं श्रीमती बसुन्धरा राजे को लेकर जिस तरह की चर्चाएं चल रही थीं वे सभी एक ही झटके में बरतरफ हो गई और आलाकमान ने स्वयं उनके ही हाथ से एक अनजान समझे जाने वाले चेहरे श्री भजनलाल शर्मा के नाम का प्रस्ताव करा दिया। इसके साथ ही पार्टी की तरफ से मुख्य पर्यवेक्षक के रूप में जयपुर गये रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने दो नेताओं श्रीमती दिया कुमारी व श्री प्रेम चन्द बैरवा को उप मुख्यमन्त्री बनाये जाने की घोषणा भी कर दी। राजनीति में पार्टी सर्वोच्च होती है और हर नेता इसका एक कार्यकर्ता ही होता है। इसके साथ राजनीति में जो भी विधायक बनता है उसमे मुख्यमन्त्री बनने की क्षमता पैदा करना पार्टी का ही काम होता है। केवल कुछ नेता इस पद पर चौकड़ी मारकर कैसे बैठ सकते हैं? यह पार्टी ही होती है जिसके चुनाव निशान पर विधायक जीतते हैं और इसका वह लोकप्रिय राष्ट्रीय नेता ही होता है जिसे संसदीय लोकतन्त्र में भी लोग सर्वाधिक लोकप्रिय मानते हैं। भाजपा ने ये चुनाव प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी का चेहरा आगे रख कर लड़े थे और स्वयं श्री मोदी ने अपनी गारंटी देकर लोगों से वोट मांगे थे। तीनों मे से किसी एक राज्य में भी संभावित मुख्यमन्त्री का चेहरा रखकर मतदाताओं को लुभाने की कोशिश नहीं की गई थी। इससे चुनाव प्रचार के दौरान ही यह साफ हो गया था कि जिस व्यक्ति को भी श्री मोदी का आशीर्वाद प्राप्त होगा और जिसे नवनिर्वाचित विधायक पसन्द करेंगे वही मुख्यमन्त्री होगा।
वैसे संसदीय लोकतन्त्र में यह होना भी चाहिए कि पहले से ही मुख्यमन्त्री का चेहरा तय नहीं होना चाहिए क्योंकि जो भी पार्टी प्रत्याशी चुनाव जीत कर आते हैं उनका नेता ही मुख्यमन्त्री बनता है। भाजपा के मामले में चुनाव प्रधानमन्त्री के चेहरे पर लड़े गये थे अतः उनकी पसन्द का भी विशेष अर्थ हो जाता है। राजनीति में जरूरी नहीं होता कि पहले से ही स्थापित नेता लगातार आलाकमान की नजरों में चढे़ रहें क्योंकि पार्टी कभी भी किसी एक राज्य में एक ही नेता पर निर्भर नहीं हो सकती। देखने वाली बात यह होती है कि कौन सा कार्यकर्ता पार्टी के लिए कितना सदुपयोगी हो सकता है। वसुंधरा राजे के पार्टी से विद्रोह करने की भी उनके बारे में अटकलें आयीं मगर शायद इन मीडिया वालों को भाजपा व जनसंघ के पुराने इतिहास के बारे में पूरी जानकारी नहीं थी। भाजपा में जिस किसी नेता ने भी विद्रोह किया वह बहुत जल्दी ही राजनीति में हांशिये पर चला गया। 1967 में जनसंघ के सफल और प्रभावशाली अध्यक्ष रहे स्व. बलराज मधोक ने 1970 में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व के खिलाफ यह काम किया था मगर वह पार्टी से बाहर हो गये और बाद में जब उन्होंने अपनी पृथक राष्ट्रीय जनसंघ पार्टी बनाई तो उनके पास दो कार्यकर्ता जुटने भी मुश्किल हो गये । बाद में मध्य प्रदेश में वीरेन्द्र कुमार सखलेचा ने सत्तर के दशक में और साध्वी उमा भारती ने 15 साल पहले यही काम किया था मगर वह भी अलग-थलग पड़ गईं। उत्तर प्रदेश में यही काम स्व. कल्याण सिंह ने किया था। अंत में उन्हें भी ‘झख मार कर’ भाजपा में ही आना पड़ा था। इसकी एक मात्र वजह यह है कि भाजपा कार्यकर्ता (काडर) मूलक पार्टी है और भाजपा का काडर विद्रोही नेताओं को तुरन्त अपनी नजरों से उतार देता है। इसका प्रमाण वैसे माननीय डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी भी हैं जिन्हे साठ के दशक में जन संघ प्रधानमन्त्री पद के योग्य तक मानता था और उनकी ख्याति विशिष्ट अर्थशास्त्री के रूप में भी कराता था। अतः मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान से लेकर राजस्थान में वसुन्धरा राजे यदि अपने आगे किसी अन्य नेता को तरजीह नहीं देते थे तो उनके लिए यह इतिहास ‘प्रेरणास्पद’ रहने वाला है। गरीब व पिछड़े वर्ग से आने वाले नेताओं का लोकतन्त्र में यदि सम्मान नहीं होगा तो फिर लोकतन्त्र का क्या अर्थ रहेगा?
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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