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ढोंगी बाबाओं की अंध भक्ति

05:48 AM Jul 11, 2024 IST
ढोंगी बाबाओं की अंध भक्ति

संभवतः पूरी दुनिया में भारतीय उपमहाद्वीप एकमात्र ऐसा इलाका होगा जहां खुद को भगवान बताने वाले बाबाओं का समाज में दबदबा बन जाता है। उन्हें पूजने वाले लोग अंध भक्ति में उनके पिछले जीवन के रिकार्ड को ताक पर रख कर उनकी सेवा में लगे रहते हैं। धर्म हमें नीतिशास्त्र या नैतिकता का ज्ञान देता है मगर हम इन ढोंगी बाबाओं की नैतिकता को पहचानने का प्रयास नहीं करते और अंध भक्ति में डूब जाते हैं। मूल प्रश्न यह है कि बाबा लोग आम जनता का मूर्ख बनाने में सफल क्यों और कैसे हो जाते हैं? इसका कारण मानवीय कमजोरियां होती हैं। मनुष्य अपने दुखों व कष्टों का त्वरित इलाज पाने के लिए इन बाबाओं के बारे में उड़ाई गई चमत्कारी अफवाहों का शिकार हो जाता है और उनकी भक्ति करने लगता है। मगर यह समस्या इतनी हल्की नहीं है जितनी ऊपर से दिखाई देती है। इसके मूल में सामाजिक असन्तोष मुख्य रूप से होता है। मुख्य रूप से लोकतान्त्रिक देशों में यह जिम्मेदारी सरकार की होती है कि वह ऐसे बाबाओं के कृत्यों को जायजपन न बख्शे। मगर भारत में खुद राजनीतिज्ञ जब इन बाबाओं की शरण में जाकर उनके आगे शीश झुकाते हैं तो सामान्य व्यक्ति को मतिभ्रम हो जाता है और वह राजनीतिज्ञों की चाल पर चलने लगता है।

बेशक भारत में हर व्यक्ति को अपना धर्म मानने व उसका प्रचार-प्रसार करने का अधिकार है मगर संविधान स्पष्ट रूप से यह भी कहता है कि सरकारों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे आम लोगों में वैज्ञानिक सोच पैदा करने के लिए यथोचित कदम उठायें। इस मोर्चे पर हमें बहुत निराशा का सामना करना पड़ता है क्योंकि बड़े-बड़े मन्त्री व नेता इन बाबाओं को उनके दरबार में हाजिरी लगा कर वैधता प्रदान करते हैं। यह वैधता ही लोकतन्त्र में वैज्ञानिक सोच के पनपने में सबसे बड़ी बाधा होती है। विगत 2 जुलाई को उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले के एक गांव में आयोजित सत्संग में भगदड़ मच जाने पर जिस प्रकार सवा सौ लोगों की मृत्यु हुई उसके मूल में वैज्ञानिक सोच को पनपने न देने का अभिशाप ही है। चाट-पकौड़ी खिलाकर या रंगीन चश्में लगा कर लोगों के कष्ट निवारण करने वाले ये बाबा मनोवैज्ञानिक रूप से गरीब व भोली-भाली जनता के मन में अंधविश्वासी बने रहने के भाव जगा देते हैं और फिर अपनी पूजा कराते हैं। राजनीतिज्ञ उनके आयोजनों में आने वाली भीड़ से प्रभावित होकर उनके अनुयायियों में केवल वोट की खातिर शामिल हो जाते हैं। इसीलिए बाबाओं का राजनीतिक सम्पर्क बहुत मजबूत रहता है। हाथरस कांड में भोले बाबा या सूरजपाल नारायण हरि को जिस प्रकार पूरे मामले की जिम्मेदारी लेने से अभी तक बचाया गया है वह इस कांड का परिस्थिति जन्य साक्ष्य है।

