यूपी में धर्मांतरण कानून में बड़ा बदलाव
चार साल पहले उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने गैरकानूनी धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम लागू किया था। अब सरकार ने धर्मांतरण कानून में बड़ा बदलाव किया है। जिसमें सजा और जुर्माना राशि दोनों बढ़ाई गई है। साथ ही इसे अधिक व्यापक रूप से लागू करने योग्य बनाया गया है। बीते दिनों विधानमंडल के मानसून सत्र में विधानसभा में सरकार द्वारा पेश किए गए इस संशोधन विधेयक के उद्देश्यों को लेकर कहा गया है कि यह विधेयक कुछ समूहों, जिनमें नाबालिग, दिव्यांग, महिलाएं, एससी-एसटी समुदायों के लोग शामिल हैं, की सुरक्षा के उद्देश्य से लाया गया है। सरकार का तर्क है कि धर्मांतरण के मामले में कड़ी सजा और जुर्माने की जरूरत थी जो इसमें किया गया है। नए धर्मांतरण कानून में कहा गया है कि यदि कोई शख्स किसी व्यक्ति को जबरन डरा-धमकाकर या जान-माल की धमकी देकर उसका धर्म परिवर्तन कराता है तो यह गंभीर अपराध की श्रेणी में आएगा। इसी तरह यदि कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन के बाद जानबूझकर किसी नाबालिग लड़की से शादी करता है या महिला की तस्करी करता है तो यह भी गंभीर अपराध माना जाएगा।
संशोधित कानून में दो प्रावधान सबसे अहम हैं। पहला, अगर दोषी व्यक्ति विदेशी या गैरकानूनी एजेंसियों से जुड़ा हुआ पाया जाता है तो उसे 10 लाख रुपये का जुर्माना और 14 साल तक की कैद हो सकती है। दूसरा, किसी व्यक्ति को बहला-फुसलाकर या उकसाकर गैरकानूनी धर्मांतरण कराने पर 20 साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है। यह प्रावधान खास तौर पर एससी-एसटी समुदाय की नाबालिग लड़कियों या महिलाओं के गैरकानूनी धर्मांतरण के मामलों पर लागू होगा। दोषी व्यक्तियों को अवैध धर्मांतरण का शिकार हुए लोगों को मुआवजा भी देना होगा। 2021 में पारित अधिनियम में गैरकानूनी धर्मांतरण के लिए अधिकतम 10 साल की सजा का प्रावधान था।
सरकार के अनुसार अभी के दंडात्मक प्रावधान इन समूहों से जुड़े लोगों का ‘एकल धर्मान्तरण और सामूहिक धर्मांतरण को रोकने और नियंत्रण’ करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। विधेयक में इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश रोहित रंजन अग्रवाल के 01 जुलाई को दिए आदेश की रोशनी भी झलकती है। अपने आदेश में एक आरोपी की जमानत याचिका खारिज करते हुए न्यायाधीश ने कहा था-‘उत्तर प्रदेश में एससी-एसटी और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को ईसाई धर्म में धर्मांतरण की अवैध गतिविधियां बड़े पैमाने पर चल रही हैं।’
यह संशोधन पूर्व में उत्पन्न कठिनाइयों का भी समाधान करेगा जो धारा 4 के तहत दर्ज हुईं थी। धारा 4 ‘किसी भी पीड़ित व्यक्ति, उसके माता-पिता, भाई-बहन या किसी भी अन्य व्यक्ति को जो रक्त सम्बंधी, विवाह या गोद लेने से सम्बंधित हैं, को ही रिपोर्ट दर्ज कराने की अनुमति देने से जुड़ी थी।’ इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वर्ष 2023 में कम से कम दो मौकों पर यह निर्धारित किया है कि ‘किसी भी पीड़ित’ का मतलब यह नहीं है कि कोई भी गैरकानूनी धर्मांतरण के लिए एफआईआर दर्ज करा सकता है।
सितम्बर 2023 में, जोस पापाचेन बनाम उप्र सरकार मामले में कोर्ट ने निर्धारित किया था ‘केवल पीड़ित व्यक्ति ही’ और ‘उसका परिवार माता-पिता, भाई-बहन आदि’ ही धर्मांतरण मामले में प्राथमिकी दर्ज करा सकते हैं। फरवरी 2023 में भी हाईकोर्ट ने फतेहपुर सामूहिक धर्मांतरण मामले में भी इसी तरह का आदेश दिया था।
संशोधन के जरिए ‘एफआईआर कौन दर्ज करा सकता है’ के शब्दों में भी बदलाव किया गया है। धारा 4 के शब्दों में बदलाव कर उन कठिनाइयों को सम्बोधित किया गया है जो उत्पन्न हुईं हैं। संशोधित प्रावधान में उल्लेखित है ‘कोई भी व्यक्ति’ 2021 के अधिनियम के उल्लंघन पर प्राथमिकी दर्ज करा सकता है जैसा कि नए आपराधिक प्रक्रिया कानून, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023 में प्रावधान है। बीएनएसएस की धारा 173 में एफआईआर दर्ज कराने के प्रावधानों में है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी थाने में अधिनियम के तहत कथित अपराधों के लिए रिपोर्ट दर्ज करा सकता है।
