जातिगत जनगणना और सामाजिक न्याय
विश्व में साम्यवाद (कम्युनिज्म) के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स ने कहा कि किसी भी समाज में केवल दो ही जातियां होती हैं ‘अमीर और गरीब’ और इन्हीं के बीच की आर्थिक खाई को पाटने का नाम ‘साम्यवाद’ है जिसके रास्ते भी उन्होंने सम्पत्ति के बंटवारे और सत्ता में आधिपत्य के जरिये बताये। कार्ल मार्क्स जब अपना दर्शन लिख रहे थे तो यूरोप औद्योगिक क्रान्ति के रास्ते से गुजर रहा था जबकि अंग्रेजों के साम्राज्य में ही जी रहा भारत इससे कोसों दूर था। भारतीय उपमदाद्वीप में कार्ल मार्क्स का यह सिद्धान्त फेल हो गया क्योंकि यहां का समाज जातियों व उपजातियों में इस प्रकार बंटा हुआ था कि अमीर और गरीब की पहचान जातियों की पर्याय बनी हुई थी। गरीब जातियां और अमीर जातियां ही नहीं बल्कि सामाजिक सम्मान में भी इन जातियों की पहचान इस प्रकार थी कि इन जातियों के आर्थिक जगत में काम या व्यसाय भी बंटे हुए थे और इस प्रकार बंटे हुए थे कि कुछ जातियों के लोगों का कार्य केवल अमीर समझी जाने वाली जातियों की सेवा के कामों का ही था। इन सेवा के कामों का वर्गीकरण इस प्रकार था कि गरीब जातियों में भी सबसे गरीब जातियों का काम अपने से सम्पन्न समझी जाने वाली जातियों के सेवा कर्मों का था।
भारतीय उप महाद्वीप में जातियों के इतने जटिल वर्गीकरण ने गरीबी और आय का बंटवारा भी इसी अनुपात में करने में प्रमुख भूमिका निभाई। अतः भारतीय सन्दर्भों में सामाजिक व शैक्षिणिक पिछड़ेपन की पहचान भी जातिगत आधार पर होना तार्किक कहा जा सकता है क्योंकि सकल विश्व में केवल भारतीय उपमहाद्वीप ही एेसा क्षेत्र है जहां जातिगत पहचान से व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक स्तर और उसके पेशे या काम की पहचान की जाती थी। इसलिए भारत में जाति एक हकीकत है और समाज में भीतर तक पैठ बनाये हुए हैं। बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना करा कर जो बम विस्फोट करने का प्रयास किया है उसकी गूंज निश्चित रूप से देश व प्रदेशों की राजनीति में सुनाई पड़ेगी क्योंकि जातिगत पहचान समाज में प्रतिष्ठापित है और इसका सम्बन्ध सामाजिक व आर्थिक विकास से है। इसके साथ शैक्षणिक विकास अन्तरंग रूप से जुड़ा हुआ है क्योंकि इसके बिना सामाजिक व आर्थिक विकास संभव नहीं है। भारत चूंकि गांधी का देश है अतः गांधीवाद सीधे मार्क्सवाद को इसके हिंसा के सिद्धान्त की वजह से नकारता है मगर समाजवाद और सामाजिक न्याय की बात करता है। गांधी का समाजवाद ‘न्याय’ के सिद्धान्त पर टिका हुआ है और ‘ट्रस्टीशिप’की बात करता है अर्थात अन्तर्जातीय समाज की बात करते हुए सम्पत्ति के समान रूप से न्यायोचित बंटवारे की बात करता है तथा वकालत करता है कि अमीर से अमीर व्यक्ति को अपनी भौतिक आवश्यकताओं व खर्च की अधिकतम सीमा तय करके शेष धन समाज के हित में खर्च करना चाहिए। गांधी का यह सिद्धान्त कमोबेश रूप से भारत में व्यापारियों के ‘धर्म खाते’ की अनुपालना में नजर भी आता है मगर इससे जातिगत व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और गरीब जातियों की आर्थिक व सामाजिक हालत को बदलने में लेशमात्र भी मदद नहीं मिल पाती। अतः गांधी के बाद भारत में ‘गांधीवादी समाजवाद’ की बात भी हुई मगर उसमें भी गरीब जातियों को समाज समेत सत्ता में उनकी जनसंख्या के हिसाब से भागीदारी देने की बात करने से गुरेज किया गया जबकि आजादी मिलते ही अनुसूचित जातियों व जन जातियों को उनकी आबादी के अनुपात में यह अधिकार दे दिया गया।
हिन्दू समाज वैदिक काल से ही कभी इकसार (होमोजीनियस) समाज नहीं रहा हालांकि जैन, बौद्ध, आजीवक व सिख दर्शन ने इसे इकसार या एक समान बनाने का सिद्धान्त प्रतिपादित जातिविहीन समाज की स्थापना के रूप में किया किन्तु समाज में कार्यों के बंटवारे ने हमेशा जातिबोध को कायम रखा । इसका एक निदान गांधी ने बीसवीं सदी में अछूतोद्धार आन्दोलन चला कर किया और दलितों के साथ सदियों से किये जा रहे पशुवत व्यवहार का खात्मा किया परन्तु अंग्रेजी शासन से मुक्त हुआ भारतीय समाज सामन्ती समाज था जिसकी कर्णधार राजा बनी बैठी जातियां धार्मिक आचार्यों की मदद से जातिगत जड़ों को सर्वदा हरा बनाये रखते हुए सम्पन्न जातियों के हितों की रक्षा करती थीं। गांधी के लोकतन्त्र ने हर नागरिक को एक वोट का संवैधानिक अधिकार देकर इसे जड़ से खोखला किया और गरीब जातियों को यह अधिकार दिया कि वे अपनी संख्या के आधार पर सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकती हैं। इसे राजनैतिक आजादी का नाम दिया गया। मगर इस राजनैतिक आजादी में भी जातिगत गोलबन्दी करके नव ‘इजारेदरी’ शुरू हुई, परिणामस्वरूप नये ‘राजनैतिक समान्तों’ ने जन्म लिया।
असली सवाल इसी जाल को तोड़ने का है। साठ के दशक में बेशक समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने नारा दिया था कि ‘‘जाति तोड़ों दाम बांधो’’ मगर इसके समानान्तर ही उन्होंने पिछड़ी जातियों को आगे लाने का आह्वान भी किया और अपनी पार्टी संसोपा में इसे क्रियान्वयित भी किया। लोकतन्त्र में यह संभव नहीं है कि जिस समाज (पिछड़े) की जनसंख्या 63 प्रतिशत हो उस पर 15 प्रतिशत समाज के लोग राज करते रहें और सत्ता में अपना प्रभुत्व बनाये रखें। इसे देखते हुए यह जरूरी हो जाता है कि हम जातिगत जनगणना से निकले उस यक्ष प्रश्न का हल ढूंढे जिससे सामाजिक न्याय हर जाति के दरवाजे तक पहुंचे।