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‘ब्रिक्स’ के विस्तार का उद्देश्य

01:31 AM Aug 26, 2023 IST
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दक्षिण अफ्रीका के शहर जोहा​न्सबर्ग में ‘ब्रिक्स’ देशों के शिखर सम्मेलन में इसका विस्तार करने का फैसला किया गया है और छह नये देशों अर्जेंटीना, सऊदी अरब, ईरान, संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र व इथियोपिया को इसका स्थायी सदस्य बनाया गया है। ब्रिक्स (ब्राजील, भारत, चीन, रूस व दक्षिण अफ्रीका) का संगठन ऐसा सपना है जिसे भारत रत्न स्व. प्रणव मुखर्जी ने भारत के विदेश मन्त्री के तौर पर 2006 में देखा था। सितम्बर 2006 में संयुक्त राष्ट्र महासंघ की साधारण सभा में भाग लेने गये प्रणव दा ने तब इस सम्मेलन के समानान्तर बैठक करके भारत, रूस, चीन व ब्राजील का एक महागठबन्धन तैयार किया था जिसे शुरू ‘ब्रिक’ कहा गया। प्रणव दा बदलते विश्व शक्ति क्रम में उदीयमान आर्थिक शक्तियों की समुचित व जायज सहभागिता के प्रबल समर्थक थे और पुराने पड़ते राष्ट्रसंघ के आधारभूत ढांचे में रचनात्मक बदलाव भी चाहते थे। इसके साथ ही वह बहुध्रुवीय विश्व के भी जबर्दस्त पक्षधर थे जिससे विश्व का सकल विकास न्यायसंगत तरीके से हो सके। इसीलिए उन्होंने सितम्बर 2006 में एशिया, यूरोप व दक्षिणी अमेरिका महाद्वीपों का प्रतिनिधित्व करने वाले चार देशों का प्रभावशाली समूह तैयार किया जिसमें बाद में 2010 में अफ्रीका महाद्वीप का तेजी से विकास करता देश दक्षिण अफ्रीका भी जुड़ गया और ब्रिक बदल कर ब्रिक्स हो गया। अब इसमें इन्हीं महाद्वीपों के छह नये देश शामिल किये गये हैं। 
ब्रिक्स का विस्तार होने के बाद दुनिया के दूसरे देशों के लोगों को भी विश्व विकास में अपनी हिस्सेदारी के प्रति ज्यादा विश्वास पैदा होगा और यकीन बनेगी कि दुनिया केवल पश्चिमी यूरोप व अमेरिका के बताये गये सिद्धान्तों पर ही नहीं चलेगी बल्कि इसके संचालन में उनकी भूमिका भी उल्लेखनीय होगी क्योंकि विभिन्न आय व मानव स्रोतों पर उनका भी हक है। अपने गठन से लेकर अब तक ब्रिक्स ने जो तरक्की की है उसकी उपलब्धि इसके क्षेत्रों की वह आपसी समझदारी रही है जिसके तहत उन्होंने आपसी हितों की सुरक्षा करते हुए विश्व को नया शक्ति सन्तुलन चक्र देने का प्रयास किया है। इसका उदाहरण रूस, यूक्रेन के बीच पिछले डेढ़ वर्ष से चल रहा वह युद्ध है जिसे पश्चिमी देशों के सामरिक संगठन ‘नाटो’ ने अनावश्यक रूप से पूरी विश्व अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बना दिया है। 
इस युद्ध के चलते पश्चिमी यूरोपीय देशों व अमेरिका ने रूस पर जिस तरह आर्थिक प्रतिबन्ध लगाये हैं उनसे दुनिया के देशों में आपसी कारोबारी भुगतान की नई समस्या ने जन्म लिया है जिसकी वजह से ये देश डालर के स्थान पर अपनी-अपनी मुद्राओं में भुगतान की व्यवस्था की सार्थकता को खोज रहे हैं। इसी वजह से ब्रिक्स सम्मेलन की समाप्ति पर दक्षिण अफ्रीका के मेजबान राष्ट्रपति श्री सिरिल रामाफोसा ने घोषणा की कि सम्मेलन में इस बात पर सहमति बनी है कि संगठन के देशों के विदेश मन्त्री व उनके केन्द्रीय बैंकों के गवर्नरों की एक बैठक बुलाकर यह विचार किया जाये कि क्या कारोबारी भुगतान के लिए देश अपनी- अपनी मुद्रा का प्रयोग कर सकते हैं? ऐसी वित्तीय प्रणाली  विकसित होने से दुनिया में जिस नये वित्तीय ढांचे का निर्माण होगा उससे इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं सीधे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगी जिसके असर से ‘डालर’ की ताकत को भी झटका लगेगा।
 ब्रिक्स की सदस्यता के लिए कुल 23 नये देशों ने आवेदन किये थे जिनमें से छह को ही अभी स्थायी सदस्यता प्रदान की गई है। इनमें भारत का पड़ोसी देश बांग्लादेश भी शामिल है। संगठन में यदि बांग्लादेश को भी शामिल किया जाता है तो इससे भारत की ही ताकत बढे़गी और भारतीय उपमहाद्वीप की सहभागिता में वृद्धि होगी। इस विस्तार का सन्देश श्री रामाफोसा के अनुसार यही है कि विश्व की सभी संस्थाएं स्वयं को बदलते समय के अनुसार बदलें। भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भी इस मुद्दे पर जो विचार व्यक्त किये वे भी भारत के उसी  मूल मत के अनुसार हैं जिनका प्रतिपादन 2006 में स्व. प्रणव मुखर्जी ने किया था और कहा था कि आज की दुनिया द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दुनिया के क्रम में नहीं रह सकती क्योंकि दुनिया की आवश्यकताएं बदल चुकी हैं।
 श्री मोदी ने कहा कि भारत शुरू से ही ब्रिक्स के विस्तार के हक में रहा है। नये सदस्यों के आने से संगठन तो मजबूत होगा ही मगर साथ ही आपसी सहयोग के नये दरवाजे भी खुलेंगे। इससे अधिक से अधिक देशों का बहुध्रवीय विश्व में विश्वास जमेगा। फिलहाल ब्रिक्स के पांच देशों की जनसंख्या दुनिया के 41 प्रतिशत है और सकल विश्व व्यापार में इसका हिस्सा 16 प्रतिशत व विश्व उत्पाद में 24 प्रतिशत है। नये देशों के शामिल होने से इसमें और वृद्धि होगी खास कर तेल उत्पादक देशों की सहभागिता से दुनिया में इस संगठन की महत्ता बढे़गी। इसका प्रभाव विश्व को अधिक न्यायपूर्ण, सौहार्दमूलक व तनाव मुक्त बनाने पर भी निश्चित रूप से पड़े बिना नहीं रह सकता। बेशक इसमें चीन भी शामिल है जिसे लेकर अमेरिका व प. यूरोपीय देशों समेत एशिया व अफ्रीकी  देशों तक में शंका का वातावरण जरूर बना रहता है मगर चीन का विकास भी इन्हीं देशों के सहयोग पर निर्भर करता है जिससे यह उम्मीद बनी रहती है कि चीन अपनी चाल मेआवश्यक संशोधन करेगा।
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