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जीते जी कुछ न दो , विल करो : सिघानिया

05:21 AM Nov 29, 2023 IST
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यह पंक्तियां कहीं एक बहुत बड़े बिजनेसमैन सिंघानिया ने जब एक टीवी चैनल को इंटरव्यू कर रहे थे। वरिष्ठ नागरिक केसरी में बुजुर्गों के लिए काम करते 20 साल हो गए, ऐसे बहुत से केस मेरे सामने आए इसके बारे में मैंने 7 किताबें भी लिखीं, जिसमें रियल बाते हैं, कोई स्टोरी नहीं, परन्तु जब मैं सिंघानिया का इंटरव्यू सुन रही थी तब भी मेरी आंखें नम हो गईं। एक इतना बड़ा व्यक्ति किस मोड़ पर पहुंच गया, जिसने एक कम्पनी को मेहनत से खड़ा किया था, वो लोगों को सभी माता-पिता को प्रार्थना कर रहा है कि अपने जीते जी अपनी प्रोपर्टी न बच्चों के नाम करो न उनको गिफ्ट (त्रद्बद्घह्ल) करो। उनके हिसाब से सभी माता-पिता अपने बच्चों को प्यार करते हैं, उनको जिन्दगी की सारी खुशियां देना चाहते हैं परन्तु वही बच्चे जब उनको सब कुछ मिल जाता है तो बदल जाते हैं।
मेरे पास बहुत से ऐसे माता-पिता आते हैं जो रोते हुए यह भी कहते हैं कि उन्होंने अपना सब कुछ बेटों को दे दिया तो उसके बाद वो यह कहते हैं आपने हमारे लिए कुछ अलग से नहीं किया। जन्म दिया था तो पालना भी था और यह हमारा हक है वो अपना फर्ज भूल जाते हैं। ऐेसे भी लोग आते हैं जिनके बच्चे उन्हें पूजते हैं, ईश्वर का दर्जा देते हैं। कितनी दुखद बात है कि सारी उम्र तिनका-तिनका जोड़कर कड़ी मेहनत कर बुढ़ापे को सुखद बनाने के लिए लोग घर बनाते हैं, जमीन-जायदाद बनाते हैं। बड़े-बड़े व्यापारिक संस्थान खड़े करते हैं, परन्तु वो सम्पत्ति कभी-कभी उनके लिए अभिशाप बन जाती है। ऐसे ही एक मां मेरे सामने आई जिसके बेटे-बहू ने उन्हें जबरदस्ती डरा-धमका कर दुनिया की नजर में सेवा का ढ़ोंग करते हुए अपने पास रखा हुआ था और उसने जबरदस्ती सारी वसीयत, प्रोपर्टी, कम्पनी के शेयर अपने नाम करवा लिए वो मां जाने-अनजाने में अपने बड़े बेटे और बहू-पोतों के साथ अन्याय कर बैठी। जब उसको अपनी गलती का अहसास हुआ बहुत देर हो चुकी थी। बड़ा बेटा दुनिया छोड़ कर जा चुका था। जाते-जाते मां ने अपनी बहू से माफियां मांगी और अपनी गलती पर पछतावा भी किया। बहुत आशीर्वाद भी दिए परन्तु उसका क्या फायदा। सो कहीं-कहीं बुजुर्ग भी दबाव में आकर गलती कर जाते हैं। मेरा मानना है कि 65 के बाद हर बुजुर्ग को अपनी वसीयत के बारे में विचार कर लेना चाहिए और विल करनी चाहिए कि उनके जाने के बाद किसको क्या मिले, पर जीते जी नहीं देना चाहिए, क्योंकि जीवन की संध्या में आखिरी पड़ाव पर विल करनी पड़े तो दबाव में आकर गलती हो जाती है। कैसी विडम्बना है बचपन में हमारे मां-बाप हमें ऊंगली पकड़ कर चलना सिखाते हैं। आज हम क्यों नहीं उनकी बाजू पकड़ कर चल सकते, उनका सहारा बन सकते, जब उन्हें हमारे सहारे की जरूरत है। बचपन में वह हमारे खाने-पीने दूसरी जरूरतों का ध्यान रखते थे। अगर थोड़ा बुखार भी हो जाता तो रात-रात भर जागकर सेवा करते थे, आज हम क्यों नहीं सेवा कर सकते। हम क्यों नहीं उनका ख्याल रख सकते।