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भाजपा का ‘चुनावी गणित’

03:14 AM Dec 14, 2023 IST
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सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर भारत के तीनों राज्य छत्तीसगढ़, राजस्थान व मध्य प्रदेश जीत कर जिस तरह वहां अपने मुख्यमन्त्रियों का चयन किया है उससे स्पष्ट है कि पार्टी चार महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनावों में अपने लिए विजय रणभेरी बजाने की चुनावी शतरंज बिछा रही है। भाजपा ने इन राज्यों की बागडोर नये चेहरों को देने का फैसला करके सभी राजनीतिक दिग्गजों समेत अपनी पार्टी के ‘मठाधीशों’ को भी भोंचक्का करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। राजनीति एेसी शह है जिसमें हर नेता कभी न कभी पहली बार ही शिखर पद पर विराजता है और वहां बैठने के बाद वह अपनी उपयोगिता सिद्ध करता है। उसे लोकप्रियता भी पद पर आरूढ़ होने के बाद ही अपने कामों से मिलती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्वयं प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी हैं। जब 2014 में वह पहली बार प्रधानमन्त्री बने थे और भाजपा संसदीय दल की बैठक में उन्हें नेता चुना गया था तो भाजपा के उस समय के कद्दावर नेता व पूर्व उप प्रधानमन्त्री श्री लालकृष्ण अडवानी ने टिप्पणी की थी कि ‘मोदी जी पहली बार लोकसभा के सदस्य बने हैं और उन्हें प्रधानमन्त्री पद दिया जा रहा है अतः उन्हें बहुत संभल कर काम करना होगा’। इसका जवाब तब श्री मोदी ने दिया था कि ‘अडवानी जी जीवन मैं हर काम कभी न कभी पहली बार ही किया जाता है’। तब से लेकर आज तक देश की जनता देख रही है कि पूरे देश में ‘मोदी-मोदी’ कैसे हो रहा है।
दरअसल यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह अपने जीवन के हर ‘पहले’ काम को किस लगन व दक्षता के साथ करता है। अब तीन राज्यों के मुख्यमन्त्रियों विष्णु देव साय, भजन लाल व मोहन यादव को लिया जाये तो ये तीनों भाजपा की तरफ से जाति जनगणना के नाम पर पिछड़े वर्ग को विपक्ष द्वारा लुभाने की काट के तौर पर दिखाई पड़ते हैं। श्री साय छत्तीसगढ़ के मुख्यमन्त्री बने हैं और वह आदिवासी समाज से आते हैं। यह राज्य मूल रूप से आदिवासियों के लिए ही बनाया गया था और इसकी विधानसभा में इस समाज के लिए लगभग 30 सीटें आरक्षित भी हैं। आदिवासियों में अभी तक कांग्रेस की पकड़ मजबूत मानी जाती रही है मगर 2000 में इस राज्य को जब मध्य प्रदेश से काट कर अलग बनाया गया था तो मुख्यमन्त्री पद पर कांग्रेस के स्व. अजित जोगी बैठे थे। वह पूर्व आईपीएस अधिकारी थे और उनके आदिवासी होने पर खासा विवाद था। उनके आदिवासी प्रमाणपत्र को भी तब भाजपा समेत अन्य विरोधी पार्टियां चुनौती देती थीं। मगर 2003 तक ही श्री जोगी ने राज्य के शासन का जिस तरह पारिवारिकरण किया उसके परिणाम स्वरूप राज्य में भाजपा इस वर्ष हुए चुनावों में जम गई और भाजपा के रमन सिंह 2018 तक मुख्यमन्त्री पद पर जमे रहे। उन्हें कांग्रेस नहीं हिला सकी।
2018 के चुनावों में कांग्रेस धूमधड़ाके से सत्ता पर बैठी और श्री भूपेश बघेल मुख्यमन्त्री बने परन्तु 2023 में ही उनकी सरकार को चुनावों में लोगों ने नकार दिया और पुनः सत्ता भाजपा के हाथों में सौंप दी जिसकी वजह से श्री साय मुख्यमन्त्री बने। रमन सिंह भी पिछड़ा वर्ग से थे और बघेल भी। वास्तव में पहली बार निर्विवाद रूप से एक आदिवासी व्यक्ति साय के रूप में छत्तीसगढ़ का मुख्यमन्त्री बना है। इसका सन्देश आदिवासियों में भाजपा के प्रति सहानुभूति पैदा करने वाला ही होगा क्योंकि पार्टी ने राष्ट्रपति पद पर भी एक आदिवासी महिला श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को इससे पहले बैठाया था। मगर राजस्थान में तो भाजपा ने गजब का जातिगत समीकरण बैठाने की बाजी बिछाई है। यहां मुख्यमन्त्री ब्राह्मण भजन लाल शर्मा को बनाया गया है जबकि एक उप मुख्यमन्त्री प्रेमचन्द्र बैरवा दलित समाज से और दूसरी उपमुख्यमन्त्री राजपूत समाज से श्रीमती दीया कुमारी बनाई गई हैं। राजस्थान का समाज अर्ध सामन्ती है। यहां जाति गौरव व जाति पहचान के मायने अलग ही अर्थों में होते हैं। जातिगत जनगणना को कांग्रेस के नेता श्री राहुल गांधी जिस प्रकार से हवा दे रहे हैं उसकी आंच से अपने घर को बचाये रखने का भाजपा का यह प्रयास है।
बेशक यह कार्य प्रतीकों के माध्यम से ही किया गया है जो कि भाजपा की जनसंघ के जमाने से ही रणनीति रही है मगर आम जनता में इसका प्रभाव ‘भावुकता’ के दायरे में खासा होता आया है। राज्य में वसुन्धरा राजे की कथित बगावत का जो डंका पीटा जा रहा था उसकी आवाज शायद ही अब सुनने को मिले क्योंकि ब्राह्मण-दलित-राजपूत गठजोड़ लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत की गारंटी बन सकता है। मध्य प्रदेश में तो श्री मोहन यादव को चुनकर भाजपा ने विपक्ष के हाथों के तोते ही उड़ा दिये। मध्य प्रदेश में जिस तरह ‘शेर शिवराज’ की तूती बोला करती थी उसकी आवाज को भाजपा ने ‘नक्कारखाने’ से दूसरी तूती जोरदार ढंग से बजा कर नाकारा बना डाला क्योंकि यादव तो पिछड़े समुदाय का सबसे मुखर समाज मध्य प्रदेश में भी माना जाता है। इसका असर उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों में पड़े बिना नहीं रहेगा क्योंकि इन राज्यों का अहीर समाज राजनीति में अहम किरदार निभाने को हमेशा ही बेताब रहता है। एक जमाना था कि 1967 में हरियाणा में कांग्रेस के राव वीरेन्द्र सिंह ने विद्रोह करके अपनी अलग ‘विशाल हरियाणा पार्टी’ बनाई थी और इसी साल राज्य में संयुक्त विधायक दल की विपक्षी दलों की गैर कांग्रेसी सरकार भी चलाई थी। उत्तर प्रदेश में स्व. मुलायम सिंह की ‘यादव-मुस्लिम’ राजनीति को सभी जानते हैं। कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि भाजपा ने उत्तर भारत में जातिगत राजनीति की काट अपना जाति कार्ड चल कर ढूंढ ली है और लोकसभा चुनावों में वह इन्हीं समीकरणों के साथ मैदान में श्री मोदी के नेतृत्व में उतरेगी।

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