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वायु प्रदूषण की असली ‘जड़’

06:00 AM Nov 04, 2023 IST
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आजकल दिल्ली व मुम्बई समेत देश के कुछ महानगरों में और उनकी निकाय के उप शहरों में वायु प्रदूषण को लेकर जो कोहराम मचा हुआ है, उसके मूल कारणों की तरफ ध्यान दिये बिना इस समस्या का निवारण संभव नहीं है। शहरों के प्रदूषण के लिए गांवों के किसानों को जिम्मेदार ठहराने की जो मानसिकता दल-गत राजनीति की वजह से विकसित हुई है, उसका हल भी ढूंढना होगा। दिल्ली से लगे राज्यों पंजाब, हरियाणा या उत्तर प्रदेश के गांवों के खेतीहर किसानों ने पिछले आठ-दस वर्षों से ही पुराल या पराली जलानी शुरू नहीं की है बल्कि वे सदियों से यह काम करते आ रहे हैं। पराली से उठने वाला धुआं शहरों के वायुमंडल में आकर क्यों ठहरने लगा है? इसका कारण भी तो हमें जानना होगा। इसका मूल कारण शहरों का अन्धाधुंध व बेतरतीब विकास और इन्हें कंक्रीट के जंगल में तब्दील करना है। दिल्ली की भाजपा बनाम कांग्रेस राजनीति ने इस समस्या को इस कदर भयावह बनाया कि अब इस शहर में आबादी का विस्फोट हो चुका है।
दिल्ली की आबादी अब सवा दो करोड़ के करीब पहुंच चुकी है। इसकी मुख्य वजह दिल्ली को मुख्य पूंजी केन्द्र व रोजगार परक बनाना है। हमने विकास की जिस प्रक्रिया को आजादी के बाद अपनाया था उसका केन्द्र केवल बड़े-बड़े शहर नहीं थे। प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू का प्रयास था कि भारत का विकास चहुंमुखी व सभी दिशाओं में हो। इसीलिए उन्होंने पहला भिलाई इस्पात संयन्त्र तत्कालीन संयुक्त मध्य प्रदेश के छोटे से नगर दुर्ग के पास खाली पड़ी जमीन भिलाई पर लगाया और पं. बंगाल के दुर्गापुर जैसे सामान्य इलाके में स्थापित किया। आर्थिक व औद्योगिक विकास को राष्ट्रीय विकास से जोड़ने की जो दूरदृष्टि नेहरू में थी उसी का प्रभाव था कि उन्होंने दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता व चेन्नई जैसे बड़े शहरों में कोई नये बड़े उद्योग स्थापित नहीं किये बल्कि इन शहरों से जुड़ने वाले निर्जन समझे जाने वाले इलाकों को बड़े उद्योगों के लिए चुना गया। नेहरू के विकास माॅडल के प्रभाव से देश में छोटे व मंझोले उद्योगों का जो विकास हुआ उनका केन्द्र कालान्तर में ये बड़े-बड़े शहर बनते गये जिनका विरोध अपने जीवित रहते समाजवादी चिन्तक व जन नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने किया। उनका नारा था कि औद्योगीकरण की दिशा गांवों से शहरों की तरफ नहीं बल्कि शहरों से गांवों की तरफ होनी चाहिए जिससे भारत का न केवल औद्योगिक विकास हो बल्कि सामाजिक विकास भी हो क्योंकि औद्योगिकरण सामाजिक पिछड़ेपन व दकियानूसी मानसिकता पर भी गहरी चोट करता है। यही वजह है कि हम आज भारत में दो तरह के देश देखते हैं।
