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मणिपुर में लोकतंत्र का मजाक

04:07 AM Aug 31, 2023 IST
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मणिपुर की स्थिति काफी चिंताजनक है और शांति बहाली के लिए बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। राज्य एक रक्त रंजित युद्ध क्षेत्र जैसा बन गया है। लगभग 4 महीने से जारी हिंसा में 180 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और 35000 से ज्यादा लोग शरणार्थी हो चुके हैं। अभी भी लोगों के घर जलाए जा रहे हैं। दोनों समुदायों में फायरिंग की खबरें और फायरिंग में मौतों का सिलसिला जारी है। राज्य सरकार ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं। राज्य की अराजक स्थिति के बीच जिस तरीके से मणिपुर विधानसभा का सत्र चलाया गया वह लोकतंत्र का मजाक उड़ाने वाला ही है। 3 मई को राज्य में भड़की हिंसा के बाद यह पहला मौका था जब विधानसभा सत्र बुलाया गया। विधानसभा का एक दिवसीय सत्र संवैधानिक जरूरतों के चलते बुलाया गया था क्योंकि विधानसभा के दो सत्रों के बीच 6 माह से ज्यादा का अंतराल नहीं होना चाहिए। स्पष्ट है कि विधानसभा सत्र कानूनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ही बुलाया गया। इसका राज्य में शांति बहाली को लेकर कोई लेना-देना नहीं था। लोकतंत्र का सबसे बड़ा मजाक यही रहा कि यह सत्र केवल 11 मिनट चला। हैरानी की बात यह रही कि विधानसभा में चन्द्रयान-3 पर तो चर्चा हुई लेकिन मणिपुर हिंसा पर कोई बात नहीं हुई। हालांकि सत्र के अंत में राज्य में बातचीत के जरिए शांति स्थापित करने को लेकर आनन-फानन में प्रस्ताव पारित कर दिया गया। 60 सदस्यीय विधानसभा में 10 कुकी-जोमी विधायकों ने सत्र का ​बहिष्कार किया। इन विधायकों ने पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि वह सुरक्षा कारणों के चलते इंफाल की यात्रा नहीं करेंगे और सरकार ने भी इन विधायकों की सुरक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं की। सत्र में 10 नगा ​विधायकों समेत अन्य सभी सदस्य मौजूद रहे। 
हालांकि, विधानसभा सत्र संचालन के तरीके से राज्य में भाजपा के गठबंधन सहयोगी भी नाखुश थे। मणिपुर में भाजपा के साथ गठबंधन सहयोगी और एनडीए का हिस्सा नेशनल पीपुल्स पार्टी  ने सत्र को पूरी तरह से अलोकतांत्रिक बताया। उन्होंने कहा कि सरकार के सहयोगियों को अंधेरे में रखा गया था। कुछ  विधायकों ने कहा कि हम एनडीए और एनईडीए (भाजपा द्वारा गठित पूर्वोत्तर लोकतांत्रिक गठबंधन) का हिस्सा हैं। यही वजह है कि हम सिर्फ मूकदर्शक बने हुए हैं। सेशन शुरू होने से पहले दिन का कामकाज विधायकों को सौंप दिया गया। हममें से कोई भी कल्पना नहीं कर सकता था कि इस तरह का सत्र आयोजित किया जाएगा। उन्होंने अपनी मर्जी से हर नियम और प्रक्रिया का उल्लंघन किया है। जनता एक उचित समाधान पर पहुंचने के लिए गहन चर्चा की मांग कर रही है। बाद में जो प्रस्ताव सौंपा गया, उसके बारे में भी गठबंधन सहयोगियों को जानकारी नहीं थी। यह सभी लोकतांत्रिक प्रथाओं के खिलाफ है।
कांग्रेस पहले ही मांग कर रही थी कि सत्र कम से कम पांच दिन का होना चाहिए और मणिपुर की हिंसा एजेंडे में शामिल होनी चाहिए। कांग्रेस विधायकों के हंगामे के चलते अध्यक्ष ने सदन को ​अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया। राज्यों की विधानसभा लोकतंत्र के मंदिर के समान होती है जहां सत्ता पक्ष और विपक्ष को राज्य की समस्याओं और चुनौतियों पर सार्थक बहस की जाती है लेकिन मणिपुर विधानसभा ने तो कुछ अलग ही दृश्य पेश किया। मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह ने भी राज्य की हिंसा पर चर्चा करने पर कोई ज्यादा रुचि नहीं दिखाई। मणिपुर कांग्रेस के विधायकों ने सदन के प्रस्ताव पर ही सवाल खड़े कर दिए। उनका कहना था कि प्रस्ताव का स्पीकर ने ऐलान ही नहीं किया और इसे स्पीकर की ओर से पढ़ा गया और न ही इसकी सदन के भीतर कोई चर्चा हुई। ऐसे में लोकतंत्र की रक्षा कैसे होगी और संविधान कैसे बचेगा। सत्र बुलाने से पहले 15 दिन का नोटिस राज्यपाल की ओर से दिया जाता है लेकिन ऐसा नहीं किया गया। जिस तरह से यह सत्र बुलाया गया वह किसी आपात स्थिति जैसा था। नियमों का खुला उल्लंघन किया गया। मणिपुर की स्थिति पर झारखंड विधानसभा, पश्चिम बंगाल विधानसभा, दिल्ली विधानसभा में चर्चा हो चुकी है लेकिन जिस राज्य में हिंसा हुई वहां के जनप्रतिनिधियों ने इस पर चर्चा करना गवारा नहीं समझाा। मणिपुर में हिंसा की घटनाएं तब शुरू हुई जब इस साल अप्रैल के महीने में हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को मणिपुर के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजातियों के समक्ष आरक्षण देने पर विचार करने को कहा। नगा और कुकी समुदाय ने मैतेई लोगों को आरक्षण देने का विरोध किया। इसके बाद हिंसा भड़क गई और हिंसा का ऐसा तांड़व हुआ कि समाज एक तरह से बंटा हुआ नजर आने लगा। हिंसा रोकने के लिए सेना को भी भेजा गया लेकिन अभी तक वहां शांति की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही। मैतेई और कुकी समुदाय के बीच विभाजन गहरा गया है। राज्य में शांति बहाली कैसे होगी राज्य सरकार केवल अंधेरे में ही तीर चला रही है। 
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