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पांच राज्यों के रंगीले चुनाव

05:39 PM Oct 10, 2023 IST
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देश के जिन पांच राज्यों में आज चुनावों की घोषणा हुई है उनमें सबसे प्रमुख तथ्य यह है कि इन सभी में मुख्य मुकाबला देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस का अन्य दलों से है जिनमें भाजपा निश्चित रूप से प्रमुख है क्योंकि यह पार्टी केन्द्र में सत्तारूढ़ होने के साथ ही दो राज्यों में अपने या अपने सहयोगी दलों के बूते पर सत्ता में है जबकि कांग्रेस भी दो राज्यों में अपने बूते पर हुकूमत में है। कांग्रेस राजस्थान व छत्तीसगढ़ में शासन में है जबकि भाजपा मध्य प्रदेश में अपने बूते पर और मिजोरम में क्षेत्रीय पार्टी मिजो नेशनल फ्रंट में सहयोग कर रही है जबकि तेलंगाना में के. चन्द्रशेखर राव की भारत राष्ट्रीय समिति ने राज संभाला हुआ है। चुनाव आयोग ने आज इन पाचों राज्यों में मतदान की तिथियों की घोषणा करते हुए 3 दिसम्बर को चुनाव परिणाम घोषित करने का ऐलान किया औऱ बताया कि पूरे नवम्बर महीने में 7 तारीख से शुरू होकर 30 नवम्बर तक चुनाव होंगे। छत्तीसगढ़ में ही केवल दो चरणों 7 नवम्बर व 17 नवम्बर को चुनाव होंगे जबकि मध्य प्रदेश में 17 नवम्बर को, राजस्थान में 23 नवम्बर को व तेलंगाना में 30 नवम्बर चुनाव होंगे। मिजोरम में 7 नवम्बर को ही मतदान पूरा करा लिया जायेगा।

मिजोरम मणिपुर से लगा हुआ राज्य है अतः इसमें चुनाव कराना निश्चित रूप से ही चुनौतीपूर्ण कार्य होगा क्योंकि मणिपुर की हिंसा से यह राज्य प्रभावित रहा है। सबसे महत्वपूर्ण चुनाव हिन्दी क्षेत्र के तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान के माने जा रहे हैं क्योंकि इन राज्यों के चुनाव परिणामों से अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों का ‘पारा’ नापा जायेगा। इसकी वजह यह है कि इन तीनों राज्यों की एक को छोड़ कर सभी शेष सीटों पर भाजपा का कब्जा हो गया था। वैसे पिछले 2018 के विधानसभा चुनावों में इन तीनों राज्यों में चुनावों के बाद कांग्रेस की ही सरकारें बनी थी मगर मध्य प्रदेश ऐसा राज्य था जहां कांग्रेस नीत कमलनाथ सरकार सवा साल बाद ही दल बदल की ‘इस्तीफा संस्कृति’ के पनपने से टूट गई थी। अब यही राज्य भाजपा के लिए सबसे ज्यादा मुश्किल बना हुआ है क्योंकि भाजपा ने यहां कमलनाथ सरकार गिरा कर अपने पुराने मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान को पुनः मुख्यमन्त्री बना दिया था। अब भाजपा केवल मध्य प्रदेश में ही नहीं बल्कि सभी राज्यों में क्षेत्रीय नेतृत्व को आगे न रख कर केवल पार्टी के नाम पर केन्द्रीय नेतृत्व को आगे रख कर चुनाव लड़ रही है। यदि चुनाव केवल विचारधारा के आधार पर नेताओं को पीछे रख कर लड़ा जाता है और सभी विधायकों को एक समान समझा जाता है तो संसदीय लोकतन्त्र में इसे आदर्श स्थिति कहा जा सकता है क्योंकि इससे आम मतदाता भी विचारधारा के आधार पर सीधे-सीधे दो खेमों में बंटेंगे औऱ लोकतन्त्र वैचारिक व बौद्धिक रूप से पुख्ता होगा परन्तु जमीन पर ऐसा देखने में नहीं आता है और राजनैतिक दल व्यक्तिगत आलोचना की हदों को पार करते हुए चरित्र हत्या तक की सीमा पर पहुंचते हुए देखे जाते हैं।