एक भारत वह जो शहरों में रहता है और अपनी पूंजी की ताकत से गांवों को रिझाता है और दूसरा भारत वह जो गांवों में रहता है और अपनी विपन्नता की वजह से कथित विकास को मुंह चिढ़ाता है। इसके साथ यह भी कड़वी हकीकत है कि हमने बड़े-बड़े महानगरों का विकास गांवों की कीमत पर ही किया है। शहरों के समीप बसे गांवों को उजाड़ कर इन शहरों का विस्तार जिस तरीके से किया गया उससे शहरी विकास की वह विद्रूपता सामने आयी जिसे झुग्गी-झोपड़ी कालोनी या अनियमित कालोनी कहा जाता है। दिल्ली मास्टर प्लान के नाम पर इस महानगर में छोटी व मंझोली औद्योगिक इकाइयों को स्थापित किया गया और दिल्ली की आबादी को लगातार बढ़ाया गया। जरा सोचिये जब 1967 के आसपास दिल्ली की आबादी केवल 50 लाख के करीब थी तो तभी इसमें जन सुविधाओं का भारी अभाव था। 1965 के करीब ही दिल्ली में बहने वाली जमुना नदी किसी गन्दे नाले का स्वरूप ले चुकी थी। मगर इसके बावजूद बाद के वर्षों में हमने दिल्ली के विकास के ढांचे को बदलने की तरफ ध्यान नहीं दिया। हमने पहले दिल्ली परिवहन संस्थान को दिल्ली परिवहन निगम में बदला और उसके बाद कि.मी. स्कीम चला कर निजी बसों की संख्या बढ़ाई और मुनाफे का बाजार गर्म किया। इसके बाद हमने मेट्रो चलाई और पूरी दिल्ली को खोद डाला। यह सब इसी वजह से हुआ कि राजधानी में वोटों की राजनीति के चलते राजनैतिक दलों ने इसके विकास की सीमाओं को ताक पर रख कर केवल अपना हित देखा। 80 के दशक में जब कांग्रेस के नेता और स्वतन्त्रता सेनानी जगप्रवेश चन्द्र मुख्य कार्यकारी पार्षद थे तो उन्होंने एक बहुत गंभीर चेतावनी दी थी कि यदि दिल्ली की बढ़ती आबादी को न रोका गया तो एक दिन ऐसा आ सकता है कि मेहनत-मजदूरी करने वाले लोग रात्रि विश्राम के लिए बड़े-बड़े मकानों के सेहनों को अपना रात्रि बसेरा बनायें और सुबह होते ही काम पर निकल जायें। मगर इसका तोड़ हमने नोएडा को बसा कर निकाल लिया।
1967 में नोएडा की परिकल्पना उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री स्व. चन्द्रभानु गुप्ता ने इसे एक फिल्म सिटी बनाने के रूप में की थी और इसका उद्घाटन प्रसिद्ध सिने अभिनेता स्व. सुनील दत्त से कराया था। परन्तु बाद में नारायण दत्त तिवारी ने इसे एक औद्योगिक व रिहायशी नगरी में बदल दिया और मुलायम सिंह मायावती ने इसे कंक्रीट का जंगल बनाने में पूरा योगदान दिया। बल्कि इसके समीप ही ग्रेटर नोएडा भी विकसित करके इसकी हालत भी नोएडा जैसी कर डाली। बाद में आर्थिक उदारीकरण और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने इन शहरों को ही अपना अड्डा बना लिया। परिणाम यह हुआ कि चाहे गुड़गांव हो या अन्य आसपास के इलाके पूंजी केन्द्र व आबादी केन्द्र बनते गये। सकल पर्यावरण प्रदूषण का इससे गहरा लेना देना है। लगातार निर्माण कार्यों का चलते रहना और औद्योगिक इकाइयों व बढ़ते वाहनों से होने वाले प्रदूषण को आखिरकार वातावरण किस तरह अपने में जज्ब नहीं करेगा और हम दोष मेहनती किसानों पर मढेंगे तो समस्या का हल कभी नहीं मिलेगा। पराली की राख किसानों की जमीन की उपजाऊ क्षमता को बरकरार रखने में सहायक होती है। मगर हमने तो विकास की अंधी दौड़ में शामिल होना ठान रखा है और अपने जल, जंगल और जमीन की कीमत पर ठान रखा है तो इसका उपाय कैसे निकलेगा? इस गूढ़ विषय पर आप जरा सोच कर देखिये।

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