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संविधान का जश्न मनाएं !

02:12 AM Jul 16, 2024 IST
संविधान का जश्न मनाएं

कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि वह भारतीय संविधान को जन विमर्श में लाये। हाल में सम्पन्न लोकसभा चुनावों में जिस प्रकार संविधान एक चुनावी मुद्दा बना उससे यह भ्रम टूट गया कि भारत के अधिसंख्य पिछड़े व कम पढे़-लिखे लोगों के लिए संविधान बहुत दुरूह विषय है और उनकी समझ से ऊपर का मामला है। एक बार फिर गांधी के इस विश्वास को भारत के लोगों ने पक्का साबित किया जो उन्होंने 1934 में व्यक्त करते हुए कहा था कि भारत के लोग गरीब व अनपढ़ हो सकते हैं मगर वे मूर्ख या अज्ञानी नहीं हैं। गांधी जी की मृत्यु के 75 वर्ष बाद भी यह सिद्ध हुआ कि भारत के लोग मूर्ख नहीं हैं और वे अपना भला-बुरा भली- भांति पहचानते हैं। हमने लोकसभा चुनावों में भी संविधान का मुद्दा उठने पर इसका असर देखा औऱ पाया कि गांवों के दलित व आदिवासी तथा पिछड़े लोगों ने किस शिद्दत के साथ अपनी पहचान को भारतीय संविधान के साथ जोड़ा और पूरी दुनिया को बताया कि संविधान ने उन्हें जो कुछ भी दिया है उसे उनसे छीनने के प्रयासों को कभी भी सफल नहीं होने दिया जायेगा। हमारा संविधान दुनिया का ऐसा क्रान्तिकारी संविधान है जिसने अंग्रेजों द्वारा लूटे गये भारत के नागरिकों को न केवल सशक्त बनाया बल्कि उन्हें इस मुल्क के मालिकाना हक भी सौंपे।

गांधी के सपनों को साकार करते हुए संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने प्रत्येक वयस्क नागरिक को एक वोट का समान अधिकार दिया और ऐलान किया कि अब भारत किसी सम्राट या महाराजा के शासन में नहीं चलेगा बल्कि सड़क पर झाड़ू लगाने वाले से लेकर खेतों में मजदूरी करने वाले मजदूर के एक वोट से चलेगा। उसके वोट की कीमत वही होगी जो किसी मिल मालिक या पूंजीपति के वोट की होगी। वह अपने एक वोट का प्रयोग करके अपनी मनपसन्द की सरकार बना सकेगा। वास्तव में यह एक मूक क्रान्ति थी जो भारत में स्वतन्त्रता के साथ हुई। इसके प्रणेता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ही थे। गांधी ने 1932 में ही बाबा साहेब अम्बेडकर के साथ पुणे समझौता करके आश्वासन दे दिया था कि स्वतन्त्र भारत में जन्म के आधार पर जातिगत व्यवस्था के चलते सदियों से अपमान झेल रहे अनुसूचित जातियों के लोगों को आरक्षण दिया जायेगा।

संविधान जब बना तो इस वादे को निभाया गया और अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों को उनकी आबादी के लिहाज से राजनैतिक आरक्षण दिया गया। इस मुद्दे पर आजादी के बाद से विवाद होता रहा है मगर सत्य यही है कि हजारों साल तक जिन जातियों के लोगों के साथ पशुवत व्यवहार किया गया हो ऊपर उठाने की जिम्मेदारी आजाद भारत की सरकारों को लेनी ही होगी। संविधान ने यह गारंटी दी और बाद में पिछड़े वर्गों के लोगों को भी शैक्षिक व सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में भी आरक्षण दिया गया। यह आरक्षण इन वर्गों का जायज हक था जिसकी व्यवस्था हमारे संविधान में ही थी। हमारा संविधान पूरे भारत की संरचना दर्शाता है और बताता है कि हर धर्म का मानने वाला व्यक्ति इसका सम्मानित नागरिक है। उसके अधिकार बराबर हैं।

भारत के हर भू भाग पर रहने वाला किसी भी धर्म का व्यक्ति इसका नागरिक है और किसी विशेष धर्म के मानने वालों के किसी भी प्रकार के विशेषाधिकार नहीं हैं। जिसकी वजह से यह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहलाया। भारत की यह विशेषता प्रारम्भ से ही रही है कि यह विभिन्न संस्कृतियों का समागम स्थल रहा। विभिन्न संस्कृतियां भारतीयता के रंग में मिलती गईं और भारतीय संस्कृति का अंग बनती चली गईं। विविधता में एकता का स्वर इसका आदर्श वाक्य इसी प्रकार बना। यह प्रसन्नता की बात है कि केन्द्र सरकार संविधान लिखे जाने के 75 सालों का जश्न मनाना चाहती है। दरअसल संविधान का जश्न हम हर रोज तब मनाते हैं जब किसी दलित व्यक्ति को शासन के उच्च शिखर पर देखते हैं। केवल चुनावी हानि-लाभ के लिए संविधान का जश्न मनाने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि संविधान भारत के 140 करोड़ लोगों की एकता का प्रहरी है। यह संविधान ही भारत को उतर से दक्षिण औऱ पूर्व से पश्चिम तक जोड़े हुए है।

संघीय ढांचे की जो परिकल्पना हमारे संविधान निर्माता केन्द्र सूची, राज्य सूची व समवर्ती सूची की मार्फत करके गये हैं उसमेें स्पष्ट रूप से भारत की संपुष्ट अवधाऱणा ही है। यह अवधारणा ही एक तमिल को उत्तर भारतीय से जोड़ती है और कहती है कि अलग-अलग वेश-भूषा व बोली या भाषा होने के बावजूद हम सभी एक धागे से बन्धे हुए हैं। हम सभी को संविधान भारतीय होने का गौरव देता है। चाहे हिन्दू हो या मुसलमान हर नागरिक को संविधान एक समान अवसर व अधिकार देता है। हमारा पूरा ढांचा ही जब धर्मनिरपेक्ष है तो फिर इस देश में धर्म का राजनीति के लिए कैसे इस्तेमाल हो सकता है। संविधान ही नागरिकों का पहला धर्म होता है क्योंकि यह उनके नागरिक अधिकारों को संरक्षण देता है। संविधान कहता है कि धर्म या मजहब नागरिक का निजी मसला होता है। वह अपने घर में हिन्दू-मुसलमान हो सकता है मगर जब वह राज्य के समक्ष आता है तो केवल एक नागरिक होता है। हम 26 नवम्बर को संविधान दिवस मानते हैं। मगर पिछले दिनों घोषणा हुई कि 25 जून को संविधान हत्या दिवस भी मानाया जायेगा। हमें विध्वंस की नहीं बल्कि सृजन की याद में जश्न मनाने चाहिए।

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Shivam Kumar Jha

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