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संसद: पक्ष-विपक्ष दोनों जरूरी

05:46 AM Dec 20, 2023 IST
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कल्पना की कीजिये कि संसद ऐसी हो जिसमें विपक्षी सांसदों की सीटें खाली पड़ी हों और सत्ता पक्ष अपने विधेयकों को धड़ाधड़ तरीके से पारित करा रहा हो। भारत के लोकतन्त्र को दुनिया का सबसे बड़ा संसदीय लोकतन्त्र कहा जाता है। एेसा इसलिए नहीं है कि इसकी संसद का चुनाव दुनिया के सभी लोकतान्त्रिक देशों के मुकाबले सर्वाधिक मतदाता अपना मत देकर करते हैं बल्कि इसलिए है कि इसकी संसद में विपक्ष का यदि अकेला भी मत सत्ता से अलग हो तो उस पर भी पूरी संसद गंभीरता के साथ विचार करती है। हमारे महान दूरदर्शी संविधान निर्माताओं ने हमारे हाथों में जो पुख्ता संसदीय व्यवस्था सौंपी थी उसमें इस बात की गारंटी थी कि संसद की सत्ता सरकार से अलग रखी जायेगी जिससे इसमें पहुंचे हर दल के सांसद के अधिकारों की रक्षा हो सके। इसका दायित्व लोकसभा में इसके अध्यक्ष को सौंपा गया और राज्यसभा में इसके सभापति को सौंपा गया। इन दोनों पदों को राजनीति से ऊपर रखते हुए ‘सदाकत’ और न्यायपरक और दलीय रूप से निरपेक्ष बनाये रखने के लिए इन्हें एेसे अधिकार, संसद चलाने के नियम बना कर दिये गये जिससे किसी भी सत्ता पक्ष और विपक्ष के सांसद के बीच कभी भी कोई भी भेदभाव या पक्षपात न हो सके। इसकी एक प्रमुख वजह यह थी कि लोकसभा में पहुंचे प्रत्येक सांसद का चुनाव देश का आम मतदाता ही करता है अतः प्रत्येक सांसद की ताकत व्यक्तिगत रूप से बराबर ही होती है, चाहे वह सत्ता पक्ष में बैठे या विपक्ष में। लोकसभा में सभी सांसदों की इस ताकत व अधिकारों के संरक्षक लोकसभा अध्यक्ष होते हैं।
लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली में जब कोई पार्टी या समूह विपक्ष में बैठता है तो उसका पहला दायित्व हर कदम पर सरकार के कामकाज की तसदीक करना या समीक्षा करना होता है जिससे वह उस मतदाता के प्रति अपनी जवाबदेही पूरी कर सके जिसने उसे चुनकर भेजा है। इसके साथ ही भारत का लोकतन्त्र ‘सहभागिता का लोकतन्त्र’ कहलाया जाता है। इसका मतलब भी यही निकलता है कि लोगों द्वारा चुनी गई सरकार के हर कार्य में विपक्ष के लोगों की सहभागिता भी हो जिससे भारत के शासन के चलाने का कार्य गणतान्त्रिक तरीके से हो सके। इसलिए लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष श्री जी. मावलंकर का यह कथन बेवजह नहीं था कि संसद पर पहला अधिकार ‘विपक्ष’ का होता है। यही नियम राज्यसभा पर भी लागू होता है मगर जिस प्रकार संसद के दोनों सदनों से पिछले दो दिनों में ही कुल 141 सांसद इन सदनों से निलम्बित किये गये हैं उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि क्या भारत की संसद में 141 क्षेत्रों के मतदाताओं की आवाज को संसद से बाहर कर दिया गया है। इन 141 सांसदों में 95 तो अकेले लोकसभा सांसद हैं।
संसद में हंगामा करना एक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया होती है। बेशक संसद वाद-विवाद औऱ बहस का मुख्य स्थल होती है परन्तु सबसे महत्वपूर्ण इस प्रक्रिया के अंतर्गत “संवाद” आता है। यदि एेसा न होता तो केन्द्रीय मन्त्रिमंडल में संसदीय कार्य मन्त्री का पद क्यों सृजित किया जाता? यह पद संसद के विभिन्न पटलों पर सत्ता व विपक्ष के बीच संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से ही सृजित किया गया था क्योंकि संसद केवल बहस-मुबाहिसा करके ही किसी विषय को छोड़ नहीं देती है बल्कि उस पर निर्णय भी करती है। लोकतन्त्र में संसद की सबसे बड़ी उपयोगिता यह होती है कि इसके माध्यम से देश के कितने लोगों के जीवन को बेहतर बनाया गया। यह कथन भी प्रथम लोकसभा अध्यक्ष श्री जी. मावलंकर का ही है जो उन्होंने संसद सदस्यों के कर्त्तव्यों के बारे में कहे थे कि आने वाली पीढि़यां संसद को इसलिए याद नहीं करेंगी कि उसने कितनी संख्या में विधेयक पारित किये बल्कि इसलिए याद करेंगी कि उसने कितने लोगों का भविष्य उज्जवल बनाने के लिए कार्य किया। यह प्रणाली कहती है कि लोकसभा अध्यक्ष से लेकर राज्यसभा के सभापति तक को हर वक्त यह विचार करते रहना चाहिए और अपने गिरेबान में लगातार झांक कर यह सोचते रहना चाहिए कि उनसे किसी संसद सदस्य के साथ अन्याय तो नहीं हो गया क्योंकि संसद में एक व्यक्ति को सजा मिलने का अर्थ उसके चुनाव क्षेत्र के लाखों मतदाताओं को सजा दिये जाने के समकक्ष होता है।
संसद विभिन्न नियमावली होने के बावजूद अपने सदस्यों को निलम्बित करते वक्त इसीलिए लाख बार सोचती है कि उसकी कलम से कही भूले से भी इस देश के लोकतन्त्र के असली मालिक मतदाता के अधिकारों पर कुठराघात न हो जाये। यह बेसबब नहीं था कि 1967 तक लोकसभा का अध्यक्ष बनने के बाद किसी भी राजनैतिक दल का सदस्य उसकी सदस्यता त्याग देता था जिससे उसकी दलगत प्रतिबद्धता को लेकर कोई भी सांसद शक की अंगुली न उठा सके। क्या यह बेवजह था कि 1953 में स्वतन्त्र भारत की पहली ही लोकसभा में तत्कालीन विपक्ष के बहुत अल्पमत में रहने के बावजूद श्री मावलंकर जैसे महान व्यक्तित्व के धनी अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। स्व. मावलंकर ने इसे सहर्ष स्वीकार किया था और अविश्वास प्रस्ताव को उन्होंने स्वयं स्वीकृति दी थी। इस प्रस्ताव पर मतदान तब के लोकसभा उपाध्यक्ष की सदारत में कराया गया था जो कि बुरी तरह से गिर गया था। मगर इस प्रस्ताव के चलते श्री मावलंकर अपना आसन छोड़ कर सामान्य सांसदों के साथ बैठ गये थे। मतदान में उन्हें वोट देने की इजाजत भी नहीं थी। हमारा लोकतन्त्र केवल शुचिता का ही नहीं बल्कि ‘संसदीय वीरता’ का भी लोकतन्त्र है।

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