कयामत तो यह है कि भोले बाबा उत्तर प्रदेश पुलिस से बर्खास्त किया गया एक कांस्टेबल है और उसने अपनी बाबागिरी शुरू करके करोड़ों का साम्राज्य बना लिया है। इस कांड के बाद जिस तरह उत्तर प्रदेश सरकार ने पूरी घटना की जांच कराने के लिए दो वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का विशेष जांच दल गठित किया था उससे यह अपेक्षा बनती थी कि इस कांड की जिम्मेदारी के लिए भोले बाबा को भी नामजद किया जायेगा मगर इस जांच दल ने अपनी आठ सौ से अधिक पृष्ठों की रिपोर्ट में उसका जिक्र तक नहीं किया और सारी जिम्मेदारी सत्संग के आयोजकों पर डाल दी। सवाल यह है कि उन्होंने यह आयोजन किसके लिए किया था? जाहिर है कि लोग सूरजपाल को ही देखने व सुनने आये थे। अपने बारे में यह भ्रम फैला कर कि उसके चरणों की धूल से कष्ट निवारण हो जाते हैं। लोग उसके पंडाल से जाते समय उसके पैरों की धूल माथे पर लगाने के लिए दौड़े जिसमें ऊबड़-खाबड़ जमीन के होने की वजह से भगदड़ मचने पर लोग दबते चले गये। अतः असली जिम्मेदारी भोले बाबा की ही बनती है कि उसे अपने बारे में अंधविश्वास को फैलने दिया। यहां सवाल आस्था का बिल्कुल नहीं है बल्कि अंधविश्वास का है और पाखंड का है।

भारत में पाखंड व अन्धविश्वास से मुक्ति दिलाने के लिए ही कई मतों का उदय हुआ जिनमें सिख धर्म से लेकर ब्रह्म समाज व आर्य समाज प्रमुख हैं। मगर राम-रहीम से लेकर सूरजपाल व आशाराम बापू आदि जैसे बाबाओं ने अपने ही अंधविश्वासों पर अपना अनुयायी समाज पैदा कर दिया। सबसे अधिक हास्यास्पद यह है कि हाथरस कांड के घटने को विशेष जांच दल किसी साजिश का हिस्सा होने से भी इन्कार नहीं कर रहा है। यह दूध में पड़ी मक्खी को नजरअन्दाज करने का प्रयोजन ही कहा जा सकता है। बाबाओं की असलियत खुलने से कोई भी रोक नहीं सकता चाहे वह राजनीतिज्ञ ही क्यों न हो।

प्रश्न सिर्फ जनता के जागने का है। दरअसल ढोंगी बाबा तभी समाज में पैदा होते हैं जब सरकारें समाज के मानवीय विकास से विमुख होकर उसे अपने हाल पर छोड़ देती हैं और इन बाबाओं के साथ अपराधी बन जाने के बावजूद विशेष व्यवहार करती हैं जैसा कि हमने बाबा राम-रहीम के मामले में देखा कि किस प्रकार उसे जेल से बार-बार पैरोल पर रिहा किया जाता है जबकि वह हत्या व बलात्कार का दोषी है। हाथरस कांड में बाबा की संलिप्तता छिपाई नहीं जा सकती क्योंकि उसने पंडाल छोड़ने के बाद पीड़ित लोगों की सुध ही नहीं ली। मगर न पुलिस एफआईआर और इसमें उसका जिक्र है और न जांच दल की रिपोर्ट में। भारत कानून से चलने वाला देश है और भारतीय दंड संहिता कहती है कि परिस्थिति जन्य साक्ष्यों की मौजूदगी भी बड़ी अहमियत होती है। मगर सबसे बड़ा सवाल बाबाओं द्वारा अंधविश्वास फैलाने का ही। भारत के कुछ राज्यों में इसे रोकने के कानून हैं मगर ऐसे कानून प्रत्येक राज्य में बनने चाहिए जिससे लोग कथित चमत्कारों के बहकावे में न आकर अपना जीवन जोखिम में न डालें।

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Shivam Kumar Jha

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