विधेयक विधानसभा का परिक्षेत्र
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में पूरे देश के राज्यपालों की स्थिति पूर्णतः स्पष्ट कर दी और कहा है कि उन्हें विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को अनिश्चितकाल तक के लिए लम्बित रखने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है। इसके साथ ही मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता में गठित तीन सदस्यीय पीठ ने साफ कर दिया है कि राज्यपाल कोई निर्वाचित पद नहीं है बल्कि वह नियुक्त व्यक्ति होता है जिसके जिम्मे कुछ संवैधानिक कार्य होते हैं। अतः वह लोगों द्वारा चुनी गई विधानसभा की बहुमत की सरकार के वैधानिक क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता। पीठ में न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा शामिल हैं। देश की सबसे ऊंची अदालत द्वारा दिया गया यह फैसला अब मुल्क का कानून हो गया है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा है कि राज्यपाल किसी भी राज्य का सांकेतिक मुखिया होता है जिसका काम देश की संघीय संरचना की सुरक्षा करना होता है जो कि संविधान के आधारभूत ढांचे का हिस्सा है। अतः राज्यपाल को मनमुताबिक विवेकाधिकार के आधार पर किसी भी लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गई सरकार के उस कार्यक्षेत्र में दखल देने का अधिकार नहीं दिया जा सकता जो कि केवल उसी के कार्यक्षेत्र की परिधि में आता है।
राज्यपालों के अधिकारों के बारे में दाखिल विभिन्न याचिकाओं के अध्ययन के बाद न्यायालय ने भिन्न संस्थानों की महत्ता के साथ उनकी काम करने की लोकतान्त्रिक प्रणाली को मजबूत बनाने का काम किया है। संघीय ढांचा और लोकतन्त्र संविधान के दो ऐसे भाग हैं जिन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि दोनों ही मूल ढांचे के अंग हैं। इनमें से यदि एक अंग को भी कमजोर किया जाता है तो उसके असर से दूसरे भाग पर संकट खड़ा हो जाता है। इसलिए संघीय ढांचा और लोकतन्त्र का आपसी संपूरक होना देश के लोगों की मूलभूत नागरिक अधिकारों की स्वतन्त्रता और उनकी अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए बहुत जरूरी है। इन दोनों के परस्पर अन्तर्निहित सम्बन्ध में जब किसी एक भाग को भी नुकसान पहुंचाया जाता है तो वह देश की संवैधानिक प्रशासन तन्त्र प्रणाली की हानि करता है। सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश से साफ है कि आजकल देश के विभिन्न राज्यों में स्थित राज्यपालों के खिलाफ वहां की चुनी हुई राज्य सरकारें जिस प्रकार शिकायतें करती रहती हैं वे तथ्यहीन नहीं हैं।
लोकतन्त्र के लिए दुर्भाग्य की बात यह है कि एेसी शिकायतें प्रायः उन प्रदेशों की सरकारें करती हैं जहां विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं। यह निर्णय भी पंजाब सरकार द्वारा वहां के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित के कामों के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई करने के बाद ही आया है। पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है। इसके साथ केरल व तमिलनाडु की राज्य सरकारें भी ऐसे ही मामलों में सर्वोच्च न्यायालय पहुंची थीं। इन दोनों राज्यों में क्रमशः वामपंथी दलों व द्रमुक की सरकारें हैं। इन राज्यों के राज्यपाल भी काफी लम्बे अर्से से विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयक पर चौकड़ी मार कर बैठे हुए थे। इनमें से तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि ने तो पिछली 13 नवम्बर को दस विचाराधीन विधेयकों को तब स्वीकृति प्रदान की जब 10 नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय ने ही इस सन्दर्भ में बहुत तीखी टिप्पणी की थी। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान अभी भी आठ विधेयकों पर आलथी-पालथी मार कर बैठे हुए हैं।
सवाल यह पैदा होता है कि जब संविधान के अनुसार राज्यपालों को ऐसा करने का अधिकार ही नहीं है तो वे एेसा कार्य क्यों करते हैं जबकि वे संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति महोदय के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किये जाते हैं। उनकी नियुक्ति भी राष्ट्रपति की प्रसन्नता पर ही निर्भर करती है। उनके ऐसे कामों से निश्चित रूप से भारत की बहुदलीय संघीय प्रणाली को गहरा आघात पहुंचता है। भारत में केवल जैविक, भौगोलिक व सामाजिक विविधता ही नहीं है बल्कि इसके असर से राजनैतिक विविधता भी है। जरूरी नहीं है कि भारत के कुल 28 प्रदेशों में किसी एक ही राजनैतिक दल की सरकार हो। हम पूरी दुनिया में संसदीय प्रणाली के सबसे बड़े लोकतन्त्र इसलिए कहलाये जाते हैं कि इसमें बहुदलीय राजनैतिक व्यवस्था को अपनाते हुए अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग राजनैतिक दलों की सरकारें वहां की जनता द्वारा जनादेश के अनुसार गठित होती रहती हैं। इससे केन्द्र में गठित किसी अन्य दल की सरकार के साथ उनका कोई टकराव भी नहीं होता क्योंकि भारत में अन्ततः शासन संविधान का ही होता है और संविधान में स्पष्ट प्रावधान है कि राज्य सरकारें व केन्द्र सरकारें अपने-अपने निर्दिष्ट अधिकारों के तहत ही कार्य करेंगी। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने इस सन्दर्भ में आज धुंध को छांटते हुए साफ लिख दिया है कि राज्यपाल को अनुच्छेद 200 यह अधिकार तो देता है कि वह किसी विधेयक को रोक सकता है मगर यह अधिकार नहीं देता कि वह निष्क्रिय होकर इस पर बैठा रहे और आगे की कोई कार्रवाई न करे जिसे करने के लिए वह संवैधानिक रूप से बंधा हुआ होता है। माननीय न्यायालय के आदेशानुसार राज्यपाल को किसी भी विधेयक को ‘वीटो’ करने का हक नहीं है। वह किसी विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस राज्य सरकार के पास शीघ्रतिशीघ्र इच्छित संशोधन के लिए भेजेगा जिस मामले में अन्तिम इच्छा विधानसभा की ही चलेगी। वैसे राज्यपाल को यह अधिकार भी होता है कि वह किसी विधेयक से सन्तुष्ट न होने पर उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए भेज सके मगर वह विधेयक को अपने तकिये के नीचे रखकर सो नहीं सकता। अर्थ यह निकला कि विधेयक पर विधानसभा का अधिकार ही होता है।