2021 के अधिनियम की धारा 3 ‘गलत तरीकों, बलपूर्वक, अनुचित दबाव, लालच’ आदि से धर्म परिवर्तन को दंडनीय अपराध बनाने से सम्बद्ध है। धारा 3 के तहत आरोपित लोगों के लिए कठोर जमानत शर्तों को उसी तरह लागू करने का प्रावधान है जिस तरह मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम 2002 और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम 1967 में है। अब एक नई धारा 7 के तहत किसी भी आरोपी को जमानत पर तब तक रिहा नहीं किया जा सकता जब तक दो शर्तें पूरी न हो जाएं। इसमें पहली शर्त है -पब्लिक प्रॉसीक्यूटर को जमानत अर्जी का विरोध करने का अवसर दिया जाना चाहिए।
दूसरी शर्त है कि कोर्ट को इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि ‘ऐसा विश्वास करने के लिए उचित आधार है कि व्यक्ति ऐसे अपराध का दोषी नहीं है और जमानत पर रहने के दौरान कोई अपराध नहीं करेगा।’ दंड व जुर्माना राशि में कितनी वृद्धि धारा 5 के तहत अपराध में दो नई श्रेणियों को जोड़ा गया है। पहला-अवैध धर्म परिवर्तन के लिए आरोपी ने किसी विदेशी या अवैध संस्थाओं से धन लिया हो, उसे सात से चैदह वर्ष के कठोर कारावास से दंडित किया जाएगा और उसे न्यूनतम 10 लाख रुपए का जुर्माना भी देना होगा।
दूसरा- धर्मांतरण के लिए किसी को डराने, विवाह का वादा करने या फिर महिला या व्यक्ति की तस्करी करने या उन्हें बेचने की साजिश रचने पर कम से कम 20 वर्ष के कठोर कारावास की सजा का प्रावधान है, जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है। 2021 में पारित कानून में अधिकतम सजा 10 साल थी ।
भाजपा शासित अन्य राज्यों जैसे उत्तराखंड, गुजरात और मध्य प्रदेश में भी धर्मान्तरण विरोधी कानून बनाए गए हैं। उत्तर प्रदेश के संशोधन विधेयक की तर्ज पर अन्य राज्यों में भी ऐसे ही विधेयक पेश किए जा सकते हैं। राजस्थान विधानसभा के इसी सत्र में धर्म परिवर्तन पर रोकथाम के लिए सख्त कानून बनाने की मांग उठी है।
नए धर्मांतरण विधेयक के खिलाफ समाजवादी पार्टी से लेकर कांग्रेस तक ने मोर्चा खोल दिया है। विपक्ष का सबसे बड़ा तर्क है कि इससे झूठी शिकायतों की बाढ़ आ जाएगी। कांग्रेस का कहना है कि राज्य सरकार को एक कमीशन भी बनाना चाहिए जो इस बात की जांच करे करे कि जो शिकायत दी गई है वह सही भी है या नहीं। उधर, समाजवादी पार्टी का कहना है कि अगर अलग-अलग धर्म के दो लोगों ने अपनी मर्जी से शादी कर ली और इस केस में उनके मां-बाप भी राजी हैं, तब भी नए विधेयक के अनुसार कोई तीसरा व्यक्ति इसकी शिकायत कर सकता है। यह सीधे-सीधे संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ है। इन कानूनों का विरोध भी हो रहा है। यही वजह है कि व्यक्तिगत रूप से अनेक लोगों, सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) तथा जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द जैसे एनजीओ ने ऐसे कानूनों को विभिन्न अदालतों में चुनौती दी है। सीजेपी ने ऐसी सभी चुनौतियों को सुप्रीम कोर्ट में स्थानान्तरण के लिए याचिका लगाई है। शीर्षस्थ अदालत को अभी निर्णय करना बाकी है।
धर्मांतरण विरोधी कानून भारत में एक बहस का विषय है। कुछ लोगों का मानना है कि देश की सांस्कृतिक और सामाजिक एकता के लिए ये कानून जरूरी हैं। वहीं, दूसरों का कहना है कि ये कानून अल्पसंख्यकों के शोषण का जरिया हैं और धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि धर्मांतरण विरोधी कानून संवैधानिक हैं, बशर्ते कि वे किसी व्यक्ति के धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार में हस्तक्षेप न करते हों। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तो हाल में ये टिप्पणी की थी कि अगर धर्मांतरण पर लगाम नहीं लगी तो बहुसंख्यक हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएगा।
- रोहित माहेश्वरी