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लोकतन्त्र और लोक कल्याण

02:30 AM Nov 07, 2023 IST
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लोकतन्त्र और लोक कल्याण दोनों एक-दूसरे के सम्पूरक होते हैं। ऐसी स्थापना हमारे संविधान निर्माताओं ने की और इसके परिपालन के लिए राजनैतिक दलों को अधिकृत किया। चुनाव लोकतान्त्रिक प्रणाली के आधार होते हैं अतः राजनैतिक दलों ने चुनावों के अवसर पर लोक कल्याणकारी नीतियां जनता के सामने रखने का प्रचलन शुरू किया जिसे घोषणापत्र कहा गया। हर चुनाव की अलग परिस्थितियां होती हैं अतः घोषणापत्र भी हर बार नये प्रस्तुत किये जाते हैं। भारत जब आजाद हुआ था तो इसकी 90 प्रतिशत से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर करती थी। इसमें भी शहरी आबादी 20 प्रतिशत के आसपास थी। मगर आज 75 साल बाद तस्वीर बदल चुकी है। भारत के शहरीकरण में तेजी से वृद्धि हुई है और कृषि क्षेत्र पर लोगों की निर्भरता में भी कमी आयी है। इसका मतलब यह है कि हमने तरक्की की है। अब 2023 चल रहा है और भारत की आबादी बढ़ कर 140 करोड़ हो चुकी है जबकि आजादी के समय 1947 में यह 33 करोड़ के करीब थी। बढ़ती आबादी की बढ़ती मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति करना किसी भी लोकतन्त्र में चुनी गई सरकारों का मूल दायित्व होता है। ये चुनी हुई सरकारें जनता की मालिक नहीं होती बल्कि उसकी नौकर होती हैं क्योंकि जनता इन्हें केवल पांच साल के लिए ही देश की व्यवस्था चलाने की जिम्मेदारी सौंपती है।
इस दौरान चुनी हुई सरकारें अपनी लोक कल्याणकारी नीतियों को चला कर जनता के प्रति मिले दायित्व को पूरा करने का प्रयास करती है। अतः आज भारत के जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं उनमें पिछले चुनावों के बाद सत्ता पर काबिज सरकारों और उनकी राजनैतिक पार्टियों का दायित्व बनता है कि वे जनता के सामने अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करने के बाद अगले पांच सालों के लिए उसकी इजाजत मांगें। यह जनता पर निर्भर करता है कि वह सरकार के काम से सन्तुष्ट होती है या नहीं क्योंकि उसके सामने विकल्पों की कमी नहीं होती। लोकतन्त्र की बहुराजनैतिक प्रणाली में कभी भी विकल्पों की कमी नहीं रहती है, यह भी इस व्यवस्था की खूबसूरती होती है। इसके चलते ही हमने केन्द्र से लेकर विभिन्न राज्यों में विभिन्न राजनैतिक दलों की सरकारें देखी हैं। प्रत्येक राजनैतिक दल के अपने कुछ मूलभूत सिद्धान्त होते हैं जिनके तहत वे सत्ता में आने पर लोक कल्याणकारी कदम उठाने का दावा करते हैं। इसे हम इस तरह देख सकते हैं कि 2004 से 2014 तक केन्द्र में चली डा. मनमोहन सिंह की कांग्रेसनीत सरकार ने 2013 में कानून बनाया कि भारत में प्रत्येक व्यक्ति को दोनों वक्त भोजन करने का अधिकार दिया जायेगा। इसके लिए भोजन का अधिकार कानून बना परन्तु 2014 में केन्द्र में सरकार बदल गई।
भोजन का अधिकार बेशक कानून बन गया मगर इसका उपयोग 2020 में देश में कोरोना संक्रमण काल के समय मोदी सरकार ने किया जब लगभग 80 करोड़ लोगों को प्रतिमाह पांच किलो मुफ्त राशन देने की व्यवस्था की गई। अब इस योजना को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने पांच साल औऱ आगे जारी रखने का फैसला किया है। इसका मतलब यह हुआ कि लोक कल्याणकारी नीतियां बनाना हर सरकार का प्राथमिक दायित्व होता है। सरकार चूंकि एक सतत् प्रक्रिया होती है अतः हर सरकार के लिए लोक कल्याण के काम करना जरूरी शर्त होती है परन्तु इन नीतियों के चलते भी हर राजनैतिक दल की सरकार का विकास ढांचा अलग हो सकता है। विकास के लिए आर्थिक नीतियों की जरूरत होती है और हर सरकार की आर्थिक नीतियां अलग ही होती हैं। लोक कल्याण का रास्ता इन्हीं नीतियों के बीच से निकलता है।
बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में यह कार्य बहुत दुष्कर होता है क्योंकि यह व्यवस्था हर नागरिक को एक उपभोक्ता के रूप में देखती है। सवाल उठना लाजिमी है कि 80 करोड़ लोग पहले उपभोक्ता हैं या नागरिक। भारतीय संविधान के अनुसार ये उतने ही अधिकार सम्पन्न नागरिक हैं जितने कि अन्य सम्पन्न वर्गों के नागरिक क्योंकि इनके पास भी एक वोट का बराबर का संवैधानिक अधिकार है। मुफ्त भोजन पाना इनका कानूनी अधिकार है। इसी प्रकार अगर शिक्षा को लें तो पहली से आठवीं तक की शिक्षा पाना भी भारत में जन्मे हर बच्चे का मूल अधिकार है। लोकतन्त्र में नागरिकों को जो अधिकार एक बार दे दिया जाता है उसे वापस लेना कभी संभव नहीं होता क्योंकि वह नव विकसित समाज के ढांचे का अंग बन जाता है। इसी प्रकार स्वास्थ्य का भी मामला है। केन्द्र ने आयुष्मान स्कीम चलाई तो विभिन्न राज्य सरकारों ने भी अपनी-अपनी स्वास्थ्य बीमा स्कीमें नागरिकों के लिए शुरू की। लोकतन्त्र में इस प्रकार की लोक कल्याणकारी नीतियों के लिए प्रतियोगिता का होना स्वागत योग्य होता है क्योंकि इससे सर्वाधिक रूप से नागरिक ही लाभान्वित होते हैं। अतः लोकतन्त्र में जब लोक कल्याणकारी नीतियां विभिन्न राजनैतिक दलों के बीच प्रतियोगिता का माध्यम बन जाती हैं तो आम जनता का सशक्तीकरण भी तेज होने लगता है और इससे अन्ततः आर्थिक विषमता के कम होने के आसार ही बनते हैं परन्तु देश तभी मजबूत बनता है जब प्रत्येक नागरिक उत्पादनशीलता में भागीदारी करे। अतः लोकतन्त्र इस तरफ भी बराबर का जोर डालते हुए जन कल्याणकारी नीतियां बनाता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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