वास्तव में मतदाताओं द्वारा चुनावों के माध्यम से जिस पार्टी को सत्ता बख्शी जाती है वह लोकतन्त्र के मालिक मतदाताओं का हुक्म बजाने के लिए ही होती है क्योंकि चुनावों के मौके पर पार्टियां जो भी वादा अपने चुनाव घोषणापत्रों या अन्य घोषणाओं द्वारा करती हैं उन पर अमल को देख कर ही अगले चुनावों में मतदाताओं द्वारा उनका आकलन होता है। अतः चुनाव पिछले पांच साल के कामकाज का रिकार्ड देखने के लिए होते हैं। मगर होता प्रायः इसका उल्टा है। राजनैतिक दल मतदाताओं को भरमाने के लिए नये-नये वादे और घोषणाएं करना शुरू कर देते हैं। इसके साथ ही मतदाताओं को सरकारों की नीति और नीयत पर भी ध्यान देना होता है जिससे उस सरकार का आंकलन करना आसान हो जाता है। इन पांच राज्यों के चुनाव यह तय कर सकते हैं कि राजनीति की आगे की दिशा क्या होगी और भारत विशेष कर हिन्दी राज्यों के लोग किस पार्टी की विचाधारा और नीतियों के साथ जाना पसन्द कर सकते हैं। वैसे भारत की त्रिस्तरीय चुनाव प्रणाली में म्युनिसिपल कमेटी से लेकर विधानसभा व लोकसभा की भूमिका स्पष्ट रूप से बंटी हुई है। इनमें विधानसभाओं की भूमिका ही सबसे प्रमुख रहती है क्योंकि भारत के संविधान के अनुसार केन्द्र की सरकार की नीतियों को भी लागू करने का काम राज्य सरकारें ही करती हैं। इसलिए पांचों राज्यों के चुनाव बहुत महत्वपूर्ण हैं।

जाहिर तौर पर इन चुनावों में अखिल भारतीय स्तर पर बने एनडीए तथा इंडिया गठबन्धन की विशेष भूमिका नहीं है परन्तु इसके बावजूद यह विपक्षी दलों के गठबन्धन ‘इंडिया’ की अग्नि परीक्षा होगी क्योंकि मतदाता यह देखना पसन्द करेंगे कि इस गठबन्धन में शामिल 28 राजनैतिक दल विधानसभा चुनावों में एक-दूसरे के ही खिलाफ चुनाव न लड़े। तर्क दिया जा सकता है कि ‘इंडिया’ गठबन्धन राष्ट्रीय लोकसभा चुनावों के लिए बना है मगर विधानसभा चुनावों में इनके एक-दूसरे के प्रत्याशी के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा करना जन अवधारणा में खलल जरूर पैदा कर सकता है। यह भी देखा जाना है कि जातिगत जनगणना का गणित किस प्रकार सामाजिक व राजनैतिक गणित बनाता है क्योंकि भाजपा का हिन्दुत्व का विमर्श हर चुनाव में बदस्तूर रहता है। कुल मिलाकर चुनाव बहुत रोचक होने जा रहे हैं मगर इतना निश्चित है कि ये देशवासियों को ऐसा सन्देश दे सकते हैं जिनसे राष्ट्रीय राजनीति की दिशा निर्धारित हो सकती है। हालांकि लोकसभा चुनावों के मुद्दे अलग होते हैं मगर देखने वाली बात यह होगी कि भाजपा हर राज्य के क्षेत्रीय मुद्दों पर चुनाव लड़ती है अथवा राष्ट्रीय मुद्दों को ही केन्द्र में रख कर मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश करती है। विधानसभा चुनाव भारत की बहुदलीय प्रशासनिक प्रणाली का भी पैमाना होते हैं क्योंकि भारत में केवल सामाजिक विविधता ही नहीं बल्कि राजनैतिक विविधता भी शुरू से रही है। तेलंगाना में जिस तरह कांग्रेस व भारत राष्ट्र समिति में मुख्य मुकाबला होगा उसका निश्चित रूप से राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव पड़ेगा क्योंकि यह दक्षिण का राज्य है और मिजोरम में जो विमर्श मणिपुर को लेकर बना है उसकी तसदीक होगी। यह रंगीलापन भारत की विविधता की ही खूबसूरती है।

 

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