पुरानी पैंशन स्कीम गले की फांस
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत देश के पांच राज्यों के विधानसभा और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों से ठीक पहले पुरानी पैंशन व्यवस्था बहाली को लेकर हाल ही में दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई लाखों सरकारी कर्मचारियों की रैली से केन्द्र सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक है। रैली में उमड़े लोगों की संख्या लाखों में होने के चलते पुराने आंदोलनों की याद आ गई। पुरानी पैंशन व्यवस्था बहाली का मुद्दा गले की फांस बनता दिखाई दे रहा है। यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि जब हिमाचल, राजस्थान समेत पांच राज्य पुरानी पैंशन स्कीम को लागू कर चुके हैं तो इसे देश भर में लागू क्यों नहीं किया जा सकता। केन्द्र सरकार पर अपने कर्मचारियों को न्यूनतम पैंशन देने का दबाव है। इसलिए कई फार्मूलों पर विचार किया जा रहा है। केन्द्र सरकार नैशनल पैंशन स्कीम की समीक्षा के लिए वित्त सचिव की अध्यक्षता में कमेटी बना चुकी है। यह कमेटी पैंशन स्कीम को आकर्षक बनाने को लेकर सरकार को अपने सुुझाव सौंपेगी। पहले आंध्र प्रदेश की जगन मोहन रेड्डी सरकार ने एक फार्मूला सुझाया था जिस पर विचार किया गया था लेकिन अब कुछ राज्यों ने मध्य मार्ग अपना कर न्यूनतम पैंशन को सुनिश्चित बनाने का सुझाव दिया है।
राज्यों का सुझाव है कि पुरानी पैंशन स्कीम में प्राप्त अंतिम वेतन का 50 प्रतिशत पैंशन के रूप में दिया जाता है। उसे अब नौकरी शुरू करने के बाद प्राप्त न्यूनतम वेतन का 50 प्रतिशत पैंशन के रूप में दिया जाना चाहिए। राज्य सरकारें प्रत्येक कर्मचारी के लिए न्यूनतम पैंशन सुनिश्चित करना चाहती हैं। अभी तक कांग्रेस शासित राज्यों और आप पार्टी शासित पंजाब ने ही पुरानी पैंशन स्कीम बहाल की है। रिजर्व बैंक और अन्य वित्तीय संस्थान लगातार चेतावनी देते आ रहे हैं कि पुरानी पैंशन स्कीम लागू करने से राजकोष पर बहुत अधिक दबाव पड़ेगा और इससे राज्य सरकारों की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा लेकिन अब यह मुद्दा चुनावी मुद्दा बन चुका है। इस मुद्दे का एक पहलू सामाजिक सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। वह यह है कि कर्मचारियों को इतनी कम पैंशन मिलती है जिससे वह न तो भरपेट भोजन खा सकते हैं और न ही अपने लिए आवश्यक दवाइयां खरीद सकते हैं।
अब समस्या यह है कि नई पैंशन योजना सेवा के वर्षों से कोई इत्तेफाक नहीं रखती है बल्कि यह कार्पस बेस्ड है यानी जितना फंड एनपीएस अकाउंट में होगा उसी हिसाब से पेंशन लेकिन इससे उन कर्मचारियों के ऊपर संकट पैदा हो गया है जिनकी रेगुलर बेस पर नियुक्ति के बाद सेवानिवृत्ति महज 10 से 15 वर्षों के भीतर हो रही है या जिन राज्यों में एनपीएस का कर्मचारी अंशदान कई वर्षों तक काटा ही नहीं गया और न ही सरकारी अंशदान जमा किया गया। फलस्वरूप कोई फंड निवेशित ही नहीं हुआ और अब जबकि उनकी सेवानिवृत्ति या तो नजदीक है या हो गयी है। ऐसे सभी कर्मचारियों के लिए नेशनल पैंशन स्कीम, सेवानिवृत्ति पर न तो मिनिमम पैंशन की गारंटी देती है और न ही उन्हें पुरानी पैंशन की तरह अंतिम सैलरी के आधार पर पैंशन देती है। ऐसे कर्मचारियों को नाम मात्र फंड जमा होने के कारण नाम मात्र की यथा 500 रुपये से लेकर 2000 रुपये की पैंशन मिल रही है। जिसके कारण कर्मचारी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है। हालांकि पैंशन, राज्य का विषय है। चूंकि नेशनल पैंशन स्कीम एक कंट्रीब्यूटरी स्कीम है जिसमें पैंशन के लिए कर्मचारी से बेसिक सैलरी और महंगाई भत्ते का 10 प्रतिशत कर्मचारी अंशदान के रूप में काट लिया जाता है और साथ-साथ सरकार स्वयं 10 प्रतिशत के मुकाबले 14 प्रतिशत का अंशदान जमा करती है। जिसे तीन सरकारी संस्थानों में एलआईसी, एसबीआई और यूटीआई में निवेश किया जाता है ताकि कर्मचारी को मार्किट के अनुसार ब्याज मिल सके और ये संस्थान भी बेहतर परफार्म कर सकें व इन्हें मजबूत किया जा सके। इसके अलावा इसी प्लेटफॉर्म पर स्वावलंबन योजना, अटल पैंशन योजना और निजी क्षेत्र के लिए टियर 2 नाम से योजनाएं भी चल रही हैं।
अब नैशनल पैंशन स्कीम के तहत 6 लाख करोड़ से भी अधिक निवेश हो चुका है। जिसका 85 प्रतिशत हिस्सा लोंग टर्म यानी सरकारी प्रतिभूतियों में और 15 प्रतिशत शेयर मार्किट में लगाया जा चुका है। अब यदि नैशनल पैंशन स्कीम को खत्म कर दिया जाए तो कई योजनाएं बंद हो सकती हैं। जिन राज्यों ने एनपीएस लागू किया उन्होंने कई वित्त संस्थानों के साथ अलग-अलग एग्रीमैंट भी कर रखे हैं। यह एग्रीमैंट पुरानी पैंशन बहाली की योजना में आड़े आ सकते हैं। पुरानी पैंशन योजना की बहाली राज्य सरकारों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है। यह भी वास्तविकता है कि सेवानिवृत्त कर्मचारियों को सम्मानजनक पैंशन नहीं मिल रही। यह भी देखना होगा कि जिन राज्यों में पुरानी पैंशन स्कीम बहाल की है वो किस तरह से इसके लिए फंड की व्यवस्था करते हैं। आंदोलनकारी कर्मचारी वोट की चोट से संदेश देने का संकेत दे रहे हैं। पैंशन शंखनाद महारैली ने राजनीतिक रंग भी दिखा दिया है। दूसरी ओर आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि कोई ऐसा कदम नहीं उठाया जाना चाहिए जो देश की आर्थिक सेहत से खिलवाड़ कर जाए। फिलहाल यह एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन चुका है। देखना है कि केन्द्र सरकार कौन सा फार्मूला अपनाती है जो सभी को स्वीकार्य हो।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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