पैदा होते ही बच्चे के लिए माता-पिता से बढ़कर कोई नहीं होता, खास करके मां से बढ़कर 10-11 साल तक उनके माता-पिता खासकर पिता हर तरह का ज्ञान रखने वाले समझदार इन्सान होते हैं। 15-20 की उम्र में उसे लगता है उसके मित्रों के पिता उनके पिता से अधिक समझदार हैं, क्योंकि इस उम्र में माता-पिता उनकी दिनचर्या पर नजर रखते हैं। घर देर से न आओ, अधिक न घूमो तो उन्हें लगता है उनके माता-पिता या तो पुराने ख्यालात के हैं या उन्हें और ज्ञान की आवश्यकता है। 25-30 साल में जब उनकी शादी होती है तो उन्हें लगता है माता-पिता जमाने के साथ नहीं चल रहे, उन्हें हर बात पर नुक्स निकालने की आदत है। अगर माता-पिता किसी बात को अपने अनुभव के अनुसार मना करते हैं तो वह मॉडर्न नहीं वो बहू-बेटे को खुश नहीं देख सकते। वो एक नई नवेली लड़की के लिए अपने जन्म देने वाले, पालने वाले माता-पिता को बुरा-भला कहने लगते हैं। वो अपने माता-पिता को गैर जरूरी समझने लगते हैं। कभी उन्हें घर का ताला या किसी-किसी घर में रामू, बहादुर समझा जाता है। ऐसे भी परिवार कम नहीं जहां माता-पिता को आज के जमाने में भी पूजा जाता है।
जीवन में एक समय ऐसा भी आता है जब 50-60 की उम्र के करीब पहुंचते-पहुंचते बच्चों को लगता है कि माता-पिता की सलाह तथा आशीर्वाद के बिना कुछ नहीं करना चाहिए, क्योंकि तब तक उनके बच्चे भी बड़े हो चुके होते हैं। तब उनकी सोच बदलनी शुरू हो जाती है। तब तक उनके माता-पिता में से एक या दोनों संसार से विदा कह चुके होते हैं।यह बिल्कुल सत्य है बेटा तब समझता है जब वह बाप बनता है। बेटी तब समझती है जब वह मां बन जाती है। बहू तब समझती है जब वह खुद सास बनती है परन्तु इस चक्र में सारी जिन्दगी बीत जाती है। वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब द्वारा मैं दो तरह के बुजुर्गों के लिए काम करती हूं। अच्छे घरों के सम्पन्न लोग और जरूरतमंद लोग। जरूरतमंद लोग तो दिखते हैं जो पैसों के अभाव और कमजोर सेहत से दुखी हैं। अच्छे घरों के लोग तो अपना दर्द किसी के सामने बड़ी मुश्किल से कह पाते हैं और उनकी संख्या अधिक होती। सिंघानिया जी जैसा साहस कम लोग ही कर पाते हैं।हमें आदरणीय सिंघानिया जी के अनुभव से और दूसरे बड़े लोगों के अनुभव से जिन्दगी की कड़वी सच्चाई को समझना चाहिए और जीते जी वसीयत करनी चाहिए, पर बच्चों को कुछ देना नहीं चाहिए परन्तु दूसरी तरफ यह भी कहूंगी कि आज भी रामचन्द्र और श्रवण जैसे पुत्रों की कमी नहीं है।

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